आज भारतवर्ष को लॉकडाउन हुए चौथा दिन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही देश में तालाबंदी की घोषणा की वैसे ही जनता ने उसको दिलो जान से स्वीकार कर लिया। प्रधानमंत्री के भाषण के तुरंत बाद लगभग सब ही लोग घरों से निकल पड़े। सबने दो-चार दिन या सप्ताह भर के लिए जरूरी सामान की खरीदारी की और दूसरी सुबह सड़कें ऐसी सन्नाटा थीं कि परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। स्पष्ट था कि जनता ने सरकार को कोरोना वायरस के विरुद्ध युद्ध में अपना सहयोग देने को राजी थी। लेकिन, देश की तालाबंदी के दो दिन के अंदर कुछ-कुछ बेचैनी दिखने लगी। तुरंत यह चर्चा शुरु हो गई कि लॉकडाउन की परिस्थिति में उन करोड़ों लोगों का क्या होगा जो रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। जब हर कारोबार ठप है, तो यह खतरा पैदा हो गया कि रोजमर्रा की दिहाड़ी पर जीने वाला मजदूर, रिक्शेवाला, रेहड़ी वाला आदि करोडों लोगों की रोजी-रोटी कैसे चलेगी।
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अभी चर्चा चल ही रही थी कि प्रधानमंत्री ने दूसरे ही रोज फिर देश को संबोधित किया हर वर्ग के लिए एक पैकेज का ऐलान किया। देशवासियों को उम्मीद जगी कि चलो तालाबंदी में किसी प्रकार सरकार ने कमसे कम पेट पालने की व्यवस्था तो कर दी।
लेकिन लॉकडाउन की तीसरी शाम से जनता के सब्र का पैमाना छलक उठा। देश की राजधानी दिल्ली में शाम होते-होते हजारों लोग सीमा पर पहुंच गए। यह सारे के सारे रोजमर्रा कमा कर खाने वाले लोग थे। वे पैदल ही कई किलोमीटर तक चलकर बॉर्डर तक पहुंचे थे और इसी प्रकार सैकड़ों मील का पैदल चलकर किसी तरह अपने-अपने गांव-शहर जाने की कोशिश कर रहे थे।
उनसे पत्रकारों ने सवाल किया कि वे इस तरह कोरोना वायरस जैसी भीषण बीमारी का खतरा मोल लेकर अपने घरों से क्यों निकल पड़े। उनका सीधा जवाब था, हम कोरोना वायरस से तो मर सकते हैं, लेकिन भूख से मरना गवारा नहीं। बिना कामकाज दिल्ली में भूखों मरने से अच्छा है कि सैकड़ों मील दूर पैदल चलकर अपने गांव पहुंच जाएं, वहां कुछ नहीं तो दाल-रोटी तो नसीब होगी।
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दिल्ली और ऐसी ही जगहों से मजदूर वर्ग की बहुत महानगरों से पलायन की खबरों से साफ था कि सरकार ने तालाबंदी और उससे निपटने की लंबी चौड़ी घोषणाएं तो कर दीं, लेकिन कोरोना वायरस जैसे महाकाल से निपटने की कोई जमीनी तैयारी नहीं की। बस सरकार ने केवल भाषण ही भाषण दिया, जनता के राशन पानी की कोई व्यवस्था नहीं की। और होती भी कैसे?
कोरोना वायरस आपदा पड़ोस में तीन माह पूर्व शुरु हुई। चीन में हजारों लोग मर गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया। परंतु मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। आखिर मौत का खतरा हमारे आपके घरों का दरवाजा खटखटाने लगा तो मोदी जी जागे और राष्ट्र को संबोधित किया। जनता कर्फ्यू लगाया और फिर सो गए। पहले संदेश में मोदी जी ने इस आपदा से निपटने की सारी जिम्मेदारी जनता के सिर कर दी। सोशल डिस्टेंसिंग पर लंबा चौड़ा भाषण देकर जनता को तीन सप्ताह तक घरों में कैद रहने का ऐलान कर दिया। फिर प्रधानमंत्री को सोते-सोते ध्यान आया कि पैकेज की घोषणा भी होनी चाहिए, सो वह ऐलान भी हो गया।
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परंतु लॉकडाउन के चौथे दिन तक सारी जिम्मेदारी जनता की ही रही थी। सरकार क्या कर रही थी, इसका कोई पता-ठिकाना नहीं था। घोषणाएं बहुत हैं, पंरतु अभी तक जनता को कोई राहत नहीं पहुंची है। दिल्ली का यह हाल नहीं होता, लोग कोरोना वायरस का खतरा उठाकर पैदल ही सैकड़ो मील दूर अपने घरों के लिए नहीं निकल पड़ते।
यह तो हाल है उस जगह का जहां दो सरकारें हैं, एक केंद्र सरकार जिसके मुखिया नरेंद्र मोदी हैं और एक है दिल्ली सरकार जिसके मुखिया अरविंद केजरीवाल हैं। एक ने तो करीब 6 साल पहले वादा किया था कि वह विदेशों में जमा काला धन लाकर हर किसी के बैंक खाते में 15 लाख रुपए डालेगा। पंद्रह लाख तो दूर, नोटबंदी कर ऐसा कर दिया कि बैंक में रखा हर किसी का अपना ही पैसा फंस कर रह गया।
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केजरीवाल ने अभी भाषण दिया था कि उनकी सरकार घर-घर राशन पहुंचाएगी, पर हकीकत क्या है, वह साफ है। स्पष्ट है कि जनता के न तो मोदी सरकार की तरफ से. न ही केजरीवाल सरकार की तरफ से किसी राहत की उम्मीद बची। ऐसे में बेचारी जनाता सरों पर अपना थोड़ा बहुत सामान लादे दिल्ली छोड़कर अपने-अपने गांव-शहर की तरफ कूच कर चुकी है।
यह हालत तो देशबंदी के चौथे दिन है, अब देखिए, आगे-आगे होता है क्या!
(ज़फ़र आग़ा नेशनल हेरल्ड, नवजीवन, कौमी आवाज़ के एडिटर इन चीफ हैं)
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