विचार

महिला दिवस विशेषः समय के इस अध्याय का एक अमिट-अनिवार्य पन्ना है शाहीन बाग

सन 1857 में अमेरिका में समान भत्तों के लिए लड़ा गया फैक्टरी मजदूरिनों का आंदोलन ही आज दुनिया में महिला दिवस के तौर पर मनाया जाता है। स्त्री अधिकार के जितने भी बड़े आंदोलन हुए, वे ऐसी ही साधारण औरतों ने शुरू किए। आंदोलन की जमीन इन्हीं के पसीने से सिंचती रही है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

बहुत मुमकिन है कि स्त्री अधिकार की मौजूदा मांगों में आप इन्हें ‘जाहिल’ कह जाएं। इनका मानना है कि औरतों को दिन ढलते घर लौट आना चाहिए, अल्लाह ताला ने औरतों को एक नाजुक चीज दी है, उसे ढंककर ही घर से निकलना होता है। घर पर भी ध्यान देना जरूरी है, तलाक औरत और मर्द के बीच का आपसी मामला है, नई उम्र के बच्चे बिगड़ गए हैं, उनकी बिल्कुल नहीं सुनते। इसलिए उन्होंने चुप रहना सीख लिया है।

पर इन्हीं ‘बिगड़े बच्चों’ (लड़के और लड़कियां- दोनों) के हक के लिए वे सड़क पर उतर आईं हैं और कहती हैं- “वे जैसे हैं वैसे हैं, पर हम उन्हें दर-बदर होते तो नहीं देख सकते न! 120 करोड़ की आबादी में ज्यादातर लोग गरीब हैं। जब बारिश आती है, बाढ़ आती है तो उनके तन पर कपड़ा भी नहीं होता, तो वे कागज कहां से लाएंगे। कागज नहीं होगा तो उनको तो शरणार्थियों की तरह जीना पड़ेगा। इसके लिए हम लड़ रहे हैं। कल को हमारे बच्चे यह न कहें कि हमारे मां-बाप ने हमारे लिए कुछ किया नहीं। 1947 से लेकर आज तक जैसे हिंदुस्तान में हम आजादी से रहते आए हैं, ऐसे ही हमारे बच्चे भी आजादी से रहें। अल्लाह ताला सबको इस मुसीबत से बचाए।”

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पचास वर्षीय मेहरुन्निसा ने वर्जीनिया वुल्फ का ‘अ रूम ऑफ वन्स ऑन’ नहीं पढ़ा है। अपना कोई अलग कमरा होना, इनके ख्याल में भी नहीं है। पर वह पूरे देश के लिए लड़ रही हैं और लड़ रही हैं संविधान के उस अनुच्छेद के लिए जो सभी धर्म के मानने वालों को समानता का अधिकार देता है। जिस अधिकार पर देश के ही गृहमंत्री ने गर्वित भाव से मिट्टी डालने की कोशिश की है। संसद पहुंचे बहुमत ने मेजें थपथपाकर इस शर्मनाक बंटवारे का स्वागत किया था। बच्चों के सामने चुप रह जाने वाली मेहरुन्निसा आज देश के गृह मंत्री के खिलाफ मुखर हैं। वह चाहती हैं कि जैसे गृहमंत्री इसे संसद में लेकर आए थे, वैसे ही इसे खारिज भी करें। तभी वह अन्न का दाना ग्रहण करेंगी।

मेहरुन्निसा 31 दिसंबर से अनशन पर बैठी हैं। दिन भर में सिर्फ चाय या जूस पी लेती हैं। अन्न नहीं खातीं। उनसे पहले जैनुल अनशन पर बैठे थे। पर बीमार पड़ गए और लोगों के कहने पर उन्हें अनशन तोड़ना पड़ा। मेहरून्निसा तभी से मोर्चे पर डटी हैं। इतने दिनों के अनशन पर देह ढलने लगी है। नारेबाजी की हिम्मत उनमें नहीं रही है। धरना स्थल पर ही बिछी खाट पर रजाई के सहारे पीठ टिकाए बैठी रहती हैं। पर उनका हौसला अब भी डिगा नहीं है। वह कहती हैं, “जब तक सरकार हमारी बात नहीं सुनेगी, तब तक हम यहां से नहीं हटेंगे। चाहे आंधी आए, बारिश या तूफान।”

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विरोध प्रदर्शन के 77वें दिन की ढलती शाम में दिल्ली सचमुच बारिश में भीगने लगी थी। समय बीतते बारिश और तेज हो गई। जिस तिरपाल के नीचे वे डेरा डाले बैठी हैं, वह जगह-जगह से फटने लगी और उससे पानी टपकने लगा। बच्चों के हक के लिए लड़ रही इन मांओं ने कोने भले बदले हों, जगह नहीं छोड़ी। जगह-जगह जमा हो रहे पानी को तिरपाल से ढलकाने की कोशिश जारी है और जारी है अपने बच्चों के मुस्तकबिल को महफूज रखने की कोशिश भी।

