कुछ लोग अक्सर गांधीजी पर बुर्जुवा वर्ग या पूंजीपतियों के प्रतिनिधि होने का आरोप लगाते हैं। ऐसे लोगों की दलील होती है कि अगर यह मान भी लें कि गांधीजी उनके इशारे पर काम नहीं करते थे तो वह उनकी तरफ से काम करते थे और इस क्रम में वह पहले जनता को उत्तेजित करते और फिर उन्हें नियंत्रित कर लेते ताकि वे पूंजीपतियों या बुर्जुवा वर्ग के हितों में हस्तक्षेप न कर सकें। कभी लोकप्रिय रही ‘सबाल्टर्न’ विचारधारा ने तो गांधीजी को आम लोगों के दायरे से बाहर कर उन्हें कुलीन वर्ग में आधिकारिक तौर पर शुमार भी कर दिया था।
यह सब उस गांधी के बारे में है जिन्हें लेनिन भी ‘क्रांतिकारी’ मानते थे क्योंकि उन्होंने भारत के आम लोगों को साम्राज्यवाद के खिलाफ राजनीतिक रूप से सक्रिय कर दिया था। उस व्यक्ति ने गरीबों और सामाजिक तौर पर दबे-कुचले समुदाय की चिंता करने के लिए आम लोगों को जिस तरह प्रेरित किया, वैसा किसी और ने नहीं किया। वह ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ वर्ग, जाति, लिंग, भाषा या धर्म के बंधनों को तोड़कर आकार लेने वाले लोकप्रिय बहुवर्गीय आंदोलन के लोकप्रिय नेता थे।
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गांधी के नेतृत्व में दुनिया में बेमिसाल एक ऐसा जनांदोलन हुआ जिसमें सामाजिक और धार्मिक सुधारकों, कवियों, लेखकों, संगीतकारों, दार्शनिकों, व्यापारियों, उद्योगपतियों, राजनीतिक विचारकों और नेताओं से लेकर आम कार्यकर्ता और किसान तक एक साथ थे। किसी भी बहुवर्गीय आंदोलन में ‘वर्ग समायोजन’ अनिवार्य होता है ताकि आंदोलन के विभिन्न घटकों के बीच एक-दूसरे के प्रति संघर्ष न छिड़ जाए और गांधी ने यह सब करते हुए सुनिश्चित किया कि आंदोलन गरीबों और दमित लोगों के पक्ष में रहे।
इसके बाद भी यह दलील दी जाती रही कि भारतीय व्यवसायियों ने अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों के लिए पैसे की मदद देकर गांधीजी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इस्तेमाल किया, जिसका अंग्रेज वायसराय लिनलिथगो “गांधीयन मनीबैग्स” में जिक्र भी करते हैं। आम तौर पर बिड़ला हाउस में गांधीजी के रहने को भी व्यवसायियों से उनकी नजदीकी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन ऐसा करते हुए इस बात का उल्लेख नहीं किया जाता कि गांधीजी दलित बस्तियों और आश्रमों में लंबे समय तक रहे जहां उन्होंने शौचालय तक साफ किए।
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यह कहा जाता रहा है कि “गांधीजी के राजनीतिक रुख में बदलाव लाने में व्यवसायियों के दबाव ने अहम भूमिका निभाई” जिसके कारण उन्होंने अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया और 1931 में गांधी-इरविन समझौता हुआ। इसके पक्ष में साक्ष्य स्वरूप एक व्यापारी नेता की ओर से गांधीजी को भेजे गए टेलीग्राम और उन पर दबाव डालने के लिए व्यवसायियों की उनसे मुलाकात की खबरों का जिक्र किया जाता है। इस तरह की दलीलें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और इसके अग्रणी नेताओं के आंदोलन को समर्थन दे रहे किसी भी वर्ग, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, के दवाब से मुक्त होने की बात को खारिज करती हैं।
