आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू करा रहे हैं।
पहली कड़ी में आपने पढ़ा वरिष्ठ लेखक गणेश देवी का लेख- सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र
इसके बाद दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख - ज़िंदा लाशों को आज़ादी की क्या जरूरत?-और अब तीसरी कड़ी में पढ़िए नदीम हसैनन का लेख:
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भारतीय समाज में कभी ऐसा भी होगा, सोचा नहीं गया था। असहमतियां रहीं। मतभेद रहे। दिलों में दूरियां कभी नहीं रहीं। कहने की जरूरत नहीं कि मुसलमान न सिर्फ भारत देश बल्कि भारतीय इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहा है। उनका खून भी साझा हितों में भारत के खून में मिला हुआ है। वह ‘मुसलमान’ हैं और ‘भारतीय’ हैं। उनकी पहचान को लेकर कभी अंतर्विरोध नहीं रहा। हाल के वर्षों में उनकी पहचान बिगाड़ने या उन्हें ‘पराया’ बताने की जैसी कोशिशें हुई हैं, गहरी चिंता का विषय है। ऐसा नैरेटिव बनाने के लिए बहुत सोचे-समझे तरीके से एक ऐसा रूढ़िबद्ध तानाबाना बुना गया कि हैरत होती है। उन्हें एक खास ढांचे में डालने की कोशिशें हुईं हैं। यह प्रक्रिया सतत जारी है।
यहां दो तथ्य समझना बहुत जरूरी हैं। पहली बात यह कि समाज और संस्कृति के सभी पहलुओं में भारतीय मुसलमान पश्चिम एशिया/मध्य पूर्व या अफ्रीकी मुसलमानों से बिल्कुल भिन्न हैं क्योंकि वह विशुद्ध रूप से ‘हिन्दुस्तानी’ हैं। दूसरी बात यह कि न तो वे एक ‘सांस्कृतिक समुदाय’ हैं (क्योंकि भारतीय मुसलमानों की कोई एक साझी संस्कृति नहीं है और वे अलग-अलग क्षेत्रीय संस्कृतियों में जीते हैं) और न ही वे एक एथनिक (विशेष जाति से, धर्म से संबंधित ) आबादी के रूप में देखे जा सकते हैं। वे विभिन्न भाषाओं और बोलियों के साथ विविधतापूर्ण पहचान की परतें लिए एक वृहत्तर जटिल भारतीय समाज का हिस्सा हैं। उनको लद्दाख जैसे क्षेत्रों में एक भाषायी/प्रांतीय/प्रजातीय श्रेणी में देखा जा सकता है, तो जम्मू-कश्मीर के विभिन्न भागों में वे गद्दी और बकरीवाल जैसी अनुसूचित जनजातियों के रूप में मिलते हैं।
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संपूर्ण भारत में वे सुन्नी, शिया, खोजा, बोहरा, अहमदिया या कादियानी के रूप में हैं। इन परतों के अंदर वे देवबंदी, बरेलवी, अहले हदीस जैसे मसलकों/पंथों में बंटे हुए हैं। वे अशरफ (उच्चजातीय समूह) और अजलफ (निम्न जातीय समूह) जैसी कई परतों वाली सामाजिक व्यवस्था में जीते हैं। यानी वे कोई एक समरूप आबादी नहीं, फिर भी उन्हें पेश इस तरह किया जा रहा है जैसे वे न सिर्फ बहुसंख्यक समाज बल्कि राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए भी गंभीर खतरा बन गए हों।
इस दुष्पप्रचार ने हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यक मुसलमानों और कुछ कम हद तक ईसाइयों के खिलाफ समाज में घोर नफरत का माहौल पैदा किया है। इस नफरत ने सामाजिक-राजनीतिक पटल पर धार्मिक ध्रुवीकरण को बहुत बढ़ावा दिया है। चुनाव के समय तो झूठ और नफरत का यह प्रचार अपने चरम पर पहुंच जाता है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज का शिक्षित वर्ग भी इस लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद के बीच भेद नहीं कर पा रहा। उन्हें लगता है कि सिर्फ निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव से ही लोकतंत्र परिभाषित होता है (निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव पहले से सवालों में है)। वास्तविकता यह है कि जब एक बहुसंख्यक समुदाय यह मान बैठे कि उसके पास एक प्रभुता संपन्न अधिकार है कि वह जब चाहे अपनी मर्जी और पसंद को संपूर्ण समाज पर थोप सकता है, तो यह लोकतंत्र की हत्या की ओर एक निर्णायक कदम है।
