हिंदी के जाने-माने कवि धूमिल ने कभी एक चुभता हुआ सवाल पूछा था, ‘क्या आजादी सिर्फ तीन रंगों का नाम है जिसे एक थका हुआ पहिया ढोता है?’
आज की तारीख में भारतीय लोकतंत्र, खासकर उसके युवा नागरिकों के लिए यह सवाल बहुत मार्मिक और प्रासंगिक है। शासन खुद को कितना बड़ा फन्ने खां क्यों न समझे, वह किसी भी जिंदादिल युवा लोकतंत्र को उसके वर्तमान से काटकर थोक के भाव किसी अनदेखे मिथकीय अतीत का हूबहू जुड़वां नहीं बना सकता। धूमिल ने सही कहा था कि सचमुच की आजादी का मतलब सिर्फ एक तिरंगे और उसे जैसे-तैसे ढो रहे अशोक चक्रतक सीमित नहीं होता।
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धूमिल की यह पंक्ति हम आज इसलिए भी दोहराना जरूरी समझते हैं कि स्वतंत्रता दिवस के ठीक दस दिन पहले हमने अयोध्या में 2020 के भारत को त्रेता युग का भारत बनाने का एक हैरतअंगेज प्रयास शुरू होता देखा। क्या यह अटपटा नहीं कि हमारे नेता एक तरफ तो भारत को विश्वगुरु, ग्लोबल महाशक्ति आदि बनाने की बात करते हैं, पर दूसरी तरफ क्या होता है? महामारी, सीमा पर चीनी जमावड़े, पड़ोसी देशों से बिगड़ते रिश्तों और ढहती अर्थव्यवस्था में सुधार पर जुटने की बजाय सूबे की मीडिया की सारी ताकत सरयू तट पर 2020 के लोकतांत्रिक भारत को उस त्रेता युग की अविकल परछाई बना कर टीवी पर्दों पर उतारने में जुटी दिखती है जिसकी बाबत हमारे पास बस मौखिक साक्ष्यों की एक लंबी लिस्ट है?
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माजरा क्या है? जब कोई भारत को विश्व की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी, सबसे युवा शक्ति से लबलबाता राष्ट्र घोषित कर छप्पन इंच का सीना साठ का कर ले, तो भी दुनिया के मीडिया की नजरों में, हमारे लोकतंत्र की छवि तमाम तरह के जातीय-धार्मिक भेदभावों से भरी, प्रतिगामी, आर्थिक तौर से डगमग और आक्रामक पड़ोसी देशों से घिरे लोकतंत्र की ही दिखती रहती है। और जब आज के मिलेनियल युवा भारत को आत्मनिर्भर बनने का नारा दिया जाता है तो उसका क्या मतलब होता है? कि नेतृत्व को हिंदुत्व की जो अवधारणा मान्य है, उसी की परंपरा को वे कर्मठता से आधुनिक बना कर देश-दुनिया के सामने लाएं? पर कोविड की रोकथाम के सीमित से क्षेत्र में भी जब इस किसम के गड़बड़झाला निर्देशों के तहत काम होता है, तो अक्सर नतीजे पतंजलि की कोरोनिल दवा, गिलोय के रस या भाभीजी के पापड़ों तलक ही जाते हैं। विडंबना यह कि इस संगीन समय में इस किसम की आधुनिकता के शिखर से सम्मत व्याख्या ने प्रोफेशनल लोगों को एक तरह से चौंकाना बंद कर दिया है।
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दरअसल युगांत के समय ‘आधुनिक’ शब्द जब-जब भारत की राजनीति से टकराया, उसने इतिहास को लेकर हमेशा एक बेढब आत्मविरोध पैदा किया है। पहला विरोध उपजता है धर्मांधता और धर्मनिरपेक्षता के बीच। इसके दर्शन आजादी की बयार चलने की शुरुआत में भारतेंदु की कविता में होते हैं। फिरंगी राज के विरोध में उनके (नीलदेवी) नाटक का पात्र कहता है, ‘अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी, पैधन बिदेस चलिजातय है अतिख्वारी।’ पर फिर वही भारतेंदु यह भी लिखते हैं कि जो आर्य होकर भी यवन प्रेमी हैं, उनको धिक्कार है: ‘धिक तिन कहिं जे आर्य होय यवन नके चाहें।’ सो, भारतेंदु का मन धर्मांध माना जाए या धर्म निरपेक्ष? नए की खोज करने को चलें तो यह साफ दिखता है कि कुछ भी सार्थक नया पुरानी परंपरा से ही उपजेगा। पश्चिम में भी यही हुआ है जहां लोकतंत्रकी मूल अवधारणा चौथी सदी ईसा पूर्व के यूनान से आई है। लेकिन पुरानी परंपरा की समझ समग्र, गहरी और निरंतर भी तो होनी चाहिए। हमारे यहां परंपरा पर जीवंत जिरह करीब हजार बरस स्थगित रही। उसके बाद पच्छिम की हवा में संविधान आधारित लोकतंत्र के साथ भारत में 20वीं सदी की परंपरा, संस्कृति, देशभक्ति और राष्ट्रीयता के कई जटिल सवाल भी उड़कर आए और जड़ पकड़ने लगे। जब हमारे ठहरे हुए राज-समाज के लगभग खुश्क बंजर बौद्धिक वीराने में सदियों बाद इन विचारों की कलमें लगीं, तो अलग-अलग धार्मिक-ऐतिहासिक पहचान के विविध तरह का एक मनोरम संकरित जंगल उगने लगा। जिसे आज हम एक आधुनिक लोकतंत्र कहते हैं, उसके नेताओं का सबसे पहला और सबसे बुनियादी काम है, इस जंगल की विविधता को बुनियादी जरूरत मानकर इसकी समवेत देखभाल करें ताकि यह साल दर साल एक आधुनिक महारण्य में बदलता जाए। आधुनिकता की तरफ जाने की सही शुरुआत समन्वयवादी ही हो सकती है, निर्मम, अज्ञानी काट-छांट की नहीं। दसवीं सदी में मिथिला के प्रखर बौद्धिक नेता उदयनाचार्य अपने दो सदी पहले के जाने-माने कश्मीरी बुजुर्ग नैयायिकों को खस्ताहाल (जर्जर) और खुद को ‘वयं आधुनिका:’ बताते हैं। पर गौर करें, कि वे पुरानों को सिरे से खारिज नहीं करते। वे उनके ज्ञान को अपने समय के सवालों से टक्कर लेने के लिए नाकाफी और सुधार लायक बताते हैं। दुनिया भर में ज्ञान की सही परंपराएं अंधभक्ति अपना कर राजा या बूढ़ों के भय से निष्प्राण पोथियों के बासी ज्ञान को जस का तस स्वीकार करके नहीं, लगातार जायज प्रश्न पूछ कर अपना पक्ष निडरता से धुका कर आधुनिक बनाई गई हैं।
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परंपरा और आधुनिकता के बीच ईमानदार सार्वजनिक टकराहट, बूढ़ों और नई पीढ़ी के बीच प्रश्नों के तीखे तीर चलें, इसके लिए राजनीति और बौद्धिकता- दोनों ही जगह नए ‘वयं आधुनिका:’ की पीढ़ी के लिए हर दिन कुछ अपूर्व नया बनाने की खुली आजादी बहुत जरूरी है। आजाद खयाली की छूट बिना कोई लोकतांत्रिक सभ्यता आगे नहीं बढ़ती। रही बात धर्मनिरपेक्ष आधुनिकता की, वह हमको, मनुष्य को उसके धर्म और जातीय इतिहास से अलग कर परखने का नया नजरिया देती है। राजकाज को धर्मनिरपेक्ष बनाने का विचार यूरोप को हजारों सालों तक हुए जातीय संकरण और सदियों तक चले धर्मयुद्धों के मंथन के बाद मिला। मूल सवाल यह है कि एक आदर्श लोकतंत्र में एक आत्मनिर्भर मनुष्य को कैसा होना चाहिए? सही मायनों में लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य का नागरिकों से रिश्ता क्या कई तरह के निजी, धार्मिक, जातीय आग्रहों के परे एक सामूहिक जन दायरा नहीं बनाया जाना चाहिए? निजी जीवन में सबके लिए अपने जातीय-धार्मिक विचार जीने की एक-सी आजादी हो, तभी देश का लोकतंत्र सही मायनों में एकजुट और समन्वय समृद्ध बनेगा। परंपरा तो एक निष्प्राण मूर्ति है जिसमें मनुष्य प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। उसी जीवंत परंपरा की छाया में हम रहते हैं। उस इतिहास में नहीं, जो पथरा चुका है।
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2020 के भारत का लोकतंत्र जिसकी आजादी की वर्षगांठ हम सामंती ठाठ-बाट से मनाई जाती देख रहे हैं, जड़ से शिखर तक हिंसा, घृणा और लालच से रंगीपुती सभ्यता में बदल रहा है। उपजाऊ जमीन, नदियां, वन, यहां तक कि बहुत कम दिहाड़ी पर काम करने वाले कामगार- सबकी बिक्री को अलिखित आजादी मिलती जा रही है। ऐसे विचित्र दौर में नेतृत्व की एक साथ आधुनिक और त्रेतायुगीन बनने की यह अजीब मिली-जुली चाह हमें इस स्थिति तक ले आई है जहां साफ हवा, पानी, बिना चेहरा ढके बाहर निकल पाना, बच्चों के लिए शिक्षा परिसरों तक आना-जाना, नौकरी के लिए देशभर में मुक्त संचरण और सामाजिक बातचीत सब असंभव बन गए हैं। तोपें छुड़ाकर फूलों की बरसात तले झंडा अभिवादन कर, ‘जनगण मन अधिनायक जय हे’, गाते-गवाते हुए विशिष्ट लोगों की छवि टीवी पर देखते हुए हमको इस गाने के साथ महात्मा गांधी की बात का सही मतलब समझ में आता है कि यह धरती सबकी जरूरतें पूरी कर सकती है, पर किसी एक का लालच नहीं।
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