हालांकि, हर वर्ग या समूह का समर्थन मांगते हुए गांधीजी स्वयं भी यह अच्छी तरह समझते थे कि एक बहुवर्गीय सामाजिक आंदोलन को इन वर्ग-जाति आधारित आग्रहों से मुक्त रखने में एक नाजुक संतुलन सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है। 1918 में भारत में अपनी राजनीतिक गतिविधियों के आरंभिक दौर में ही गांधीजी ने स्पष्ट कर दिया था कि सत्याग्रह के लिए पैसा कदापि महत्वपूर्ण नहीं। 1920 के दशक में असहयोग आंदोलन के दौरान व्यापारियों और मिल मालिकों से सहयोग की अपील करते हुए गांधीजी ने साफ किया था:
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“वे ऐसा करें या नहीं, स्वतंत्रता की ओर देश के बढ़ते कदम को किसी कारपोरेशन या लोगों के समूहों पर आश्रित नहीं बनाया जा सकता। यह तो जन प्रस्फुटन है। जनता तेजी से स्वतंत्रता की ओर बढ़ रही है और उसे संगठित पूंजी का सहयोग मिले या नहीं, उसे बढ़ते ही रहना चाहिए। यह आंदोलन पूंजी से मुक्त तो होना चाहिए, लेकिन इसके खिलाफ नहीं। लेकिन, अगर पूंजी जनता की सहायता के लिए आती है, तो इसका श्रेय जरूर पूंजीपतियों को जाएगा और खुशहाल दिन जल्दी आएंगे।” इस तरह, गांधीजी ने अपनी सहज भाषा में किसी आंदोलन के किसी एक वर्ग के प्रभाव से मुक्त रहने का सिद्धांत दिया।
यह दलील देना इतिहास की दृष्टि से गलत होगा कि अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू करने, उसे स्थगित करने या उसे वापस लेने के गांधीजी के फैसले पूंजीपतियों के दबाव में लिए गए। वास्तविकता तो यह है कि ज्यादातर अवसरों पर उन्होंने तब भी कोई आंदोलन शुरू किया जब व्यापारी वर्ग इसके विरोध में तर्क दे रहे थे, अभियान चला रहे थे। उदाहरण के लिए, 1920-22, 1930, 1932 और 1942 के आंदोलन। आंदोलन को स्थगित करने या वापस लेने के फैसले स्वतंत्रता संग्राम के दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए किए गए, न कि ये किसी टेलीग्राम या पूंजीपतियों के संदेशों से प्रभावित थे।
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दिलचस्प तथ्य है कि उन पर पड़ रहे दबाव और फरवरी 1931 के मध्य में गांधी-इरविन समझौते पर इसके असर को लेकर गांधीजी ने प्रतिक्रिया देना उचित समझा। मुंबई में मार्च 1931 के मध्य में एक सभा में उन्होंने कहाः “आप आश्वस्त हों, जब किसी भी कीमत पर शांति बनाने के लिए मेरे पास ढेरों टेलीग्राम आ रहे थे, तब भी मैं उनसे बिल्कुल अप्रभावित था। मैं इस तरह की चीजों का आदी हूं और पूरी तरह दृढ़ था कि मेरी अंतरात्मा जो भी निर्णय करने को कहे, उसपर इनमें से किसी भी टेलीग्राम का कोई प्रभाव नहीं पड़ने दूंगा।”
गौरतलब है कि अंग्रेज अधिकारी भी शुरू में मान रहे थे कि बड़े व्यापारियों और राष्ट्रीय आंदोलन में गहरे रिश्ते हैं, लेकिन वायसराय लिनलिथगो के निर्देश पर ब्रिटिश इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की विस्तृत जांच में उसके उलट निष्कर्ष निकला। वायसराय के इस प्रश्न कि “अगर गांधी को मिल रहा दान बंद हो जाए तो क्या कांग्रेस लंबे समय तक अपना अस्तित्व बचा सकती है” के जबाव में आईबी ने अपनी रिपोर्ट में लिखाः “कांग्रेस की सामान्य गतिविधियों तथा चुनावों, दोनों के लिए गांधी को मिलने वाला दान गांधीवादी अंधविश्वास (राष्ट्रवादी विचारधारा) की तुलना में बहुत कम महत्वपूर्ण है...”।
