कोई 30 बरस पहले कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री की एक तस्वीर बनाई थी जिसमें गीता के इन शब्दों को लिखा गया था: “इस आत्मा को शस्त्र नहीं भेद सकता, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है, न वायु सुखा सकती है। अपरिवर्तनीय, सर्वव्यापी, अचल, अचल”
संदर्भ प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की उस योग्यता पर टिप्णी थी जिसमें वे किसी भी आलोचना से विचलित नहीं होते थे और अपना काम करते रहते थे। उन पर मुख्यत: आरोप था कि कठिन परिस्थिति में उन्होंने कुछ नहीं किया। उन्हें एक्शन वाले व्यक्ति के बजाए किंकर्तव्यविमूढ़ व्यक्ति कहा गया, फैसले लेने के बजाय निर्णय न लेने वाला कहा गया। तैलंग ने अपने कार्टून में राव को आंखें बंद करके बैठे हुए दिखाया था जबकि उनके चारों तरफ विभिन्न अस्त्र-शस्त्र गिर रहे थे जो राष्ट्र को नुकसान पहुंचा रहे थे, और वे अविचलित थे।
राव के विचलित न होने का कुछ अंश शायद उनपर थोपा गया था। कांग्रेस नेता एक तरह से बेड़ियों में जकड़े हुए थे क्योंकि उनके पास संसद में केवल 240 सीटें थीं। अल्पमत वाला एक प्रधानमंत्री कानून के माध्यम से कोई ऐसा फैसला नहीं कर सकता जो दूसरों को पसंद न हो, और उस समय की कांग्रेस में पार्टी के भीतर भी उनके कुछ प्रतिद्वंद्वी थे।
Published: undefined
लेकिन कुछ अंश तो जानबूझकर किया गया लगता था जो उनके अपने ही अंदाज से आया था। जैसाकि उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया था (उन दिनों प्रधानमंत्री खुद को सवालों के जवाब देने के लिए सामने पेश कर देते थे) “एक्शन न लेना भी अपने आप में एक एक्शन है।” जैसाकि आउटलुक पत्रिका में एक डायरी कॉलम में लिखा गया था, “नरसिम्हा राव ने जड़त्व के नियमों के साथ वह किया है जो खुद न्यूटन भी नहीं कर सकते थे। या फिर उन्हें उनके 'निष्क्रियता सर्वोत्तम क्रिया है' सिद्धांत के लिए मिली प्रशंसा से देखते हुए ऐसा ही प्रतीत होता है।” उनके साथी जी संजीवा रेड्डी ने कहा था, “वे एक गहरे विचारक हैं न कि तुरंत क्रिया में विश्वास रखने वाले, और एक ऐसे शख्स हैं जिसमें सहज निर्णय लेने की इच्छा को दबाने की अद्भुत क्षमता है।"
यह उथल-पुथल भरा दौर था जब इस मनहूस काल में देश ने सबकुछ देख लिया। मंदिर, मंडल पर हिंसा, 1992 में दंगे, 1993 में बम विस्फोट, संसद के अंदर रिश्वतखोरी, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर महाभियोग, आर्थिक संकट। इसमें सब कुछ था। इस सब के बीच, राव अविचलित रहे और पद पर बने रहे।
Published: undefined
आइए राव और उनकी शैली की तुलना वर्तमान समय के उस नेता से तुलना करते हैं, जिन्हें निर्णय लेने वाला और एक्शन वाला नेता कहा जाता है। कम से ब्रांडिंग के मामले में तो ऐसा ही है। मैं यह लेख 17 जून को लिख रहा हूं और मणिपुर 3 मई से यानी 45 दिनों से आग की लपटों में जल रहा है। प्रधानमंत्री ने इसके बारे में लगभग गौण कदम उठाया है। केंद्रीय गृहमंत्री को वहां जाने का फैसला करने में लगभग एक महीना लगा तब कहीं जाकर वह 30 मई को मणिपुर पहुंचे, लेकिन उनके दौरे से मणिपुर में हिंसा खत्म नहीं हुई, क्योंकि वे वहां सिर्फ जबानी जमा खर्च के अलावा कोई समाधान लेकर गए ही नहीं थे। रही बात प्रधानमंत्री की, तो उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला है वहां के बारे में।
