जैश-ए-मोहम्मद का अर्थ है मोहम्मद की सेना। लेकिन एकदम अजीब बात है, क्योंकि इस्लाम के पैगंबर ने कभी भी हमलावर होने की इच्छा नहीं जताई थी। अरब का विस्तार तो खलीफाओं के दौर में हुआ, पैगंबर मुहम्मद के जाने के बाद।
जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तानी गुट है और इसके ज्यादातर लड़ाके या सदस्य पंजाबी हैं। यह लश्कर-ए-तैयबा से कहीं छोटा है और इसकी विचारधारा भी बिल्कुल अलग है। लश्कर की कार्यशैली में आत्मघाती हमले नहीं आते, क्योंकि वह सलाफी इस्लाम को मानता है, जिसमें खुदकुशी को गुनाह माना गया है।
इसके बजाए लश्कर अपने आतंकियों को फिदायीन कहता है। फिदायीन लड़ते-लड़ते जान दे देता है। उड़ी हमला और 2008 का मुंबई हमला लश्कर ने ही किया था, हालांकि वह इससे इनकार करता रहा है।
जैश-ए-मोहम्मद देवबंदी संगठन है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका उत्तर प्रदेश के देवबंद शहर में स्थित दारुल उलूम मदरसे से कोई ताल्लुक है। लेकिन वह उसी कट्टरपंथी तालीम को मानता है, जिसमें 8वीं शताब्दी के स्कॉलर अबु हनीफा की न्याय व्यवस्था को मान्यता दी जाती है। साथ ही वह सूफी इस्लाम और दरगाहों पर इबादत को भी गलत मानता है।
जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान के दो संगठनों सिपाह-ए-साहबा पाकिस्तान और लशकर-ए-ज्हानवी से जुड़ा हुआ है। दोनों ही संगठन पंजाबी है और पाकिस्तान शियाओं की हत्या में शामिल रहे हैं। जैश की सोच है कि पाकिस्तान को पूरी तरह शरीयत कानून के तहत न्याय व्यवस्था लागू करनी चाहिए, लेकिन पाकिस्तान में लगभग भारत जैसी ही कानून व्यवस्था है। वहीं पाकिस्तान यह भी चाहता है कि अफगानिस्तान से अमेरिका वापस चला जाए।
जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना साल 2000 में हुई और इसके ज्यादातर मानने वाले या सदस्य हरकत-उल-मुजाहिदीन से हैं। इसका मुखिया मसूद अजहर भारत में पकड़ा जा चुका है, लेकिन वाजपेयी सरकार ने इसे दूसरे तीन आतंकियों के साथ उस वक्त छोड़ दिया था, जब पाकिस्तानी आतंकियों ने एयर इंडिया की उड़ान आईसी-814 को अगवा कर लिया था और उसे अफगानिस्तान के कंधार ले गए थे।
2002 में जैश के कुख्यात आतंकी उमर सईद शेख ने एक ब्रिटिश पत्रकार डेनियल पर्ल की बर्बर हत्या की थी। उमर शेख को बी अजहर मसूद के साथ छोड़ा गया था।
2002 में ही तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने जैश और लश्कर दोनों पर उस वक्त पाबंदी लगा दी थी जब इसके फिदायीन ने भारत के संसद पर दिसंबर 2001 में हमला किया था। भारती ने संसद हमले के लिए इन दोनों आतंकी गुटों को जिम्मेदार ठहराया था। लश्कर का पाकिस्तानी पंजाब के मुरीद इलाके में बहुत बड़ा मुख्यालय है और कई संस्थाएं और संगठन इसके साथ जुड़े हुए हैं और नाम बदलकर आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं।
कुछ पाकिस्तानी विश्लेषकों का मानना है कि जैश और लश्कर दोनों पर ही पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का नियंत्रण है। जैश पर जब पाबंदी लगी और उसके खाते जब्त किए गए, लेकिन उससे पहले ही जैश ने अपने खातों से सारा पैसा निकाल कर अपने संगठन के छोटे सदस्यों के बीच बांट कर सुरक्षित कर लिया था। 2003 में जैश ने दो बार परवेज मुशर्रफ के काफिले पर फिदायीन हमला किया, लेकिन वे बच निकले थे।
कश्मीर में पहली बार फिदायीन या आत्मघाती हमला 19 अप्रैल, 2000 में हुआ था। तब जैश के आतंकियों ने बदामी बाग स्थित सेना की 15वीं कोर के मुख्यालय पर हमला किया था। इसके बाद अक्टूबर 2001 में भी जैश ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आत्मघाती हमला किया था, जिसमें 38 लोगों की जान गई थी।
