इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक अब समाप्ति पर है। विश्वव्यापी महामारी और तेजी से बदलते पर्यावरण ने दुनिया को एक बार फिर युद्ध और विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। जिधर तक निगाह जाती है, अ-शांति की नई भूमिकाएं बन रही हैं। रंगभेद, नस्ल वैमनस्य, धार्मिक कट्टरपंथिता और दुनिया का इकलौता आर्थिक ध्रुव बनने की अश्लील उतावली उफान पर है। जाहिर है कि अपने तमाम तकनीकी विकास, राजनीतिक, आर्थिक और दार्शनिक चिंतन के बावजूद इक्कीसवीं सदी भी युद्ध, बेपनाह पैसा कमाई की हवस और कलह को बेमतलब बनाने वाली मानसिकता नहीं रच पाई है। दहलीज पर खड़े अमेरिकी चुनावों ने कई गड़े मुर्दे उखाड़े हैं जिनमें से गत चुनावों में ट्रंप द्वारा नई तकनीकी और पुतिन की मदद से प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ रचे गलतबयानी के चक्रव्यूह बनाना भी शामिल है। उसी नई तकनीकी पर फेसबुक और वाट्सएप की मार्फत हमारे लोकतंत्र में भी राजनीतिक दलों के दबाव से प्रतिबंधित दुर्भावनामय टिप्पणियों पर रोक लगाने-नलगाने को लेकर नागरिकों की निजता सुरक्षा पर तीखे सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सरकार एक विदेशी अखबार के आरोप को गलत कह रही है कि फेसबुक की भारतीय प्रमुख ने चुनावों के दौरान कुछ विद्वेषी टिप्पणियों को न हटाने के आदेश दिए थे क्योंकि उनका खुद राजनीतिक दल विशेष से पारिवारिक धरातल पर जुड़ाव था। खुद कंपनी की तरफ से भरोसेमंद जवाब जब आएगा, तब आएगा लेकिन यह अनायास नहीं कि अमेरिका में भी उसके कामकाज की महीन जांच हो रही है। इस वाकये ने सभी उपभोक्ताओं को याद दिलाया है कि आज नहीं तो कल, उनके निजी डेटा का उनकी जानकारी बिना व्यावसायिक इस्तेमाल होना लगभग तय है। तमाम दैनिक व्यस्तताओं, पुरानी कट्टरपंथिता और नई तकनीकी मजबूरियों के उभार के बीच लोकतंत्रों के मीडिया और राजनीति में आज मनुष्यकी निजी आजादियों के लिए कोई गहरा सम्मान या सुरक्षित जगह वैसे भी इन दो दशकों में कहां बची है?
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यह साल जाते-जाते बताता है कि जो जीवनशैली और बाहर से आयातित सूचना प्रसार तकनीकी पिछले बीस सालों में हमने बांहें पसार कर अपनाई है, उनसे चुनावी राजनीति और गंदली और अपारदर्शी हो जाने का भारी खतरा है। और दुनिया के हर लोकतंत्र में कोविड के पैर पसारने के बाद से मीडिया द्वारा मतदाता को सभ्य और समझदार बनाने के बजाय सभ्यता की बुनियाद: कला, दार्शनिक विचार और भाषा पर खुले संवाद के लिए जगह या अभिव्यक्ति की आजादी तेजी से कमजोर की जा रही है। कोविड के लॉकडाउन ने मिलेनियल पीढ़ी को भी जिसकी खुद से सोचने की क्षमता लगातार कम होती गई थी, जीवन में पहली बार असली अकेलेपन से परिचित करा दिया है। मानसिक संतुलन खो कर अचकचाए बुजुर्ग ही नहीं, बीसेक बरस के युवा भी पा रहे हैं कि बेदिमाग अकेलेपन को ओटीटी की धाराप्रवाह फिल्में देख कर या ऑनलाइन ऑर्डर की गई चीजों से नहीं भरा जा सकता। नई सदी के सारे वैभव और उदासी को एक साथ अनुभव करने वाले वे अमीर और प्रोफेशनल लोग भी खुद को प्रेम और विश्वास से रहित पा रहे हैं। सड़क से स्कूली बच्चे तक- सब कहीं अनिद्रा जनित बीमारियां, मानसिक अवसाद, और आत्महत्या के विचार बढ़ रहे हैं। इसकी कई विचलित करने वाली खबरें इधर हर छोटे-बड़े शहर से लगातार मिल रही हैं। कभी चहकता रहा बॉलीवुड भी इसका अपवाद नहीं।
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जब मनुष्य उदासी और अकेलेपन के बीच ईमानदारी से अपने जिये जीवन पर सोचता है, तो उस समय साहित्य और कलाओं का महत्व समझ आता है। अफसोस यह कि हमारी पिछले दशकों की राजनीति, पारिवारिक जीवनशैली, शिक्षा पद्धति और भाषाई सिकुड़न ने अधिकतर भारतीयों के लिए इनपर आजादी के शुरुआती दिनों की तरह कई पीढ़ियों, कलाकारों और राजनेताओं के एकजुट होकर खुलेपन से विचार साझी करना असंभव बना दिया है। बड़े लोग मीडिया पर शिक्षा के माध्यम से लेकर किसी फिल्मी सितारे की आकस्मिक मौत तक पर विचार करने बैठें, तो राजनीति पर काबिज धरतीपुत्रों के बीच तुरंत क्षेत्रीय तलवारें म्यानों से निकलने लगती हैं। और देश का ध्यान लोकतंत्र, कला या साहित्य की दशा-दिशा के बजाय क्षेत्रीय अपने-परायेपन पर भटक जाता है। हिंदी दक्षिण के लिए पराई है। सुशांत सिंह राजपूत या रिया चक्रवर्ती फिल्म स्टारों से पहले बिहारी-बंगाली हैं। किसी सूबे में थानेदारों की जातिकी तालिका बनाई जाने का आदेश सुनाई देता है तो किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री कहते हैं कि उनके राज्य में आगे से सरकारी नौकरियां केवल प्रदेश के लोगों के वास्ते ही आरक्षित होंगी। ऐसे माहौल में व्यास, कबीर, तुलसी, अष्टछाप कवियों, दक्षिणी अलावार संतों, जायसी, खुसरो, गालिब, मीर की रचनाएं जो सदियों से सारे भारत में सबके सुख-दुख की भाषा बनी हुई हैं, को पढ़ने-पढ़ाने की बात करने वाला पागल मानलिया जाए तो अचंभा क्या?