लेकिन फिर, वह कहेंगे भी तो क्या कहेंगे? क्या यही कि बीजेपी की डबल इंजन सरकार ध्वस्त हो गई? या फिर यह कि बीजेपी शासन के बुनियादी अंग कानून-व्यवस्था को भी बरकरार रखने और आम नागरिकों की सुरक्षा करने में अक्षम है? नहीं, वे ऐसा कुछ नहीं कहेंगे। यह तो उनकी शैली ही नहीं है। इसीलिए वे उन्होंने खामोशी को चुना है, शायद इस उम्मीद में कि सबकुछ अपने आप ही शांत हो जाएगा और फिर उन्हें इस सबके बारे में कुछ कहने की जरूरत ही नहीं होगी।
Published: undefined
ऐसा पहले भी हो चुका है और इस बात को ज्यादा वक्त नहीं हुआ है। 17 अप्रैल 2021 को वे आसनसोल में थे। लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि उन्होंने इतनी बड़ी जनसभा पहले कभी नहीं देखी। उसी दिन देश में 2 लाख लोग कोविड संक्रमण के शिकार हुए थे और अगले कुछ ही दिनों में यह आंकड़ा दो गुना हो गया था। भारत के अस्पतालों और श्मशान स्थलों के विचलित कर देने वाले दृश्य दुनिया भर के समाचारों में छाए हुए थे। सरकार की नाकामी और आपराधिक लापरवाही का नंगा नाच दुनिया देख रही थी।
आपदा के इसी दौर में सरकार जड़ होकर रह गई और प्रधानमंत्री लुप्त हो गए। मार्च से लेकर सितंबर 2020 के बीच नरेंद्र मोदी 82 बार सार्वजनिक तौर पर सामने आए, कभी शारीरिक रूप से कभी आभासी (वर्चुअल) रूप में। अगले चार महीनो में वे 111 बार इसी तरह अवतरित हुए। फरवरी से 25 अप्रैल 2021 के बीच वे 92 बार सामने आए। लेकिन 25 अप्रैल 2021 को कुंभ और बंगाल की चुनावी रैलियां पूरी होने के बाद वे लुप्त हो गए। अगले 20 दिन वे कहीं भी, कभी भी नजर नहीं आए।
Published: undefined
वे तभी अवतरित हुए जब साफ हो गया कि कोविड लहर अब उतार पर है और उन्हें कठिन और फौरी सवालों का सामना नहीं करना पड़ेगा। आखिर वे कर भी क्या सकते थे? वे बाहें चढ़ाकर मैदान में उतर सकते थे और स्थिति को काबू में कर सकते थे। वे अस्पतालों का दौरा कर सकते थे, वे हवाई अड्डों पर जा सकते थे जहां विदेशों से आई मदद को विभिन्न कानूनों के नाम पर रोका जा रहा था। और पिछले महीने वे मणिपुर में लोगों के बीच हो सकते थे। मामूली सी कामयाबी या फिर नाकामी से निजी तौर पर जुड़ने की जरा सी भी संभावना होती तो कोई भी नेता कठिन समय में सामने आता, क्योंकि नेतृत्व तो इसी को कहते हैं। और ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि आपको इसी काम के लिए चुना गया है।
मोदी सामने नहीं आए और छिपते रहे, जबकि मणिपुर के लोग आज वही सबकुछ देख रहे हैं महसूस कर रहे हैं जो कोविड की दूसरी लहर के दौरान देश ने देखा-महसूस किया था। चूंकि वे खुद सामने नहीं आए हैं, इसलिए उनके मंत्री भी इससे दूर हैं, और इस सबसे समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। गृहमंत्री को तो पहले ही इम्फाल में होना चाहिए था, लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री खुद ही खामोश हैं तो उन पर भी कोई दबाव नहीं है।
Published: undefined
बहुत से ऐसे लोग जो किसी से 18 बार मिल चुके हों, और वह व्यक्ति कुछ गलत करेगा तो उसका सामने से विरोध करेंगे। लेकिन मोदी ने शी जिनपिंग को फोन करने भी जहमत नहीं उठाई कि आखिर वह लद्दाख में गड़बड़ क्यों कर रहे हैं। समस्या को हल करने की कोशिश करने के लिए कोई व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं ली गई।
नरसिम्हा राव ने भी यही किया होगा। लेकिन उन्होंने कर्मठ व्यक्ति होने का ढोंग नहीं किया और उन्होंने यह नहीं कहा कि वे एक निर्णायक नेता थे।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined