विचार

स्वतंत्रता दिवस विशेष: सिर्फ वोट देने का अधिकार ही नहीं है आजादी, जूझना होगा लोकतंत्र की रक्षा के लिए

अगर हम अपने लोकतंत्र और अपनी आजादी की कद्र करते हैैं, तो वोट देने के अधिकार के उपयोग से आगे जाकर हमें इनके लिए जूझना होगा।

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आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू करा रहे हैं।

पहली कड़ी में आपने पढ़ा वरिष्ठ लेखक गणेश देवी का लेख- सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र

इसके बाद दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख - ज़िंदा लाशों को आज़ादी की क्या जरूरत?-

तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा नदीम हसनैन का लेख - लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का भेद

और अब पढ़िए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े का लेख

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वर्ष 1944 में अमेरिकी न्यायाधीश लर्नेड हैंड ने लिखा था, ‘आजादी लोगों के दिलों में होती है; अगर वह वहां (दिलों में) मर जाए, तो कोई संविधान, कोई कानून, कोई अदालत ज्यादा कुछ नहीं कर सकती। अगर वह वहां है, तो उसे बचाने के लिए किसी संविधान, किसी कानून, किसी अदालत की जरूरत नहीं।’ मैंने अक्सर इन शब्दों के अर्थ पर विचार किया है। क्या किसी व्यक्ति की निजी आजादी की हर समय रक्षा न्यायाधीश करते हैं या फिर क्या यह सार्वजनिक और सामाजिक समझ पर निर्भर है कि उनके लिए आजादी का मतलब क्या है? इस नजरिये से हमें भारत की स्थितियों का भी विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि संविधान में चाहे बातें कितनी भी सिद्धांत-सम्मत और उचित क्यों न हों, व्यवहार में आते-आते उनमें साफ कमी रह जाती है।

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ब्रिटिश शासन ने स्वतंत्र न्यायाधीशों द्वारा प्रशासित कानून के शासन के वादे को पूरा किया। आजादी-पूर्व भारत के न्यायाधीश औपनिवेशिक सरकार की सेवा में थे, फिर भी सर्वाधिक तनावपूर्ण क्षणों में भी निष्पक्ष कार्रवाई की थोड़ी-बहुत उम्मीद रहती थी। इसकी तस्दीक उस समय का एक मामला करता है। यह था आईएनए मामला। आईएनए मामले में जब कैप्टन प्रेम सहगल और उनके कामरेड साथियों के खिलाफ लाल किले में मुकदमा चलाया जा रहा था, तो उन्हें सजा-ए-मौत दे दिए जाने की संभावना थी। उनके पिता सर अचरू राम तब लाहौर हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश आर्थर ट्रेवर हैरीज के मातहत जज थे। बचाव पक्ष के वकीलों की टीम की अगुवाई भूलाभाई देसाई करने वाले थे। अचरू राम ने बचाव पक्ष के वकीलों के साथ समन्वय बैठाने के लिए न्यायाधीश के पद से इस्तीफा देने का फैसला किया। वह अपना इस्तीफा लेकर मुख्य न्यायाधीश के पास गए लेकिन उन्होंने सलाह दी कि अचरू इस्तीफा देने के बजाय केस के चलने तक के लिए छुट्टी ले लें।

इस प्रकार सर अचरू राम उस समय के सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक का समन्वय करने में सक्षम हो सके और जो बाद में भारत को आजादी देने के अंग्रेजों के फैसले का एक महत्वपूर्ण कारण बना।

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भारत की आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर हमें यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि क्या आज हमारे पास नागरिकों की स्वतंत्रता के वैसे ही निष्पक्ष संरक्षक हैं? आज ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाते देश को यह भी पूछने की जरूरत है कि आज एक आजाद देश के नागरिक के रूप में हम कितने आजाद हैं। हमारे पूर्वजों ने विदेशी शासन से आजादी दिलाकर महान काम किया लेकिन उससे भी बड़ा काम आज हमारे कंधों पर है जिसे पूरा करने में हम अब भी लगे हुए हैं। वह है भारत के भीतर अपने सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, मत, आस्था और पूजा की आजादी की रक्षा करना जिसका संविधान की प्रस्तावना में वादा किया गया है। कन्हैया कुमार ने सही ही कहा कि ‘भारत में आजादी’ और ‘भारत से आजादी’ दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले की रक्षा करना देशभक्ति वाली जिम्मेदारी है जिसे जानबूझकर दूसरे के साथ जोड़ा जा रहा है।

हाल के वर्षों में भारतीयों के मन में भरा जा रहा है कि कर्तव्यों के बिना कोई अधिकार नही हैं। लेकिन इस तरह की अवधारणा शासकों को नागरिक अधिकार सुनिश्चित करने के उनके कर्तव्य से मुक्त करती है। नेताओं को देवता की तरह पूजने वाली राजनीति में असहमति राष्ट्रविरोधी हो गई है और व्यक्तिगत मौलिक अधिकारों के आग्रह की सामूहिक इच्छा को गलत दिशा में मोड़ने के तौर पर देखा जाता है।

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मनी लॉनड्रिंग के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद आजाद भारत के भीतर नागरिक अधिकार निश्चित रूप से इंग्लैंड के राजा और भारत के सम्राट जॉर्ज पंचम के समय की तुलना में कम हो गए हैं। पीएमएलए मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उस कानून को बरकरार रखा है जो प्रवर्तन निदेशालय के एक अधिकारी को अहिंसक आर्थिक अपराधों के लिए किसी को गिरफ्तार करने, उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों के विवरण वाले दस्तावेज की कॉपी उसे न देने, उसकी संपत्ति को कुर्क करने, मामला चलने तक जमानत न देने जैसे अधिकार देता है। यहां तक कि अधिकारी को हिरासत में किसी व्यक्ति का बयान दर्ज करने और ऐसे बयानों को सबूत के तौर पर इस्तेमाल करने की भी अनुमति है। ऐसी स्थिति में किसी पुलिसकर्मी को दिए गए बयान की सामान्य कानून में स्वीकार्यता नहीं हैं। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों की आजादी की कीमत पर कार्यपालिका की इस कठोर ताकत को बरकरार रखा है।

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भारत ने विदेशी ताकतों से तो आजादी बनाए रखी है लेकिन अपने नागरिकों को वास्तविक आजादी नहीं दी है। एक औपनिवेशिक साम्राज्य के संरक्षण के लिए तैयार किया गया पुलिस ढांचा आज भी एक चुनावी लोकतंत्र का आधार बना हुआ है। संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में डॉ. आम्बेडकर ने भारत के नागरिकों को कुछ चेतावनियां दी थीं- आंदोलन से बचें, पूरी तरह संवैधानिक साधनों पर भरोसा करें, नागरिक स्वतंत्रता को महापुरुषों के चरणों में न रख दें और सामाजिक लोकतंत्र को देश के राजनीतिक लोकतंत्र का आधार बनाएं।

बाबा साहेब की इन तीनों चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया है। आजादी के 75 साल बाद भारत एक असमान समाज के कोलाहल वाला देश है जिसने अपने शासकों को चुनावी बहुमत से निरंकुश ताकत हासिल करने की अनुमति दी है। किसी अलोकप्रिय राजनीतिक फैसले को पलटने के लिए कभी-कभार सड़क पर निकलकर आंदोलन का सहारा लिया जाता है लेकिन लोकतांत्रिक आचरण में लोगों की भूमिका चुनाव प्रक्रिया में भाग ले लेना भर रह गई है। इससे ज्यादा जवाबदेही लेने की भूख खत्म हो गई है।

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भारत की संस्थाओं को मुख्यतः नौकरशाह चला रहे हैं और ये सरकार पर अंकुश रखने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। अगर भारतीय सभी स्तरों पर लोकतांत्रिक संकल्पों को पुनर्जीवित नहीं करते, हमारी नियति एक आजाद देश में बिना आजादी वाले नागरिकों की हो जाएगी। डॉ. आम्बेडकर ने हमें यह भी बताया था– ‘... आजादी ने हम पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। आजादी मिलने से हम कुछ भी गलत होने के लिए अंग्रेजों को दोष देने का बहाना खो चुके हैं। अगर इसके बाद चीजें गलत होती हैं, तो हमारे पास दोष देने वाला कोई नहीं होगा। खुद के सिवा...’। भारत के हर नागरिक के लिए ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ के प्रयास की रक्षा करने के लिए आगे आने का समय आ गया है।

(लेखक सुप्रीम कोर्क के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।)

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