कभी मध्य प्रदेश के आदिवासियों के बीच काम करने वाले समाजसेवी बी.डी. शर्मा ने कहा था कि भारत के दो हिस्से हैं: एक इंडिया जिसमें संपन्न लोग बसते हैं, दूसरा, हिंदुस्तनवा जहां उतने या उससे ज़्यादा ही लोग बसते हैं। एक ही भूभाग के ये दो हिस्से एक दूसरे की बाबत लगभग न के बराबर जानते हैं। कोविड महामारी ने इस कठोर सचाई को दोबारा निर्ममता से उघाड़ दिया है। महामारी के पहले हमले से जूझने के दौरान जैसे-जैसे लॉकडाउन खुल रहा है, हम देख रहे हैं कि इंडिया और हिंदुस्तनवा- दोनों जगह हमारा समाज शरीर ही नहीं, मन से भी बेतरह बीमार और अवसाद ग्रस्त हो चुका है।
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ऐसा नहीं कि मनोरोग की दुनिया भारत के लिए नई हो। पर इससे हमारे यहां एक तरह का कलंक जुड़ा है। मनोरोगों के हर किस्म के पीड़ित पर मोटे तौर पर पागल का बिल्ला लगाकर स्वजन उनको तब तक छिपाते रहते हैं जब तक स्थिति हाथ से बाहर न हो जाए। गांव-जवार में तब अक्सर झाड़-फूंक, जादू –टोने, तर-ताबीज या बालाजी की परिक्रमा मनौती की शरण ली जाती है। और शहरों में भी शायद ही कुछ पढ़े-लिखे संपन्न घरों के परिवारजन अपने मनोरोगी सदस्यों की बीमारी की गंभीरता या उसका डॉक्टरी इलाज कराने की ज़रूरत समय रहते स्वीकार करते हैं, रोगी के लिए मनोचिकित्सक खोज कर ढंग से उसका इलाज कराते हैं। इसी वजह से शरीर के रोगों के लिए तो चिकित्सक मिल जाते हैं, पर प्रशिक्षित मनोरोग चिकित्सकों की हमारे यहां भारी कमी रही है। ऐसे डॉक्टर कम हैं जो मनोरोगों के अलग-अलग प्रकारों और मानसिक रोगियों का रोग विशेष के हिसाब से एलोपैथिक दवाओं से उपचार कर सकते हों। आपको यह जानकर अचरज होगा कि इस समय हमारे देश में सवा सौ करोड़ की आबादी के लिए सिर्फ 50 हज़ार प्रशिक्षित मनोचिकित्सक हैं। अधिकतर जिनसे आज हमारे मनोरोगियों के घरवाले संपर्क करते हैं, परामर्शदाता (साइकोएनैलिस्ट) या न्यूरो रोगों के विशेषज्ञ होते हैं।
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मानसिक रोग के अकथनीय दर्द का हद से बढ़ जाना आज हमारे यहां लगातार आत्महत्या करने वालों की संख्या बढने लगी है। अचरज नहीं कि इस बढ़ते ग्राफ को देखकर 2012 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को दक्षिण पूर्व एशिया की स्यूसाइड राजधानी का नाम दिया। 2015 में भारत में मानसिक स्वास्थ्य के जाने-माने जर्नल- दि इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री, ने बताया किएक दशक के भीतर ही भारत में आत्महत्याओं की तादाद 4.8 से बढकर 5.9 हो गई थी। इससे भी डरावनी सचाई यह कि इसमें ग्रामीण किसानों, मजदूरों से लेकर शहरी मलिन बस्तियों के गरीब और अमीर वर्ग, सबके बीच सबसे बड़ी तादाद 15-40 के आयु वर्ग के लोगों (65 फीसदी) की थी। यह वह वर्ग है जिस पर 2016 की नोटबंदी और 2020 की तालाबंदी का सबसे भारी झटका पड़ा है। एक तरफ स्कूल-कॉलेज की बढ़ती फीस, प्रवेश परीक्षाओं और कट ऑफ की चिंताएं, तो काम पर लगे हुए या काम के क्षेत्र में उतरे युवाओं के सामने सिकुड़ते रोजगार, लोन लेकर नया काम शुरू करने के मौकों और विदेश जाने के इच्छुक कामकाजी वीजा ए-1 पाने की धूमिल होती संभावनाएं-जैसी समस्याएं हैं। इन सबने और फिर तमाम चिंताओं के बीच चार महीने तक घर के भीतर जबरन बंद होने की बाध्यता ने मनोरोगों की एक बहुत बड़ी लहर बना दी है। इसका ताजा प्रमाण है दिल्ली में एम्स सरीखे नामचीन संस्थान के एक होनहार 25 साल के युवा मनोरोग चिकित्सक डॉ. अनुराग कुमार द्वारा आत्महत्या।
