मानवाधिकार संरक्षण के लिहाज से 10 दिसंबर के दिन का खास महत्व है। इस दिन को 'अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। इस मौके पर पटना हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति संदीप कुमार की सख्त टिप्पणियों पर गौर करने की जरूरत है। भूमि विवाद के एक मामले में याचिकाकर्ता के घर को बुलडोजर से गिरा दिया गया था और इस मामले में जज ने जिस तरह की टिप्पणियां कीं, उससे साफ हो जाता है कि देश में कानून का राज किस तरह ध्वस्त हो चुका है और कैसे यह ताकतवर लोगों के हाथों का खिलौना बनकर रह गया है।
आम तौर पर सभी लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि जो लोग समाज के सबसे कमजोर वर्ग से आते हैं, उनकी आवाज नहीं सुनी जाती। व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है, यह बात भी सब मानते हैं। लेकिन न्यायमूर्ति संदीप के सख्त रुख से जो मामला सामने आया है, वैसे मामले बताते हैं कि हम इतने गहरे गड्ढे में जा गिरे हैं कि उसमें से बाहर निकलना आसान नहीं।
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न्यायमूर्ति संदीप की टिप्पणियों वाला वीडियो वायरल हो रहा है। इसमें जज अभियोजन पक्ष के वकील को फटकार लगाते हुए कहते हैं, 'आप भू-माफिया के एजेंट बन गए हैं। इसे रोकना होगा... कौन इतना ताकतवर है कि आपने बुलडोजर लेकर उसका घर तोड़ दिया? आप किसका प्रतिनिधित्व करते हैं - राज्य या कोई निजी व्यक्ति?’ 24 नवंबर को अपने लिखित आदेश में, न्यायमूर्ति कुमार ने कहा: जवाबी हलफनामे को पढ़ने से ऐसा लगता है कि सभी अधिकारी भू-माफिया से मिले हुए हैं और उन्होंने याचिकाकर्ता के घर को अवैध रूप से ध्वस्त कर दिया।
अब गुजरात चलिए। पटना हाईकोर्ट के जज की इन टिप्पणियों के लगभग एक हफ्ते बाद गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा- हम पेशेवर दंगाइयों के खिलाफ बुलडोजर के उपयोग से संकोच नहीं करते। योगीराज में चुनिंदा लक्ष्यों के खिलाफ बुल्डोजर प्रशासन का पसंदीदा हथियार बन गया है। "पेशेवर दंगाइयों" के रूप में वर्णित लोगों को "सबक सिखाने" का यह चलन पूर्वाग्रहों और नफरत की राजनीति से भरा हुआ है।
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उत्तर प्रदेश के मामले कितने भी बुरे रहे हों, बिहार में मामला वैसा नहीं। हालांकि बिहार के उदाहरण से पता चलता है कि खराब राजनीतिक नेतृत्व की वजह से किसी एक जगह का कोई वाकया वहीं तक सीमित नहीं रह जाता बल्कि पूरे देश में इस तरह की ताकतों को वैसा ही कुछ करने को प्रेरित करता है। जैसे ही राजनीतिक नेतृत्व इसे मंजूरी देता है, सभी सरकारी अमले बेखौफ इसका इस्तेमाल करने लगते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में अक्सर चेतावनी देता रहा है, लेकिन इसका खास असर नहीं हुआ। यूपी सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि जिन लोगों को सरकार सबक सिखाना चाहती है, उनके घरों को नियत प्रक्रिया को ताक पर रखकर न गिराए। फिर भी, व्यवस्था में यह संदेश तो बना ही हुआ है कि जो भी सरकार की नीतियों का विरोध करता है जिसे राज्य सरकार दंगाई मानती है, उनके खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल किया जा सकता है।
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ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वह प्रक्रिया तय कर दी, जिसके तहत मुंबई में स्लम कॉलोनियों को हटाया जा सकता है। इसके 37 साल बाद हम जहां पहुंचे हैं, वह अफसोसनाक है। 10 जुलाई, 1985 के उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था: फुटपाथ या झुग्गी को खोना नौकरी खोना है। याचिकाकर्ताओं को बेदखल करने से वे आजीविका से वंचित हो जाएंगे और परिणामस्वरूप जीवन से।
जिस तरह राज्य निर्देशित हिंसा और सजा के औजार के तौर पर बुलडोजर को स्वीकार किया जा रहा है, वह अवैध एनकाउंटर की तरह है जो देशभर में आम है। गैंगस्टरों द्वारा की जाने वाली अत्यधिक हिंसा पर काबू के लिए कभी जो सीमित तौर पर शुरू हुआ, जल्द ही व्यापक हो गया। बेशक इसके लिए समय-समय पर किसी-न-किसी पुलिसकर्मी को अदालतों का सामना करना पड़ता हो, इस तरह की हत्याएं हमारी व्यवस्था का हिस्सा बन गई हैं।
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यह और बात है कि इस तरह की हत्याओं से अपराध या गैंगस्टरों के पनपने पर किसी तरह का अंकुश नहीं लग सका है। इसके उलट जैसा मुंबई के उदाहरण से पता चलता है, गैंगस्टर गुट पुलिस बल में ही विभिन्न गुट बनाने में कामयाब हो गए। कोई एक गैंग का सर्मथक, तो कोई किसी और गुट का।
व्यवस्था में जो नुकसान होता है, उसका बहुत हिस्सा अनदेखा और अनसुना रहता है। तमाम वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं जो इस तरह के चलन से सहमत नहीं हैं। ऐसे लोग हैं जो अब भी नियम पुस्तिका के अनुसार, पेशेवर जांच में गर्व महसूस करते हैं। हालांकि, वे चुप रहते हैं और मौन रहकर भ्रष्ट व्यवस्था को चलने देते हैं। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह की प्रथा एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में 'आइडिया ऑफ इंडिया' को बुलडोजर से कुचल देती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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