भारतीयों का ब्रिटेन जाकर बसने का सिलसिला पिछले 400 सालों से चल रहा है। 1950 के दशक में इस तरह भारतीय प्रवासियों के आने की रफ्तार खासी तेज हो गई। पंजाब से, और वह भी अधिकतर सिखों का कामकाजी वर्ग यहां आया। यह ट्रेन्ड एक या दूसरे तरीके से कमोबेश जारी रहा। 1970 के दशक की शुरुआत में ब्रिटेन आने वालों का अगला प्रमुख और नया स्रोत पूर्वी अफ्रीका से था। यह अधिकतर भारतीय मूल के गुजरातियों का था जो ब्रिटिश नागरिक थे और उत्तर-औपनिवेशिक अश्वेत शासन, खास तौर से युगांडा के अत्याचारी ईदी अमीन से काफी प्रताड़ित थे।
यूनाइटेड किंग्डम ने भारतीयों और अफ्रीकियों के बीच बांटो और राज करो की नीति अपना रखी थी। वे आज्ञा मानने वालों को प्राथमिकता देते थे और इस तरह स्वदेशी लोगों के बीच नाराजगी पैदा करते थे। पूर्वी अफ्रीकी भारतीय और खास तौर से भारतीय मूल के लोग इस तरह आए जबकि अन्य वेस्ट इंडीज, दक्षिण-पूर्व एशिया और दक्षिणी अफ्रीका से आए।
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वस्तुतः, भारतीय प्रवासियों का बहुमत भारत से आने वालों का है लेकिन भारतीयों का बड़ा समूह गुजराती हिन्दुओं का है जिनके पुरखे भारत की आजादी से काफी पहले 19वीं और 20वीं शताब्दी में विदेश आ गए थे। हाल में आने वाले भारतीयों में भारत के विभिन्न इलाकों से बैंकरों और मैनजरों का कुशल वर्कफोर्स और मुख्यतः दक्षिणी राज्यों से आने वाले इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और सॉफ्टवेयर विशेषज्ञों की जमात है। यह काफी अधिक वेतन वाली, 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद वाली, काफी इधर-उधर यात्रा करने वाली पीढ़ी है।
विद्यार्थी भी कम नहीं हैं जो ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में उच्चतर शिक्षा ग्रहण करते हैं और बाद में नौकरी पा लेते हैं और यहीं रुके रहने में सफल हो जाते हैं। सांस्कृतिक तौर पर भिन्न, भाषायी बाधाओं की वजह से और भिन्न आकांक्षाएं रखने के कारण उन लोगों में कभी पूरी तरह एकता नहीं रही है। हाल के दशकों में, बॉलीवुड फिल्मों और भारतीय क्रिकेट टीम के लिए अपने उत्साह के कारण उनके हित मिले हैं।
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अपनी-अपनी बस्ती
गुजराती वेंबले के उत्तर-पूर्व उपनगर और लिसेस्टर के इंग्लिश ईस्ट मिडलैंड्स सिटी में रहते हैं और सिख ब्रिटिश राजधानी के साउथहॉल और हाउनस्लो वेस्ट तथा इंग्लिश वेस्ट मिडलैंड्स के शहरी इलाकों में रहते हैं। इनमें से अधिकांश सिखों के पूर्वज कार निर्माता उद्योग में नौकरी करने आए थे और उनकी संतानें अब भी इसी काम में लगी हैं।
भारतीय राष्ट्रवादी उत्साह प्रदर्शित करने में सिख पहले काफी आगे रहते थे। चाहे वह 1962, 1965 और 1971 में भारत पर थोपे गए युद्ध के समय अपनी मातृभूमि की मदद का मसला हो, खाद्य और विदेशी मुद्रा कमी का समय हो या खेलों के मैदान में भारत के पक्ष में उत्साहवर्धन हो, वे बिल्कुल सामने आने वाले सबसे अधिक देशभक्त और निःस्वार्थ भारतीय थे। आज वही वर्ग बहुत बुरी तरह विभाजित है। उनमें कम-से-कम 20 प्रतिशत लोग अनुमानतः खालिस्तान-समर्थक हैं। वे उस सीमा को भी पार करना चाहते हैं जो भारतीय अधिकारियों की नजर में पाकिस्तानी सेना की जासूसी शाखा- इंटर-सर्विसेस इंटेलिजेंस (आईएसआई) के साथ मेलजोल करने की इच्छा वाली है।