2013 के बाद से जैश उतना सक्रिय नहीं रहा, खासतौर से पाकिस्तानी एजेंटों के खिलाफ शुरू हुई बड़ी कार्रवाई के बाद। लेकिन पाकिस्तान मसूद अजहर को अपने लिए बहुत महत्वपूर्ण मानता है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि इसे चीन ने वीटो के जरिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वैश्विक आतंकियों की सूची में शामिल होने से बचा लिया था।
सीआरपीएफ पर हमला इस गुट की नए सिरे से सक्रियता का संकेत है। आत्मघाती हमले अंजाम देना और बड़े स्तर पर इसे करना गंभीर चिंता का विषय है। आत्मघाती हमले के लिए विस्फोटक स्मगल करके लाने होते हैं, तकनीक की जानकारी वाले लोग चाहिए और फिर विस्फोट करने की डिवाइस तैयार करना, सब इसमें शामिल है। इस सबके लिए स्थानीय मदद चाहिए। कार की व्यवस्था करना, रणनीतिक मदद आदि स्थानीय मदद के बिना संभव नहीं है। इसके अलावा विस्फोटकों को जमा करना और प्रशिक्षण आदि भी स्थानीय स्तर पर ही करना होता है।
जैश इस हमले को अंजाम दे पाया इसका सीधा अर्थ है कि इसमें आत्मघाती आतंकी के अलावा भी बहुत सारे लोग शामिल थे। चिंता यह है कि वे सब अभी वहीं मौजूद हैं। चिंता यह भी है कि अगर एक स्थानीय कश्मीरी लड़के का ब्रेन वॉश कर उसे आत्मघाती आतंकी बनाया जा सकता है, तो इसका अर्थ यह भी है कि इलाके में कोई बेहद सक्रिय आतंकी कार्यक्रम जारी है और इससे आने वाले दिनों में और भी आत्मघाती हमले होने की आशंका है।
लेकिन एक दुखद बात यह भी है कि धार्मिक आधार पर समुदायों में विभाजन के चलते जांच एजेंसियों को आसानी से खबरी मिलना मुश्किल है। हमारी खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) नीति के तहत मुस्लिमों को अपने साथ शामिल नहीं करती है और कश्मीर के सामाजिक ताने-बाने में इसके बिना पैठ बनाना टेढ़ी खीर है। हालांकि खुफिया ब्यूरो में कुछ मुस्लिम शामिल हैं।
हकीकत यह है कि देश के खुफिया ब्यूरो में बहुत से ऐसे बड़े अफसर हैं जो उर्दू नहीं पढ़ सकते। जब 2002 में गुजरात के अहमदाबाद में अक्षरधाम मंदिर पर फिदायीन हमला हुआ (इसमें 30 लोगों की जान गई थी), था तो वहां से बरामद नोट को पढ़ने के लिए एक स्थानी गुजराती इमाम को बुलाया गया था।
मुंबई पुलिस की भी दिक्कत यही है। 1993 के दंगे और उसके बाद हुए विस्फोटों की जांच में भी यह दिक्कत सामने आई थी। मुंबई पुलिस के पास भी अब अच्छे मुखबिरों का जाल नहीं बचा है।
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मुशर्रफ ने जैश पर पाबंदी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दबाव में लगाई थी। वाजपेयी ने संसद हमले के बाद सेना को राजस्थान में पाक सीमा तक भेज दिया था।
अगर मोदी सरकार की तरफ से जारी बयानों को समझा जाए तो अब भी शायद ऐसा ही कुछ करने की योजना बन रही हो। लेकिन यह देखना होगा कि भारत ऐसा किस तरह करता है, क्योंकि पाकिस्तान के साथ निपटने में विश्व के कई देशों की दखलंदाजी भी रहती है। वजह साफ है कि जब दो परमाणु शक्ति संपन्न देश एक दूसरे की तरफ जंग के इरादे बढ़ रहे हों तो विश्व के देशों का दखल देना स्वाभाविक है।
रही बात कश्मीरियों की, तो इस हमले के बाद उनकी जिंदगी और मुश्किल होने वाली है। पहले ही कश्मीर में केंद्रीय शासन है। और अब तो उनके सार्वजनिक अधिकारों के पर और कतरे जा सकते हैं।
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