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आज के माहौल में जब हम सुनते हैं कि कई भाषाओं के उदारवादी साहित्य को शिक्षा और सरकारी सोच से बुरी तरह बेदखल किया जा रहा है, तो यह लेखिका एक तरह से तो सुरक्षित अनुभव करती है कि अब हम अपनी कला की दुनिया में निरापद होकर रह सकते हैं। पर पहले केवल अंत:करण में जगमगाते इस अद्भुत घर में आज सेंधमारी या उपभोक्तावाद की घुसपैठ की आशंका बनचली है। उधर, राज-समाज से जुड़े एक पत्रकार के दिल में यह सवाल भी रह-रहकर सर उठाता है कि कोविड का उफान उतरने पर स्थानीयता में किसी तरह की गहरी जड़ों से रहित हमारी नई पीढ़ी में नई ग्लोबल व्यवस्था में राजनीति से सामाजिक जीवन तक में सही भागीदारी करने लायक कितनी योग्यता होगी? क्या भारत को हर कीमत पर ग्लोबल ताकत बनाने का मतलब इतना ही बचा है कि हम सिर्फ आर्थिक, औद्योगिक और व्यापारिक तरक्की को ही राष्ट्र की तरक्की मानलें? हाशिये का समाज बेदखल होता रहे, गांव, वन, पहाड़- सब विकास के सुरसा मुख में समाते चले जाएं, निजीकरण के तहत आते जा रहे आरोग्य और शिक्षा केवल उनको मिले जो इसकी वाजिब कीमत दे सकें, तो कुछ सालों बाद हम कहां होंगे? प्लास्टिक के पेड़, नायलॉन के फूल, रबर की नकली चिड़ियां ही नहीं, ट्विटर, फेसबुक की भाषा और कथनियां, टीवी की बेबुनियाद खरीदी बेची जा रही बहसें और सीरियल- सभी हमारे संभावित मानसिक पतन का जीता-जागता प्रमाण बन चले हैं। अचरज नहीं कि महामारी के बीच भी आभासी मनोरंजन व्यवसाय इकलौता उद्योग है जो घर कैद भोगते परिवारों के बीच खूब फलता- फूलता रहा है। और यह कतई अकारण नहीं कि सरकारें जनभावना के सबसे उच्छृंखल पक्ष से जुड़े इस क्षेत्र का अब जमकर राजनीतिक इस्तेमाल कर रही हैं। 90 के दशक मंदिर निर्माण का माहौल रचने में राम और कृष्ण की जिन शालीन छवियों को धर्म ग्रंथों से निकाल कर छोटे पर्दे पर लाया गया था, उनकी भारी भूमिका रही। इस नई बुद्धिहीनता के बीच पुनरुत्थानवाद से अंधा लगाव फिर लगातार बढ़ाया जा रहा है। ऐनलॉक डाउन के बीच भी भूमिपूजन से पहले इन छवियों को बार-बार दिखाया गया। क्योंकि पुनरुत्थानवाद का डायनामो है देश की जनता को हिंदुत्व के खंभों: सतयुग, त्रेता या द्वापर की पुरानी दंतकथाओं, अंधविश्वासों के बीच लौटाना जब समाज जड़, स्त्री-शूद्र विरोधी और गो-ब्राह्मण पूजक था। इसीलिए इधर राजनीति में नेता और ग्लैमर जगत से खिलाड़ी तथा अभिनेता 90 के दशक की ही तरह दोबारा गले मिल रहे हैं। जन भावना के साथ हास्यास्पद होता यह खिलवाड़ दरअसल बहुत खतरनाक है। यह जनता में धार्मिक विवेक या वसुधैव कुटुंबकम के विचार का पुनर्जागरण नहीं, धार्मिक- राजनीतिक अज्ञान और नाटकीय मरीचिका का पुनरुत्थान है।
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वसुधैव कुटुंबकम् का सही अर्थ इतिहास के मुर्दों और खंडहरों की तरफ देखना नहीं, जीवन की तरफ, समन्वय की तरफ मुड़ना होता है। भारत का इतिहास बौद्ध और बौद्ध पूर्व समय से लाखों हमलावरों, आतताइयों, युद्धों और रक्तपात से सना हुआ है। फिर भी अपने साहित्य और संस्कृति-लेखन की मदद से यह देश गांधी के आने तक कई-कई संस्कृतियों के मेल से बनी अहिंसा, शांति और आध्यात्मिक बोध की अपनी जड़ें हरी रख पाया। उनको अब चुनावी राजनीति की दुधारी तलवार और नई तकनीकी की मदद से काटना तकलीफदेह तो है ही, इस समय, जब सारी मनुष्य जाति खुद को और अपने पर्यावरण को बचाने के लिए एक बड़ा युद्ध लड़रही है, यह एक आत्मघाती कदम भी साबित होगा।
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