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भारत छोड़ोआंदोलन के दौरान पूरे देश में जांच-पड़ताल के बाद आईबी की विस्तृत रिपोर्ट का निष्कर्ष थाः “जहां तक बड़े उद्योगपतियों और कांग्रेस के संबंधों की बात है, उपलब्ध साक्ष्य इस धारणा को सही नहीं ठहराते कि बड़े उद्योगपति अपने हितों को पूरा करने में गुप्त रूप से कांग्रेस का साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं या कांग्रेस बड़े व्यवसाय का। बल्कि दोनों बिना किसी दुविधा के परस्पर साझेदारी में काम कर रहे हैं।”
आईबी ने इससे भी आगे बढ़ते हुए एक दूरदर्शी तुलना करते हुए (जो आज काफी प्रासंगिक है, जैसा हम आगे देखेंगे) कहाः “कांग्रेस आंदोलन को बड़े भारतीय व्यवसायियों द्वारा दिए गए समर्थन की तुलना रूसी क्रांति से पहले मेन्शेविकों को रूस के बड़े व्यवसायियों और जर्मनी के बड़े व्यवसायियों द्वारा नाजियों को दी गई मदद से की जा सकती है…। दोनों उदाहरणों में, बड़े व्यवसायी उस सरकार पर हावी होने में विफल रहे, जिसे बनाने में उन्होंने मदद की थी। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भारतीय बड़े व्यवसायी भी अपनी किसी महत्वाकांक्षा को पूरा करने में सफल हो सकेंगे।”
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उल्लेखनीय है कि भारतीय व्यापार जगत के अगुवा कभी इस भ्रम में नहीं थे कि गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस उनकी पार्टी थी या यहां तक कि उनके प्रभाव के प्रति संवेदनशील भी थी। इसके विपरीत, वे एक लोकप्रिय आंदोलन की अगुवाई करने वाले एक खुले संगठन के रूप में कांग्रेस की सही समझ रखते थे। इंडियन मर्चेंट्स चैंबर के सचिव जेके मेहता के शब्दों में, "इसमें सभी राजनीतिक विचारों और आर्थिक दृष्टिकोणों के लिए जगह थी", और इसलिए वह वाम या दक्षिण, किसी भी दिशा में जाने के लिए खुली थी। वे यह तो नहीं ही मानते थे कि वे गांधी या कांग्रेस को नियंत्रित कर रहे हैं, बल्कि वे वाम की ओर कांग्रेस के लगातार बढ़ते रुझान, खास तौर पर 1920 के उत्तरार्द्ध से, को अच्छी तरह समझते हुए आने वाले समय के साथ व्यवसायी वर्ग कैसे तालमेल बैठाए, इसकी रूपरेखा बनाने में व्यस्त थे। यह तो अपेक्षाकृत हाल के समय की बात है जब भारतीय उद्योग जगत ने अपने इतिहास बोध के साथ-साथ व्यवसाय तथा राजनीति के बारीक रिश्तों को सही तरह से समझने की अपनी क्षमता खो दी।
भारतीय उद्योग आज भ्रम में हैं कि हाल के वर्षों में जिन सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों को उन्होंने बढ़ावा दिया, उसे वह नियंत्रित कर लेगा। यह नहीं समझ सका कि ये ताकतें उनके साथ-साथ भारत की उस अवधारणा का भी विनाश कर सकती हैं जो स्वतंत्रता के बाद से अस्तित्व में रही। लगता है, जर्मनी और उनके अपने इतिहास के पाठों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
(लेखक प्रो. आदित्य मुखर्जी जेएनयू में समकालीन इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं)
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