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साल 2020 की शुरुआत ही डॉक्टरी पेशे से जुड़े लोगों के लिए तनाव और चुनौतियां लेकर आई। कोविड के आने से ठीक पहले तक हमारे सभी वैज्ञानिक, चिकित्सा संस्थान और यहां तक कि खुद डॉक्टर भी इस महारोग के कारण, निदान, उपचार और नियंत्रण की सचाइयों से लगभग नावाकिफ थे। पर तनाव हर कहीं झलकने लगा था। जनवरी में ही कोल्हापुर की एक युवा नर्स द्वारा फांसी लगाने की खबर आई थी जो अवसादग्रस्त चल रही थी। फिर आईआईटी, कई और नामचीन संस्थानों से भी छात्रों के बड़ी तादाद में मनोरोग ग्रस्त होने और कुछ के द्वारा आत्महत्या करने के मामले रोज मीडिया में आने लगे। हालात की गंभीरता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि जब जून के अंत में तालाबंदी खुलनी शुरू हुई तब से अब तक हर जाति धर्म, आयु और आय वर्ग के बीच से आत्महत्या करने और गंभीर अवसाद से जूझते लोगों की तादाद में भारी बढ़ोतरी देखी जा रही है। भोपाल में 28 दिन में ही 41 आत्महत्या के मामले दर्ज हुए जबकि मोहाली में 33।
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डॉ. अनुराग कुमार के लिए बताया जाता है कि वह बाहर से तो सामान्य नजर आते थे और अपने दोस्तों, प्रोफेसरों और मरीज़ों के बीच काफी संयत सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार के लिए जाने जाते थे। लेकिन उनके भीतर अवसाद के गंभीर रोग की जड़ें गहरी होती जा रही थीं। इसे सबसे पहले खुद पहचान कर वह दो बार बाकायदा उपचार के लिए एम्स के ही मनोरोग विभाग में भर्ती हुए। इससे उनको फायदा भी हुआ। लेकिन यह रोग इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ता। आत्महत्या से पहले उन्होंने अपनी मानसिक कशमकश पर एक बहुत मार्मिक ब्लॉग लिखा, जिसमें एक मनोरोगी और चिकित्सक- दोनों के नज़रिये से उन्होंने यह साफ चित्रण किया कि अवसाद के गंभीर मनोरोग से गुजरना कैसा तकलीफदेह होता है:
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इम्तिहान खत्म होने के बाद मुझे भीतर मन बुझा-बुझा सा लगने लगा था। दिसंबर तक मेरी इंटर्नशिप भी पूरी हो गई थी। इसके बाद मुझे लगा कि मेरा अवसाद बोरियत की वजह से होगा। मेरी मां मेरे लिए भारी संबल रहीं और मैं ध्यान और शारीरिक वर्ज़िश सब यथावत करता रहा। कुछ समय बाद वे भी मुझको भारी और उबाऊ लगने लगीं। जनवरी में जब डॉक्टर बनकर विभाग में ज्वाइन किया तो मन बड़ा प्रफुल्लित था। डिपार्टमेंट ने भी पूरी मदद दी और बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध कराईं। फिर भी मनोदशा गिरती गई। फरवरी तक मुझे हताशा ने फिर बुरी तरह घेर लिया और मैं नेट पर जाकर आत्महत्या के तरीके तक खोजने लगा। जांच करने पर मुझमें गहन अवसाद पाया गया और मुझे आइसोलेशन वार्ड में रखकर वाजिब दवाओं से मेरा बाकायदा उपचार भी तुरत शुरू कर दिया गया। 22 फरवरी को मैं रिलीज़ हुआ और मुझे घर पर आराम की सलाह दी गई। पर दोबारा वापस आना पड़ा। ऐसे क्लिनिकल अवसाद का कोई खास कारक भी नहीं होता। यह एक शारीरिक रोग है और इसका उपचार सही मात्रा में सही दवा से ही संभव होता है। इस बीच कोविड की वजह से ओपीडी में मरीजों की तादाद भी कम होती गई, काम कम हुआ तो फिर वही (यह ब्लॉग ‘मीडियम’ साइट पर 11 जून, 2020 यानी मृत्यु से एक महीने पहले पोस्ट किया गया)
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हममें से कई को डॉ. अनुराग कुमार की बीमारी एक विरोधाभासी गुत्थी लगेगी: उसके भीतर एक युवा, कुशल मनोरोग चिकित्सक, बेहतरीन छात्र है, पर दूसरी तरफ हताशा और अवसाद से मारा जीवन का अंत के तरीके खोजता व्यक्ति भी! पर यह ब्लॉग शायद इस भीषण रोग से पीड़ित व्यक्ति के भीतरी संसार का एक कुशल वैज्ञानिक खाका हमारे सामने ला रहा है। इसकी यातना और दारुण अंत की संभावना को हम और हमारा राज-समाज अक्सर देखकर भी अनदेखा कर देते हैं जबकि कैंसर, तपेदिक या लिवर या किडनी के रोग से ग्रस्त बीमार के लिए हम तुरत सहानुभूति, चिंता से सही डॉक्टरी परामर्श की फिक्र करने लगते हैं।
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हमारे घरों में अवसाद को अक्सर गुमसुम हो जाने या खोए-खोए रहने की संज्ञा देकर टाला जाता रहता है या इसे किशोर के युवा होने की प्रक्रिया का एक रूमानी हिस्सा माना जाता है। महिलाओं में यह रोग पुरुषों से अधिक पाया जाता है, पर हमारे परिवारों की चिंता की फेहरिस्त में उनको सबसे नीचे रखा जाता है। बस, यही कहकर टाल दिया जाता है कि वह हर बात ज़रूरत से ज़्यादा दिल पर ले लेती है यार, बसरोती रहती है हर पल। औरत ज़ात जो है!
