नब्बे के दशक में पहली बार संयुक्त राष्ट्र ने 9 अगस्त को 'विश्व आदिवासी दिवस' के रुप में मनाना तय किया। गत वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने यह ऐलान किया कि आदिवासी समुदाय के साथ हमारे संबंधों का सामाजिक अनुबंध मुकर्रर होना चाहिए। वैसे किसी भी संबंध का आधार मानवीय मूल्य ही होते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या पूरी दुनिया मे आदिवासी समुदायों के मानवीय मूल्यों का संवर्धन हो सका है?
भारत मे अफ्रीका के बाद सर्वाधिक संख्या में आदिवासी समुदाय हैं। पिछले दशक मे हुए पुख्ता वैज्ञानिक अनुसंधान ने यह साफ कर दिया है कि पूरी दुनिया 'सैपियन्स' की संतान है। अफ्रीका को छोड़कर यूरोप, एशिया की वर्तमान आबादी में एक अन्य मानव प्रजाति 'नियंडरथाल्स' के भी अंश हैं। अफ्रीका से हजारों हजार बरस पहले निकले मानव समूहों ने ही दुनिया के हर कोने को विभिन्न पड़ावों से गुजरते विचरते हुए सहस्रों बरस में आबाद किया।
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भारत की संपूर्ण आबादी का आनुवांशिक अध्ययन यह बताता है कि सभी भारतीयों में पहले पहल अफ्रीका से आए मानव समूह का 50-65 % अंश है। मध्य एशियाई घास के मैदानों से आए मानव समूह, उनके पूर्व ईरान से आए कृषक मानव समूह और दक्षिण पूर्व से आए मानव समूह; हजारों साल पहले अफ्रीका से आए मानव समूहों के साथ रच बस गए। भारत में ऐसा कोई समूह नहीं जिनमें पहले पहल अफ्रीका से आए मानव समूह का कोई भी अंश न हो। हम सब अलग-अलग समय मे आए इन्हीं मानव समूहों की संतानें हैं। वर्ण 'संकर' पर बवाल मचाते कट्टरपंथियों को यह नागवार गुजरेगा कि दरअसल हम सभी 'संकर' हैं।
यहां कोई खास नहीं, कोई निम्न नहीं, आनुवांशिक तौर पर सब एक से हैं। अलबत्ता किसी समुदाय के पुरुष वर्ग मे मध्य एशियाई अंश अधिक होगा, किसी मे ईरानी कृषक समूह का आनुवांशिक प्रभाव अधिक होगा। फिर उन समूहों ने भी आपस मे रिश्ता कायम किया है, तो 'संकर’ सब हैं। रिश्तों मे "शुद्धता" का पैमाना बाद में 'नियंत्रणवादियों' ने स्थापित किया और वर्ण व्यवस्था का वही आधार बना।
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खैर, आदिवासी समुदाय भी आनुवांशिक तौर पर किसी से भिन्न नहीं। अंडमान के 'ओंगे' आदिवासी भी पहले पहल आए मानव समूह से उतने ही दूर और पास हैं, जितने की हम सब।
आदिवासी जीवनशैली विशिष्ट है। किसी भी तहजीब की नींव में उनकी अपनी भाषा, बोली होती है। भाषा समुदाय को जोड़ती है, लोक कथाएं बुनती है। तहजीबी तौर-तरीकों को संवारती है। आखिर बात करने की क्षमता, किस्सागोई का हुनर ही तो हमें पशु जगत से अलग करता है। किसी भी तहजीब को, यही किस्से परवान चढाते हैं। तहजीब की इमारत, भाषा, आसपास की प्रकृति, नैसर्गिक पर्यावास के स्तंभ पर ही खड़ी रहती है। यह तहजीब हर मानव समुदाय को खास बनाती है, उनकी 'मानवीयता' की प्रवाहमान धारा को तन्वंगी नहीं होने देती।
