लीजिए, अब भारत एक नए लोकतंत्रकी रचना करेगा। यूं भी ‘न्यू इंडिया’ में हर चीज ही नई होनी चाहिए, तो स्पष्ट है कि अब देश में लोकतंत्र का स्वरूप भी अतिनवीन होना चाहिए। इस ‘नए लोकतंत्र’ की रूपरेखा किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं ‘न्यू इंडिया’ के जननायक माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद राज्य सभा के पटल से देश को पेश की। उनका मानना है कि लोकतंत्र आंदोलन रहित होना चाहिए। जी हां, तब ही तो लोकतंत्र के सबसे अहम पटल संसद में उन्होंने आंदोलनों की खिल्ली उड़ाई। उन्होंने देश को आगाह किया कि इस देश में अब ‘एक नई जमात’ बनती जा रही है। आप परिचित हैं कि प्रधानमंत्री शब्दों की बाजीगरी में उस्ताद हैं। अतः उन्होंने इस जमात को एक नई संज्ञा दी और उसको ‘आंदोलनजीवी’ की पदवी दी। प्रधानमंत्री ने देश को इस बात से भी आगाह किया कि सारे ‘आंदोलनजीवी’ ‘दीमक’ होते हैं और वे देश को घुन की तरह चाटे जा रहे हैं।
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अब आपको समझ में आया कि प्रधानमंत्री एक ऐसे ‘न्यू इंडिया’ की रचना करना चाहते हैं जिसमें लोकतंत्र तो हो परंतु उस ‘नए लोकतंत्र’ में कहीं भी आंदोलन का कोई स्थान नहीं हो। अब आप यह प्रश्न कर सकते हैं कि यह कैसा लोकतंत्र है कि जिसमें सरकार के खिलाफ कोई धरना-प्रदर्शन ही नहीं बल्कि किसी भी तरह का आंदोलन ही नहीं हो सकता है। हम और आप अभी तक धरना- प्रदर्शनों और आंदोलनों को लोकतंत्र का मौलिक अधिकार मानते हैं। दरअसल, यह गलती गांधी जी की है कि वह हम भारतवासियों को धरना-प्रदर्शन और जनआंदोलन की शिक्षा दे गए। गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ न जाने कितने बड़े-बड़े आंदोलन किए। कभी नमक सत्याग्रह, तो कभी भारत छोड़ो-जैसा आंदोलन। केवल इतना ही नहीं बल्कि सारे संसार को अहिंसा के आधार पर शांतिपूर्वक आंदोलन का एक नया पाठ पढ़ा गए। नेल्सन मंडेला जैसे शांतिपूर्वक आंदोलन करने वाले व्यक्ति ने दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। खैर, वह जमाना अलग था और अब जमाना बदल चुका है। अब हम ‘न्यू इंडिया’ में जी रहे हैं। यदि गांधी जी इस ‘न्यू इंडिया’ में होते तो उनकी शांतिपूर्वक आंदोलनकारी प्रवृत्ति तो बदलती नहीं। वह जिद्दी आदमी थे। उनको कोई बात बुरी लगती थी तो वह धरने या उपवास पर बैठ जाते थे। जाहिर है कि गांधी जी अपनी प्रवृत्ति अनुसार इस ‘न्यू इंडिया’ में भी कोई-न- कोई आंदोलन छेड़ ही देते। पता नहीं इस ‘न्यू इंडिया’ की सरकार उनको भी ‘आंदोलनजीवी’ की पदवी से सम्मानित करती या नहीं। परंतु संभावना यही है कि गांधी जी को भी कोई मोदी भक्त ‘आंदोलनजीवी’ कह ही देता।
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अब बड़ी मुश्किल है। गांधी जी तो स्वतंत्रता के केवल एक वर्ष के भीतर इस दुनिया से चले गए। परंतु धरना- प्रदर्शन और आंदोलन करने वालों की एक ऐसी फौज छोड़ गए कि भारत वर्ष इस आंदोलन के ‘पाप’ से मुक्त ही नहीं हो पाता है। अरे, अभी यह कोई पुरानी बात नहीं है। अपने को गांधीवादी बताने वाले अन्ना हजारे ने सन 2012 में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ दिया। साहब, उनके आंदोलन के सहयोग में सारे देश से एक अपार जनसमूह दिल्ली के रामलीला मैदान में उमड़ पड़ा। और तो और, अरविंद केजरीवाल अन्ना हजारे के मंच पर खड़े होकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे। एक अकेले अरविंद केजरीवाल ही क्या, देश की बड़ी-बड़ी संस्थाएं अन्ना आंदोलन से जुड़ गईं। और तो और, उस समय विश्वहिंदू परिषद के कद्दावर नेता अशोक सिंघल ने अन्ना आंदोलनकारियों के लिए रामलीला मैदान में भंडारा खोल दिया जिसके जरिये हजारों आदमियों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था कर डाली। केवल इतना ही नहीं, जब आंदोलन सफल हो गया तो आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने स्वयं यह घोषणा की कि दिल्ली में अन्ना आंदोलन के लिए भीड़ जुटाने में संघ के स्वयंसेवकों ने मुख्य भूमिका निभाई। अब पता नहीं कि मोदी जी के ‘न्यू इंडिया’ में अन्ना हजारे, अशोक सिंघल और मोहन भागवत-जैसे गणमान्य व्यक्तियों को भी ‘आंदोलनजीवी’ और ‘दीमक’ जैसी पदवी से सम्मानित किया जाएगा या नहीं!
