भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल ने हाल ही में अमेरिकी एनएसए से बात की। खबरें सुर्खियां बनीं। उसी दिन अमेरिका ने भारतीय नौसेना के जहाजों के साथ अंडमान और निकोबार तट के पास अपने परमाणु-संचालित विमान वाहक निमित्ज की तस्वीरें जारी कीं। यह साफ तौर पर चीन को संदेश था। लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि मोदी सरकार जो भी कर रही है, वह कितना भारत के हित में है।
विश्लेषकों का मानना है कि भारत का चीन के साथ व्यवहार का तरीका गलत साबित हुआ है। इनके मुताबिक भारत को अर्थव्यवस्था की सिकुड़न पर ध्यान देना चाहिए, न कि दक्षिण चीन सागर में गलतफहमी पैदा करने पर। अमेरिका एक ढलती हुई ताकत है और हाल के वर्षों में इराक, अफगानिस्तान और सीरिया में उसे उलटफेर का सामना करना पड़ा है और उसमें सैन्य झड़प में उलझने की भूख तो नहीं ही होगी, लेकिन वह भारत को अपना सैन्य हार्डवयेर जरूर बेचना चाहेगा।
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उधर चीन और ईरान सहयोग संधि पर बातचीत कर रहे हैं और इसी क्षेत्र में वह ईरान के प्रतिद्वंद्वी सऊदी अरब से भी सौदेबाजी कर रहा है। ऐसा लगता है कि भारत की तुलना में चीन अपने कार्ड बहुत बेहतर खेल रहा है। भारत की विदेश नीति कभी भी इतनी अस्त-व्यस्त नहीं रही। पूर्व सैनिकों द्वारा छाती फुलाने से भारतीय सेना की कमजोरियां छिप नहीं जाएंगी।
अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ भेदभाव और दमनात्मक कार्रवाई से देश आंतरिक रूप से भी कमजोर हुआ है। विश्वविद्यालयों को युद्ध के मैदान में बदल दिया गया है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व में सामान्य स्थिति का कोई संकेत नहीं है और पड़ोस पहले से कहीं अधिक शत्रुतापूर्ण है।
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75 साल के डोभाल निस्संदेह देश के दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं। रक्षा या विदेशी मामलों में उनके बॉस प्रधानमंत्री मोदी की अनुभवहीनता ने डोभाल का कद कुछ ज्यादा ही बड़ा बना दिया है। आईके गुजराल, पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री के रूप में काम किया था। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी अनुभवी थे और तमाम विश्व नेताओं से ऐसे रिश्ते थे कि वे उन्हें सीधे नाम से बुलाते थे। लेकिन नरेंद्र मोदी के पास प्रधानमंत्री बनने से पहले ऐसा कोई अनुभव नहीं था।
बहरहाल, डोभाल पिछले साल से कैबिनेट रैंक का आनंद उठा रहे हैं। प्रधानमंत्री के अलावा एनएसए किसी के भी प्रति जवाबदेह नहीं है। वहीं, प्रधानमंत्री मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति की तर्ज पर काम करते हैं और उनके पास कोई पोर्टफोलियो नहीं है। इस कारण न तो प्रधानमंत्री और न ही एनएसए आधिकारिक तौर पर किसी भी बात के लिए जवाबदेह हैं।
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राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आंतरिक शांति और स्थिरता जरूरी है। लेकिन सरकार ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सदिंग्ध और दोयम दर्जे का नागरिक मानते हुए उनमें बेचैनी भर दी है। असम में एनआरसी को लेकर असमंजस की स्थिति, बांग्लादेश सीमा से घसुपैठ को अनावश्यक तूल देने, संशोधित नागरिकता कानून जैसे कदमों ने मुसलमानों का मनोबल तोड़ दिया है। जंगलों की कटाई और खनन के लापरवाह आदेशों से दलित और आदिवासी बेचैन हैं।
डोभाल की रणनीति चीन की काट के लिए पाकिस्तान को उसकी जगह दिखाने की रही है। इसी के तहत 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक, 2019 में बालाकोट पर एयर स्ट्राइक, पाकिस्तान के साथ राजनयिक रिश्तों को कमतर करने के साथ पाकिस्तान से बातचीत नहीं करने का फैसला हुआ। घोषणा की गई कि पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगिट बालतिस्तान वापस लेंगे।
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लेकिन क्या अस्थिर पाकिस्तान भारत के हित में है? साथ ही, भारत का अक्साई चिन पर कब्जे का इरादा जताकर यह स्पष्ट संकेत करना क्या उसके हित में था कि वह दो मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार है? क्या चीन की बीआरआई परियोजना को अस्वीकार कर भारत ने ठीक किया? चीन पर दबाव बनाने के लिए भारत ने अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड समूह बनाया और जिस तरह चीन और अमेरिका की ताकत का अंतर कम होता जा रहा है, क्या भारत का इस लड़ाई में पड़ना जरूरी था? जिस तरह से चीन ने हमारी जमीन पर कब्जा कर लिया है, क्या उससे भविष्य में दोनों देशों में सीमा विवाद पर होने वाली बातचीत में तोलमोल की हमारी क्षमता प्रभावित नहीं होगी? क्या राजनीतिक उद्देश्य रणनीतिक और व्यावसायिक हितों पर भारी पड़ सकते हैं?
इस तरह के जरूरी सवाल आज फिजा में तैर रहे हैं और जाहिर सी बात है, यह जवाबदेही तो उन्हीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एनएसए अजित डोभाल की बनती है जिनपर वस्तुतः किसी बात की कोई जवाबदेही नहीं है।
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