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कहने की जरूरत नहीं कि बहुसंख्यकवाद आधारित ही इस मान्यता पर है कि बहुसंख्यक समुदाय के पास अधिकार है कि वह अपनी मनमानी कर सके और उस पर कोई रोक नहीं। इसके विपरीत उदार लोकतंत्र सिर्फ निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव से परिभाषित नहीं होता। उससे आगे भी बहुत कुछ है। उसे समावेशी होना होता है जहां व्यवस्थाएं आम सहमति से चलती हैं। जो समाज के कमजोर और वंचित तबके के सशक्तिकरण के लिए काम करे और जिसके मूल में किसी भी प्रकार के अल्पसंख्यक-
धार्मिक, भाषाई, जनजातीय, यौनिक मसलन एलजीबीटीक्यू के लिए किसी तरह का भेदभाव न हो। कहना न होगा कि बहुसंख्यकवाद जब अति-धार्मिकता पर केन्द्रित होता है, तो यह ‘धार्मिक राष्ट्रवाद’ में तब्दील हो जाता है और जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थान नहीं होता।
अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा बहुसंख्यकवाद का खाद-पानी है और संदेह नहीं कि भारत अब तेजी के साथ बहुसंख्यकवाद के फंदे में फंसता जा रहा है। पहले गाहे-बगाहे होता था, अब यह आम है और अल्पसंख्यक इसमें पिस रहा है। ध्यान देने योग्य लेकिन खतरनाक बात यह भी है कि भारतीय समाज जिस तरह द्विखंडित नजर आ रहा है उसमें अगर आप बहुसंख्यकवादी आख्यान के साथ सहमत नहीं हैं, तो आप जिहादी, अर्बन नक्सल या आईएसआई के एजेंट ही हो सकते हैं! यह कोई भी, कहीं भी तय कर दे रहा है!
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ऐसा लगता है कि हाशिये पर धकेलने की प्रक्रिया में मुसलमान इस तरह मजबूर किया जा रहा है कि वह दूसरे दर्जे का नागरिक होना स्वीकार कर ले और अंततः ‘कहीं का भी नहीं’ बनकर रह जाए। यह आत्मसम्मान से जीने की उसकी हिम्मत को तोड़ने की योजना का हिस्सा जैसा नजर आता है। बहुसंख्यकवादी राष्ट्र की पहली प्राथमिकता होती है कि किसी भी तरह बहुसंख्यक समुदाय को एक वोट बैंक के रूप में संगठित कर दिया जाए। तमाम सामाजिक विविधताओं वाले समाज के गर्व को झुठलाते हुए यह तभी संभव है जब उसके सामने एक समान, साझा दुश्मन रखा जाए और एक ‘खतरनाक अल्पसंख्यक’ इस खांचे में आसानी से फिट हो सकता है। यानी अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेलने की ऐसी जुगत जहां वे देश के राजनीतिक जीवन में भी अप्रासंगिक हो जाते हैं।
गौर करना होगा कि हमारी मौजूदा भारतीय संसद में मुसलमानो का प्रतिनिधित्व अपने न्यूनतम स्तर पर है। कई राज्यों की विधानसभाओं में तो यह शून्य है। भारतीय मुसलमानों को अदृश्य कर देने की मुहिम की शुरुआत मुगल शासकों के नाम वाले शहरों और स्थानों को बदलने से हुई। अगले चरण में शायद वे नाम या शब्द ही बदल दिए जाएं जहां से ‘उर्दू’ या ‘मुस्लिम’ जैसा कुछ ध्वनित भी होता हो। वे इतिहास से बाहर किए जा रहे हैं। इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में या तो उनका जिक्र शून्य किया जा रहा है या वे खलनायक दिखाए जाने लगे हैं। ऐसे नाम के रूप में जिनका राष्ट्र निर्माण में कभी कोई योगदान नहीं रहा।
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देश की मौजूदा राजनीतिक सत्ता तो उन्हें हाशिये पर ढकेल ही रही है, दुःख की बात है कि वृहत्तर समाज का समर्थन भी चाहे-अनचाहे इस मुहिम को मिल रहा है। विडंबना है कि बहुत से लोग जो इससे सहमत नहीं हैं, उन्हें भी यह अभी तक ‘उतना गंभीर’ नहीं दिख रहा। नहीं भूलना चाहिए कि रक्त कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी भी हल्के -फुल्के बुखार से ही शुरू होती है। कोई राष्ट्र इतनी बड़ी उपेक्षित, असंतुष्ट, निराश और अलग-थलग कर दी गई अल्पसंख्यक आबादी के साथ शांति और प्रगति के रास्ते पर कैसे जा सकता है, राष्ट्र को गंभीरता से इस पर विचार करना चाहिए, वृहत्तर समाज को भी। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में एंथ्रोपोलॉजी विभाग के पूर्व प्रोफेसर और हेड हैं।
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