विचार

अंतिम संस्कार के लिए अभिनव प्रयोग जरूरी, भला कौन चाहेगा धुएं के गुबार में फना हो जाना!

शवों को चाहे जलाएं या दफनाएं, पर्यावरण दूषित होता ही है। धरती की सहन शक्ति चुकने लगी है और इसलिए अंतिम संस्कार के लिए अभिनव प्रयोग जरूरी हैं।

फोटो: सोशल माीडिया
फोटो: सोशल माीडिया 

बाइबल में शरीर की क्षणभंगुरता से जुड़ी तमाम आयतें हैं जो बताती हैं कि यह शरीर मिट्टी है और आखिरकार मिट्टी में ही मिल जाएगा। बाइबल के इस तरह के सांत्वना वाले बोल पीढ़ियों से लोगों को अपनों को खोने की तकलीफ से उबरने में मददगार होते रहे हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक उबाल के इस दौर में इनसे मन को सुकून मिलने से रहा। वजह यह है कि यह स्पष्ट हो गया है कि ग्रह के विनाश में हमारा योगदान हमारे जीवन काल में ही नहीं होता बल्कि मौत के बाद भी इस धरती को उबालने में हमारा योगदान जारी रहता है।

मृत्यु के बाद हम शवों का या तो अग्नि संस्कार करते हैं या उन्हें दफनाते हैं। लेकिन हमारी बढ़ती आबादी और इसके कारण बढ़ गई मृतकों की संख्या का बोझ उठाने में पृथ्वी हांफने लगी है। 2022 में दुनियाभर में 6.7 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई। यह मानते हुए कि उनमें से आधे को दफनाया गया होगा और प्रत्येक शव को कब्र के लिए 54 घन फुट जमीन की जरूरत होती है, इसका मतलब है कि हमें उनके निपटान के लिए 3,618,000,000 घन फुट जमीन की जरूरत हुई। अगर वर्ग फुट में बात करें तो 1.20 अरब वर्ग फुट या 112 वर्ग किलोमीटर जो दिल्ली के क्षेत्रफल का दसवां हिस्सा या नोएडा के आधे क्षेत्रफल के बराबर है। 

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मरने वालों की तादाद साल-दर-साल बढ़ रही है। लेकिन ग्रह के पास इतनी जगह नहीं, खासकर इसके शहरी इलाकों में। हकीकत तो यह है कि हमारे पास जीवित लोगों के लिए तो जगह है नहीं, मृतकों की बात ही क्या करें?

न्यूयॉर्क शहर ने 1981 से ही मैनहट्टन की 86वीं स्ट्रीट के दक्षिण में लोगों को दफनाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। जगह की कमी के कारण जापानी अपने मृतकों को कैबिनेट के खानों में दफनाते हैं। भारत में ईसाइयों और मुसलमानों द्वारा अधिक कब्रिस्तानों की लगातार मांग सांप्रदायिक तनाव की एक वजह बन गई है। कब्रों में दफनाने के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी होते हैं। इसमें लकड़ी, स्टील, कंक्रीट के अलावा लेप बनाने वाले तरल पदार्थ की जरूरत होती है जो खराब नहीं होता है और मिट्टी में घुल जाता है। इसका खामियाजा भूजल स्रोतों को उठाना पड़ता है। ‘पैसिफिक स्टैंडर्ड’ पत्रिका के एक अध्ययन से पता चलता है कि शवों को दफनाने के लिए अकेले अमेरिकी हर साल 73,000 किलोमीटर लकड़ी का हार्ड बोर्ड, 58,000 मीट्रिक टन स्टील और 31 लाख लीटर फॉर्मेल्डिहाइड खरीदते हैं।

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‘सिटीजन’ (31.5.2021) में अभय जैन और संदीप पांडे के ‘ग्रीन लास्ट राइट्स’ शीर्षक से लिखे शोध आधारित लेख के मुताबिक, अगर आपके मन में शवों को दफनाए जाने को लेकर इस तरह के विचार आए हैं, तो जान लें, पर्यावरण की दृष्टि से दाह संस्कार भी कोई अच्छा विकल्प नहीं। लेखक हमें बताते हैं कि भारत में दाह संस्कार में हर साल 6 करोड़ पेड़ नष्ट हो जाते हैं, 50 लाख टन राख पैदा होती है जो नदियों में बह जाती है, 80 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में फैल जाती है। 2016 में कानपुर आईआईटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि दिल्ली के कार्बन मोनोऑक्साइड उत्सर्जन में अकेले दाह संस्कार का योगदान 4% है। इलेक्ट्रिक/सीएनजी शवदाह गृह केवल मामूली रूप से बेहतर हैं क्योंकि इसमें सिर्फ इतना होता है कि प्रदूषण मोटे तौर पर उस जगह विशेष तक सीमित रह जाता है। जो भी हो, लागत और धार्मिक भावनाओं के कारण बिजली या सीएनजी से शवदाह को व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल सकी है। 

लेकिन पूरी दुनिया में इसे एक बड़ी समस्या के तौर पर माना जा रहा है और वैकल्पिक शव निपटान विधियों को अपनाया जाने लगा है। उनमें से कई तो कुछ समुदायों/धर्मों की प्रथाओं पर ही आधारित हैं। उदाहरण के लिए, पारसियों के पास अपने ‘टावर्स ऑफ साइलेंस’ थे जहां शवों को गिद्धों के खाए जाने के लिए रखा जाता था। तिब्बतियों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। लिंगायत, शिव भक्त, अपने मृतकों को प्राकृतिक कब्रों में बैठाकर ध्यान मुद्रा में दफनाते हैं। बाबा आम्टे द्वारा स्थापित आनंदवन में सभी शवों को साधारण कब्रों में दफनाया जाता है और उसके ऊपर एक पौधा लगा दिया जाता है। एक अवधारणा जो अब जोर पकड़ रही है, वह है ‘प्राकृतिक अंत्येष्टि’ जिसमें लकड़ी, कंक्रीट, स्टील या रसायनों का उपयोग नहीं किया जाता है। शव को लपेटने के लिए केवल एक कफन या बॉडी बैग होता है जिसे प्राकृतिक जंगल में बिना किसी झंझट या जटिल, महंगे रीति रिवाजों के दफन कर दिया जाता है। 