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यही नहीं, नरेन्द्र मोदी ने भारतीय किसानों को लेकर जो असंवेदनशील रवैया अपनाया, उसने ब्रिटेन में रहने वाले सिखों के बड़े वर्ग को गुस्से से भर दिया। कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन से प्रभावित होने वाले लोगों में ब्रिटेन में रहने वाले सिखों के रिश्तेदार, दोस्त या जान-पहचान वाले थे। आरएसएस समर्थक माना जाने वाला संगठन- ओरवरसीज फ्रेन्ड्स ऑफ बीजेपी किसी एक सिख या गैर हिन्दू को अपना सदस्य नहीं बना पाया है।
भारतीय प्रवासी मुसलमान भारत और अन्य क्षेत्रों- दोनों से आते हैं। भारत से आने वालों का पालन-पोषण वहीं हुआ है इसलिए वहां से उनका गहरा संबंध है। संपत्ति को अलग भी कर दें, तो वस्तुतः, उनके परिवार और दोस्त वहीं हैं। मोदी शासन के दौरान मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों के बावजूद 1969 में गठित और तुलनात्मक तौर पर प्रगतिशील भारतीय मुस्लिम फेडरेशन भारत से अपने रिश्ते को लेकर विचलित नहीं हुआ है।
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इस वजह से लंदन में भारतीय उच्चायोग ने भारतीय मुसलमानों के मामले में समावेशी नीति को बढ़ाया है। लेकिन दिल्ली में मोदी के शासन के बाद यह रिश्ता गत सितंबर में राजनयिक मिशन के पूर्वाग्रहग्रस्त बयान के बाद तब बिगड़ गया जब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच लीसेस्टर और ब्रिटेन के दूसरे सबसे बड़े शहर बरमिंघम में झड़प हुई। इस बयान में कहा गया था कि ‘हम लीसेस्टर में भारतीय समुदाय के खिलाफ भड़काई गई हिंसा और हिन्दू धर्म के परिसरों और प्रतीकों को तहस-नहस करन की निंदा करते हैं।’
मोदी के लगभग सभी विदेशी दौरे के एजेंडे में सबसे प्रमुख प्रवासियों के साथ संवाद रहता है- बाहर रहने वालों में सिर्फ उनके साथ ही वह सहज रहते हैं। दूसरे देशों के सरकारी नेताओं के साथ उनकी बैठकें फोटो खिंचवाने से अधिक शायद ही कुछ होती हैं, क्योंकि वह द्विपक्षीय या बहुपक्षीय मामलों पर जोर देने वाली वास्तविक बातचीत में भाग लेने में अक्षम या अनिच्छुक रहते हैं। चूंकि वह विश्वास के साथ अंग्रेजी में संवाद करने में अक्षम हैं, इसलिए अनौपचारिक बातचीत में लगभग मूक दर्शक ही रहते हैं।
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मोदी भारत के लोगों से कहीं अधिक प्रवासियों के बीच सहज रहते हैं। ब्रिटिश और प्रवासी भारतीय हिन्दुओं की अच्छी-खासी संख्या के कोलाहल भरे व्यवहार और उनके द्वारा मोदी को दिए गए महत्व ने ब्रिटेन में रह रहे लिबरल हिन्दुओं, अनुसूचित जाति के लोगों, मुसलमानों और सिखों को अलग-थलग कर दिया है। कट्टरपंथी उन्हें अब भी पसंद करते हैं जबकि ऐसे अल्पसंख्यकों की संख्या बढ़ रही है जिन्होंने उनके दोहरेपन और काम न करने के खोखलेपन को समझ लिया है। गुजरात दंगों पर बीबीसी डॉक्यूमेंटरी युवा पीढ़ी के लिए जागृति फैलाने वाली रही है।
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