आज आदिवासी समुदाय की विशिष्ट खुबसूरत तहजीबी 'मानवीयता' उनसे छीनी जा रही है। भारत में उनकी आबादी करीबन 8 प्रतिशत है। लेकिन कुल मानव विस्थापन का 55 प्रतिशत आदिवासी समुदाय की झोली मे आता है। यानि उनके नैसर्गिक पर्यावास से उन्हें जबरदस्ती धकेला, खदेड़ा जा रहा है। नैसर्गिक पर्यावास के छूटते ही उनकी स्थिति देश के भीतर ही शरणार्थियों सी होती जा रही है।
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भौगोलिक क्षेत्र, ’’मानवीयता’’ की अनिवार्य शर्त है। भूगोल विहिन होते ही ’’सामुदायिकता’’ का नाश होता है। वो रीति-रिवाज, परंपराएं जो हजारों साल से चली आ रही थीं, सहसा गुम होने लगती हैं। विस्थापित होने पर अगली पीढी तक भी तहजीबी मूल्यों का हस्तांतरण संभव नहीं हो पाता। पुर्नवासित स्थान की विराटता, विशिष्टता को लील जाती है। भाषा, बोली खो जाती है।
पन्द्रहवीं सदी से लेकर आधुनिक काल तक अधिनायकवादी मुल्कों ने वाणिज्यीक लाभ के लिए दोहन, शोषण, लूट को अपना औजार बनाया। अपने तहजीबी चश्मे से आदिवासी जीवन शैली का मूल्यांकन किया और आदिवासी समुदायों को शिष्ट बनाने की हिंसक कोशिशें हुई। तहजीबी जबरदस्ती का दौर अब भी भारत मे बदस्तूर जारी है।
हाल ही में राजस्थान में मीणा समुदाय ने हिंदुत्ववादी संगठनों पर जनजातिय आस्था स्थल के 'हिन्दूकरण' का आरोप लगाया। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से प्रभुत्व संपन्न वर्ग की रिवायतों का थोपा जाना कुछ नया नहीं है। दूसरी तरफ तहजीबी जोर आजमाईश का झूठा आरोप लगाकर कुछ संगठनों पर तोहमत लगाई जाती है।
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बुनियादी सत्य यह है कि भूगोलविहीन किये जा चुके नैसर्गिक पर्यावास से बेदखल समुदायों पर की जाती तहजीबी जबदरस्ती अदृश्य रहती है। विवश होकर नए माहौल में खुद को ढालने का दबाव, तहजीबी जोर आजमाईश का परोक्ष वीभत्स तरीका है। भूगोल विहीन समूह, भाषा, रीति-रिवाज, लोक कला सबसे महरुम होकर प्रभुत्व संपन्न वर्ग का ’’काॅपी पेस्ट’’ बनकर रह जाता है। यह ’’एक देश, एक संस्कृति’’ वालों को तो बहुत भाता होगा। मगर विभिन्न तहजीबी छटाओं का बेरंग होना कोई शुभंकर बात नहीं।
भूगोल विहीनता 'अमानवीयता' में परिणीत होती है। भूगोल विहीनता पैर तले की जमीन छीन लेती है। तब किसी तरह का भी राजनीतिक/आर्थिक हक नहीं बचता। आज आदिवासी वर्ग के पास थोड़े बहुत भी जो राजनीतिक/आर्थिक हक हैं, वो जमीन और जंगल से जुड़े हैं। वे यदि जमीन से तितर-बितर किये जाते रहे, तो संविधान में दर्ज पांचवीं अनुसूची बेमतलब हो जाएगी। जमीन अधिग्रहण में सहमति का हक, वनाधिकार कानून, लघुवनोपज पर अधिकार, अनुसूचित क्षेत्रों मे पंचायतों के विस्तार और परंपरागत सामुदायिक ग्राम सभा का हक पोला हो जाएगा।