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इन क्षेत्रों को ‘संरक्षण कब्रिस्तान’ के रूप में जाना जाता है। ये सार्वजनिक या निजी स्वामित्व में हो सकते हैं और शून्य प्रदूषण और जंगल या हरे-भरे क्षेत्रों के संरक्षण के दोहरे उद्देश्यों को पूरा करते हैं। इसका एक उदाहरण अमेरिका के फ्लोरिडा में ग्लेनडेल मेमोरियल नेचर प्रिजर्व है। यह निजी भूमि है, 142 हेक्टेयर वन भूमि जिनमें से 28 हेक्टेयर प्राकृतिक अंत्येष्टि के लिए अलग रखी गई है। इससे होने वाली आय का उपयोग शेष 114 हेक्टेयर भूमि के वनीकरण/संरक्षण के लिए किया जाता है, अन्यथा यह भूमि रियल एस्टेट डेवलपर्स को बेच दी जाती। अमेरिका में कई राज्यों ने ऐसे कानून पारित किए हैं जो संरक्षण कब्रिस्तानों की स्थापना की अनुमति देते हैं और यह विचार वहां जोर पकड़ रहा है।

मार्च, 2023 के द इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित लेख के मुताबिक, शवों को निपटाने का एक और अभिनव कदम मानव खाद बनाना है जिसे सिएटल में ‘रिकंपोज’ नामक संस्था द्वारा शुरू किया गया है। इस तकनीक के तहत शरीर को लकड़ी के छिलकों, पुआल और अन्य वनस्पति पदार्थ के मिश्रण के साथ एक बर्तन में रखा जाता है। बंद बर्तन के भीतर रासायनिक प्रतिक्रिया से ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन और नमी का मिश्रण बनता है जो शरीर को विघटित कर देता है। लगभग 12 सप्ताह के बाद जो कुछ बचता है, वह मिट्टी का एक ढेर होता है जिसे वापस परिजनों को सौंप दिया जाता है और वे दिवंगत की याद में पौधा लगाने के लिए अपने बगीचे में इसका उपयोग कर सकते हैं। अब तक कम-से-कम छह राज्यों ने कानूनी रूप से मानव खाद बनाने की अनुमति दी है। रिकंपोज का कहना है कि इसकी प्रतीक्षा सूची हजारों में है!

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इस तरह के स्थायी समाधानों का, जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, बड़े व्यवसायों द्वारा पुरजोर विरोध किया जा रहा है। अकेले अमेरिका में अंतिम संस्कार व्यवसाय का सालाना आकार 19 अरब डॉलर का होने का अनुमान है। भारत में ‘मृत्यु देखभाल उद्योग’ का आकार 3.5 अरब डॉलर बताया गया है जो 2008 में महज एक अरब डॉलर था। वैसे, वास्तविक आकार इससे कहीं बड़ा होगा क्योंकि भारत में इस काम का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में होता है। इस क्षेत्र में मोटा पैसा तो शामिल है ही, साथ ही धार्मिक संरक्षण और एकाधिकार भी है। 

भारत में अंतिम संस्कार व्यवसाय बहुत सारी लालफीताशाही, स्थानीय कानूनों, तमाम तरह के प्रमाणीकरण और धर्म और उसके संस्कारों और रीति-रिवाजों के समर्थकों की पकड़ में उलझा हुआ है। लेकिन कॉप-28 के वर्ष में सरकारों को स्थायी अंतिम संस्कार विधियों के इस मुद्दे पर ध्यान देना शुरू करना होगा। सरकारों को इसके लिए दुर्लभ सार्वजनिक संसाधन खर्च करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि निजी क्षेत्र और गैरसरकारी संगठनों को इस क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति देनी चाहिए। एक नवाचार यह हो सकता है कि इसे सीएसआर (कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व) नियमों के तहत एक वैध गतिविधि के रूप में मान्यता दी जाए। उदाहरण के लिए, कॉरपोरेट्स को संरक्षण कब्रिस्तानों के लिए भूमि खरीदने की अनुमति दें, या मानव खाद बनाने के लिए गैरसरकारी संगठनों को फंड देने की अनुमति दें।

लोगों को, या कम-से-कम उन लोगों को जो प्राकृतिक पर्यावरण की परवाह करते हैं, यह तय करने का विकल्प दें कि वे इस दुनिया को कैसे छोड़ना चाहते हैं। मैक्स ब्रांड और जेन ग्रे के वाइल्ड वेस्ट उपन्यासों में इस्तेमाल हुए इस वाक्यांश की तरह कि कौन कमबख्त धुएं के गुबार में फना होना चाहेगा? उससे तो बेहतर यही होगा कि आप किसी और शक्ल में रहें। हममें से कई अपने अंतिम समय में यही चाहेगा कि वह किसी-न-किसी रूप में रहे ताकि किसी दिन हमें भी कोई खूबसूरत लड़की खेत से उठाकर ले जाए! बेशक, कोई मशरूम भी बन सकता है लेकिन फिर आप कुछ पाते हैं, तो कुछ खो देते हैं।

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अभय शुक्ला रियाटर्ड आईएएस अधिकारी हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com पर उनके लेख का संपादित रूप है।

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