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अरे, वे सब तो परिवार के लोग हैं, उनके लिए अलग ही नियम हैं। क्योंकि यदि विश्वहिंदू परिषद (विहिप) जैसे संगठनको ‘आंदोलनजीवी’ कहा गया तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। कारण यह है कि विहिप तो अयोध्या आंदोलन से जुड़ा था। इसी विहिप की छत्रछाया में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आंदोलन से देश ‘जय श्रीराम’ और ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारों से गूंज उठा। केवल इतना ही नहीं, अंततः भारतीय जनता पार्टी संपूर्ण रूप से इस ‘राम आंदोलन’ से जुड़ गई। हमारे जैसे दर्जनों पत्रकारों को अभी भी याद है कि इस आंदोलन में लाल कृष्ण आडवाणी ने 1990 के दशक में कैसे देशभर को राममय कर दिया था। उनकी रथ यात्रा ने एक नया इतिहास रचा। देश में हिंदू- मुस्लिम दंगे भड़क उठे। अंततः एक उत्तेजित हिंदू भीड़ ने कार सेवकों के रूप में 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दी। संघ और बीजेपी गौरव से इस आंदोलन को राम आंदोलन कहती है। परंतु इस आंदोलन के नायक माननीय आडवाणी को भी इस ‘न्यू इंडिया’ में ‘आंदोलनजीवी’ की संज्ञा दी जाएगी या नहीं, मुझे पता नहीं। हां, इतना तो हम-आप जानते ही हैं कि मोदी के ‘न्यूइंडिया’ में आडवाणी जी को पूछ ही कौन रहा है। अतः उनको भी किसी ऐरे-गैरे ने ‘आंदोलनजीवी’ कह भी दिया तो कौन-सा आसमान सर पर टूट पड़ेगा। यह मोदी जी का ‘न्यू इंडिया’ है, इसमें आडवाणी जी की क्या पूछ!
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मोदी अब आंदोलनकारियों को भले ही कोई भी संज्ञा दें परंतु सत्य तो यही है कि 1970 के दशक से अब तक संघ और बीजेपी- दोनों ही देश में होने वाले सभी सरकार विरोधी बड़े जन आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। 1970 के दशक में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो ऐतिहासिक आंदोलन चला, उसमें संघ की भूमिका बहुत बड़ी थी। उसी आंदोलन के कांधों पर सवार होकर सन 1977 में केंद्र में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी। इस सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी-जैसे संघ में रहे नेता देश में पहली बार मंत्री बने। फिर 1980 के दशक में चलने वाले बोफोर्स तोप विरोधी आंदोलन को कौन भूल सकता है। इस आंदोलन का नेतृत्व भले ही विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया हो परंतु इस आंदोलन को संगठनात्मक ताकत संघ और बीजेपी ने ही दी थी। तब ही तो अटल और आडवाणी इस आंदोलन में अग्रिम पंक्ति में थे। इसी आंदोलन ने बीजेपी को बीजेपी बना दिया। 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार बीजेपी को 80 से अधिक सीटें प्राप्त हुईं। वह दिन और आज का दिन-बीजेपी ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। क्या इस ‘न्यू इंडिया’ में बोफोर्स तोप विरोधी आंदोलनकारियों को भी ‘आंदोलनजीवी’ कह कर याद किया जाएगा।
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सत्य तो यही है कि1970 के दशक से 2012 तक होने वाले हर बड़े आंदोलन में बीजेपी और संघ आगे-आगे रहे हैं। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी को आज जो उन्नति और प्रगति प्राप्त है, वह उसको देश में होने वाले बड़े आंदोलनों के कारण ही प्राप्त हुई है। तो अब किसान आंदोलन से इतना परहेज क्यों! क्या सत्ता में आने के बाद किसी राजनीतिक दल के माप दंड लोकतंत्र के संबंध में बदलने चाहिए? यह बात तो नहीं स्वीकार की जा सकती है। लेकिन मोदी के ‘न्यू इंडिया’ में हर मान्यता और परंपरा को नए ढंग से देखा जा रहा है। ऐसे में यदि आंदोलनकारियों को ‘आंदोलनजीवी’ की संज्ञा दी जाए तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। परंतु यह संघ का नहीं, गांधी का निर्मित देश है। इस देश में यदि धरना- प्रदर्शन और शांतिपूर्ण आंदोलनों पर रोक लगी तो देश सन 1977 के समान एक नई करवट ले सकता है।
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