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आधुनिक दौर में आधारभूत संरचना और भौतिक ढांचों के निर्माण को ही विकास का पर्याय मान लिया गया है। स्मार्ट सिटी, मेट्रो उसी की देन है। इस विकास का 'सामाजिक मूल्य' गरीबों और खासकर आदिवासी समुदाय को सबसे ज्यादा चुकाना पड़ रहा है। खनिज उत्खनन, ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का प्रबंधन, बांधों का निर्माण, सिक्स लेन का निर्माण गरीबों, विशेषकर आदिवासी समुदाय के 'अमानवीयकरण' (डीह्यूमैनाइजेशन) का कारण बन बैठे हैं। इस विकास का लाभ उन तक कभी नही पंहुचता।
चुनावी अर्थतंत्र की कमान वन माफिया, खनन माफिया, भू-माफियों के हाथ में होने से यह सब और जटिल होता जा रहा है। ऐसे में आगे की राह क्या होगी? सत्ता का हस्तांतरण, ग्राम सभाओं की मजबूती ही एकमात्र विकल्प है। ताकि एक वैकल्पिक 'मानवीय विकास' की इबारत रची जा सके।
गढचिरौली के मेंढा लेखा गांव ने दशकों पहले 'गांव में हम सरकार' नारा बुलंद किया। वन प्रबंधन को अपने हाथों में लिया। वैसे संविधान की अनुसूची 11 और 12 में प्रदत्त 29 और 18 विषयों का संपूर्ण हस्तांतरण आगे की राह है। बशर्ते है कि हस्तांतरण महज निगरानी या क्रियान्वयनीय न होकर के असल हो। वित्त, कार्ययोजना और कर्मचारियों की जवाबदेही ग्राम सभा के प्रति होने पर ही असल हक मिलेंगे।
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उत्खनन, भौतिक निर्माण की अनुमति, वनों के निजीकरण का फैसला यदि विधान सभाओं और संसद में होता रहा, तो संसाधन और राजनीतिक/सामाजिक सत्ता केन्द्रित होती रहेगी। चुनाव महंगे होने पर कोई पलक नहीं झपकाएगा क्योंकि उसका अर्थतंत्र इस लाॅबी से आसानी से संचालित होता रहेगा। गरीब हाशिये पर धकेल दिए जाएंगे और वंचना को विद्रोह मे तब्दील होते देर नहीं लगती।
इसी कारण से देश के एक युवा प्रधानमंत्री ने इस केन्द्रीकरण को नेस्तनाबूद करके संवैधानिक तरीके से सत्ता और अधिकार का लोक हस्तांतरण करने की पहल की थी। 20 अगस्त उनकी जंयती है। वे राजनीतिक और आर्थिक सत्ताधीशों के गठजोड़ को ही तोड़ना चाहते थे। ताकि सभी गरीब और विशेषकर आदिवासी समाज को 'विकास' की कीमत अपने ’अमानवीकरण’ से न चुकाना पड़े। इस सरकार को यह कुबूल नहीं। उनके रईस दोस्तों को यह पसंद नहीं। उनकी निगाह में अधिकार की लड़ाई लड़ता समाज ’’मवाली’’ है।
9 अगस्त के दिन यह चिन्तन करना होगा कि कैसे भविष्य में हर सामाजिक अनुबंध की बुनियाद में 'मानवीयता' की ईंट लगाई जाए। तब ही पचहत्तर साल पहले मिली स्वतंत्रता, बिरसा मुण्डा के स्वप्न 'अबुआ राज' या 'स्वराज' में तब्दील हो सकेगी।
(इस आलेख मे दी गई आनुवांशिक जानकारी टोनी जोसेफ की किताब 'अरली इंडियन', युवाल नोवा हरारी की 'सैपियन्स' और डेविड रीच की किताब 'हू वी आर एंड हाउ वी गाॅट हीयर' से प्राप्त की गई है)
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