स्त्री अधिकारों के लिए जितने भी बड़े आंदोलन हुए, वे ऐसी ही साधारण औरतों ने शुरू किए। 1857 में यूएस में समान भत्तों के लिए लड़ा गया फैक्टरी मजदूरिनों का आंदोलन ही आज दुनिया भर में महिला दिवस के तौर पर मनाया जाता है। साल 1975, 1985 और फिर 1995 में लैंगिक समानता की मांग उठाने वाले बड़े महिला सम्मेलनों तक ये नहीं पहुंच पाई होंगी, पर आंदोलन की जमीन इन्हीं के पसीने से सिंचती रही है। 1857 में ही पीठ पर अपना छोटा सा बच्चा बांधकर लड़ने वाली उस रानी ने अपनी शादी में उम्र के फासले के खिलाफ भले ही आवाज बुलंद न की हो, पर अपने बेटे के हक के लिए लड़ने वाली झांसी की रानी ने भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया।

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आज शाहीन बाग की औरतों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि दुनिया भर के मर्दों की हिम्मत जहां घुटने टेकने लगती हैं, वहां औरतें मोर्चा संभालती हैं। खासतौर से जब बात बच्चों के हक की हो तो मां से ज्यादा मजबूत योद्धा और कौन होगा। शाहीन बाग में डटी औरतें वे मांएं हैं जो अपने बच्चों के हक के लिए लड़ रही हैं। आने वाले समय में शाहीन बाग आंदोलनरत स्त्रियों की सबसे मजबूत आवाज के तौर पर याद किया जाएगा।

बहुत साधारण सी दिखने वाली इन औरतों ने शाहीन बाग को ‘रिमार्केबल लाइन’ बना दिया है। इससे गुजरे बिना आप इस समय की बात नहीं कर पाएंगे। शाहीन बाग का इलाका सिर्फ दिल्ली को नोएडा से नहीं जोड़ता बल्कि यह हक और हुकूक को खामोश सहमतियों से जुदा भी करता है। आप इसके हक में हो सकते हैं और खिलाफत भी कर सकते हैं, पर इन औरतों के जज्बे को नजरंदाज नहीं कर सकते। हजारों मुट्ठियां अधिकार की मांग में अपने-अपने दायरों से बाहर निकल आई हैं।

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तनी हुई इन मुट्ठियों को आज मंच पर कोई प्रखर वक्ता संबोधित कर रहा है। पर मदीना की नजर सामने दीवार पर सबसे ऊपर टंगी डॉ. भीमराव आंबेडकर की तस्वीर पर है। मैं पूछती हूं, “ये कौन हैं?” मदीना तुरंत जवाब देती हैं “ये भीमराव आंबेडकर जी हैं, इन्होंने ही तो संविधान लिखा है”। “क्या है संविधान, कभी पढ़ा है?” मेरा अगला सवाल होता है। तीन बच्चों की परवरिश में मसरूफ रहने वाली मदीना जवाब देती हैं, “हमारा देश संविधान पर ही चलता है। उसी पर चलना चाहिए। हमारा संविधान सबको बराबरी का हक देता है, उसी हक के लिए तो हम लड़ रहे हैं”।

मदीना अब खूब जागरूक हो गई हैं। वह कहती हैं, “जब बदायूं से शादी होकर दिल्ली आई थी, कुछ भी पता नहीं था। घर-गृहस्थी का हुनर ही सब कुछ था। आंबेडकर साहब का भी बस नाम ही सुना था। ये नहीं पता था कि वे कौन थे और क्या किया था। जब शाहीन बाग के धरने में आई तो लोग बार-बार इन्हीं का नाम ले रहे थे। संविधान की बात कर रहे थे। किसी से कुछ पूछते मुझे शर्म आती थी। मैंने घर जाकर अपनी बेटी से पूछा। बेटी ने सब बताया। मेरी बेटी मुझे बहुत प्यारी है, मेरे अम्मी-अब्बू भी मुझे बेहद प्यार करते थे। पर शादी करके भूल गए। बेटी से रिश्ता शादी, भात, छोछक का ही रह जाता है, हमारे यहां। मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं करूंगी। हमने पलवल में थोड़ी सी जमीन खरीदी है, उसे बेटी के नाम करूंगी। बेटियों को भी जायदाद में बराबर का हक मिलना चाहिए। मैं इसलिए यहां रोज आती हूं कि आने वाले वक्त में मेरी बेटी को किसी कागज की वजह से शरणार्थी न होना पड़े।”