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लड़कियों के गंभीर अवसाद को परिवार खासतौर से छुपाते हैं कि इसकी जानकारी उसकी शादी में बाधा बन जाएगी। इससे स्थिति बिगड़ती जाती है, खासकर जब कोविड, तालाबंदी, नौकरियों की छंटनी और बेरोजगारी से पलायन आम बनता जा रहा हो। अचरज नहीं कि हर दिन हमारे अखबार गांव में शहर से बेरोजगार होकर लौटे युवाओं या लड़कियों की आत्महत्याया सारे परिवार की सामूहिक आत्महत्या की खबरें दे रहे हैं।
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मानसिक रुग्णता की बाबत ऐसी खबरें भारत ही नहीं, कोविड की मार से अकबका गए दुनिया के हर देश से आ रही हैं। इस दूसरे महारोग की सही रोकथाम का पहला चरण है कि हम इसकी गंभीरता, व्यापकता और दुष्परिणामों को स्वीकार कर उनपर गंभीर खुली चर्चा करें। दूसरा चरण यह कि इस रोग के विशेषज्ञों और मनोरोगियों तथा उनके परिजनों को ऑनलाइन या ओपीडी की मार्फत परामर्श तथा सही दवाएं देने वालों और मनोरोग चिकित्सा केंद्रों और उप शाखाओं की तादाद बढ़ाई जाए। गांवों की प्राथमिक चिकित्सा और वहां काम करने वालों को भी इसकी पहचान, परामर्श तथा सही समयपर मरीज को हस्पताली उपचार के लिए रेफर करना वैसे ही सिखाया जाए जैसे गर्भवती महिलाओं की बाबत आशा दीदियों को एक हद तक सिखाकर हम उनकी मृत्युदर में कमी ल सके हैं।
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परिवारों को अपने मनोरोगी सदस्यों के बारे में उसी तरह अब खुलकर बोलना होगा और मुक्त भोगी मित्रों के साथ मिलकर सहायता समूह गठित करने होंगे जैसे ऑटिज़्म, स्तन कैंसर या अल्ज़हाइमर जैसे कई अन्य रोगों से पीड़ितों के परिजनों ने बना रखे हैं। उच्च रक्तचाप की ही तरह क्लिनिकल अवसाद एक खामोश हत्यारा है। इसका उपचार आजीवन चलने वाला है, पर यह रोग असाध्य नहीं। विदेशों में कई ऐसे लोग हर कहीं मिल जाते हैं जिनको यह रोग है और वे जब कहीं भी जाएं, टूर पर या सम्मेलन या नई नौकरी पर, वे यह बताने से नहीं झिझकते कि वे इसकी क्या दवा कितनी बार लेते हैं। आज चिकित्सा शास्त्र बहुत तरक्की कर चुका है और मूड को शांत या प्रोत्साहित कर सकने वाली अनेक दवाएं ईजाद कर ली गई हैं जिनके नियमित सेवन से अवसाद के रोगी एकदम नॉर्मल जीवन जी सकते हैं। कोविड ने हमको बुरी तरह क्षत-विक्षत किया है तो अपने घर-परिवार, राज-समाज और चिकित्सा संस्थानों की बाबत नए सिरे से सोचने को भी बाध्य किया है। सूचना संचार क्रांति इस कठिन समय में भी हमको हर तकलीफ की घड़ी में तुरत संपर्क कर मेडिकल मदद और उपचार मुहैया कराने में सहायक साबित हुई है। इसलिए यह समय उदासी में डूबने की बजाय नए तरह से अपने तन और मन की गहराइयों से साक्षात्कार करने का है।
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