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मदीना के बिल्कुल बगल में बैठी है नसीबन। बुलंदशहर की रहने वाली है। बुर्के में छिपी औरतों के बीच नसीबन ने सिर्फ दुपट्टा लिया है, वह भी कांधे पर, सिर पर नहीं। इस पर वे कहती हैं मेरी शादी नहीं हुई है न इसलिए मुझे कोई फिक्र नहीं। नसीबन पढ़ी-लिखी नहीं हैं। पांचवीं क्लास ही पास की थी कि दौरे पड़ने लगे। पांचों भाई-बहन पढ़ गए, वह नहीं पढ़ पाईं। अपनी शादी को लेकर भी उन्हें बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। यहां छोटा-मोटा काम करती हैं और भाई-भाभी के साथ रहती हैं। जब सब में अपनी-अपनी नागरिकता साबित करने की भगदड़ मची होगी, तब इस बीमार लड़की की नागरिकता कौन साबित करेगा। दर-बदर होने के नाम पर वह घबरा जाती हैं। इसलिए हर रोज यहां आ बैठती हैं कि अपने हक के लिए खुद ही लड़ना है।

सायरा बानो की सिर्फ आंखें नजर आ रही हैं और हाथों में तस्बीह है। गुस्से भरी आंखों में वह सवाल करती हैं, “ट्रंप की आवभगत तो खूब कर ली, अपनी बहनों से बात करने का वक्त नहीं है इनके पास? तीन तलाक के नाम पर तो उन्हें हमारी बहुत फिक्र थी। हमें तो लग रहा था सच में हमारा कोई सगे वाला भाई आ गया है, जो हमारी सब तकलीफें दूर कर देगा। अब वो भाई कहां है, जिसे हमारे बच्चों का मुस्तकबिल नहीं दिख रहा?” सायरा बानो सवाल करती जाती हैं और तस्बीह फेरती जाती हैं कि अल्लाह ताला हम सबको इस मुसीबत से बचाए।

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आस्मां के गालों पर तिरंगे वाले स्टीकर चिपके हैं। वह खुश हैं इन्हें लगाकर। माथे पर सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरोध वाली पट्टी भी बंधी है। रात के नौ बजते-बजते बिरयानी के पैकेट आ गए हैं। कुछ औरतें उस तरफ दौड़ पड़ी हैं, कुछ अपनी जगह शांति से बैठी हैं कि उनके हक का निवाला कहीं नहीं जाएगा। लंगर और भंडारे वाली परंपरा के इस देश में ‘बिरयानी’ को गाली बना दिया गया है। यूं लगता है कि जैसे बिरयानी नहीं, रिश्वत खा रहे हों।

आस्मां दो पैकेट ले आई हैं- एक अपने लिए और एक मेरे लिए। मैं नहीं खाना चाहती और हाथ जोड़ लेती हूं कि मैं नॉनवेज नहीं खाती। अस्मां उतनी ही मासूमियत से कहती हैं, “चावल-चावल खा लो, बोटी छोड़ देना।” मैं इसका क्या जवाब दूं सिवाए मुस्कुराने के। वह अपने धर्म के हवाले से मुझे राह दिखाती हैं, “आप नहीं खाएंगी तो मेरे लिए भी ये दाने हराम हो जाएंगे। आप कहिए कि मैं नहीं खाऊंगी, बाजी, आप खा लीजिए, तब ही मेरे लिए इसे खाना हलाल होगा।”

मैं फिर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक मोर्चे पर पिछड़ी हुई आधी आबादी की याद दिलाकर शाहीन बाग की दबंग दादी को टटोलना चाहती हूं कि आंदोलन स्त्रियां करती हैं और मंच पर कब्जा पुरुष जमा लेते हैं। घर से लेकर बाहर तक उन्हें कभी क्रेडिट नहीं मिल पाता। वे कहती हैं, “औरत और मर्द की क्या बराबरी? मर्द कभी भरोसे के लायक नहीं होता। ये कलयुग है। मर्दों ने औरतों को हजार तकलीफें दी हैं, पर हम उस सबके बारे में नहीं सोच रहे। जब बात बच्चों के हक की आती है तो मैं न औरत हूं, न मर्द। मैं सबसे पहले बैन-ए-आदम, यानी इंसान हूं। मुझे इंसानियत को बचाने के लिए लड़ना है। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हमें पॉलिटिक्स में नहीं पड़ना है। अगर सरकार ही उल्टे दिमाग से चलेगी तब क्या होगा? आज न सरकार हमारे साथ है, न पुलिस साथ है, हमारा सीएम केजरीवाल भी हमारे साथ नहीं है, सुप्रीम कोर्ट भी तारीख पर तारीख बढ़ाता जा रहा है। तब हम क्या कर सकते हैं सिवाए आवाज बुलंद करने के। यही हमारा आखिरी हथियार है।”

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