क्या भारत की सड़कों-गलियों में अकेली महिलाएं सुरक्षित हैं और क्या उन्हें अपनी सुरक्षा को लेकर लगातार खतरा और डर महसूस होता है? यह जानने के लिए मैंने यह सवाल 50 पुरुषों से किया, जिन्होंने आश्वस्त किया कि महिलाएं सुरक्षित महसूस करती हैं और कोई समस्या नहीं है। निस्संदेह पुरुषों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि क्या वास्तव में ऐसा ही है, उन्होंने खुद कभी भी इस स्थिति का सामना नहीं किया है। तो फिर हमें किससे पूछना चाहिए कि क्या महिलाएं सुरक्षित महसूस करती हैं? निश्चित रूप से महिलाओं से ही पूछा जाना चाहिए।
पूरी दुनिया आज इस बात से चिंतित है कि भारत में नरसंहार के आह्वान किए जा रहे हैं और उन्हें प्रोत्साहित किया जार रहा है। दुनिया के सबसे सम्मानित अंग्रेजी प्रकाशन, द इकोनॉमिस्ट ने अपने 15 जनवरी के संस्करण में एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था: "प्लेइंग विद फायर: इंडियाज़ गवर्न्मेंट इज इग्नोरिंग एंड समटाम इनकरेजिंग हेटरेड ऑफ माइनॉरिटीज (भारत की सरकार अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती नफरत को अनदेखा कर रही है, और कई बार इसे प्रोत्साहित भी कर रही है।)" उसी दिन सीएनएन ने स्टोरी दिखाई, जिसका शीर्षक था: " भारत के हिंदू चरमपंथी मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार का आह्वान कर रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए कुछ क्या क्यों नहीं जा रहा है?"
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इससे कुछ दिन पहले न्यूयॉर्क टाइम्स की हेडलाइन थी: 'हिंदू चरमपंथियों द्वारा मुसलमानों की हत्या का आह्वान, भारत के नेता चुप'। लंदन में टाइम्स की हेडलाइन थी 'मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं की हेट स्पीच पर वकीलों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा'। टाइम पत्रिका ने एक लेख में लिखा: 'क्या भारत मुस्लिम विरोधी नरसंहार की ओर अग्रसर है?'
मैं ऐसी तमाम हेडलाइन लिख सकता हूं, लेकिन यह जानने के लिए कि हमारे बारे में दुनिया क्या कह रही है, शायद इतना ही काफी है। ये सारी रिपोर्ट्स महज विचार या ओनपीनियन नहीं है। इनमें हाल के दिनों मे भारत में ईसाइयों और मुसलमानों पर हुए हमलों और सरकार की निष्क्रियता का जिक्र है। जब पूरी दुनिया ने इस पर चिंता जताते हुए चेतावनी जारी की तो कहीं जाकर उस हरिद्वार हेट कॉन्क्लेव को लेकर एफआईआर दर्ज की गई जिसमें खुलेऐम मुसलमानों की सामूहिक हत्या का आह्वान किया गया था। एफआईआर दर्ज होने के बाद भी गिरफ्तारियों को लेकर ढुलमुल रवैया रहा और सिर्फ बाहरी दबाव के बाद ही हरकत हुई।
सरकार ने इस आरोप को खारिज कर दिया है कि वह हिंसा को बढ़ावा दे रही है और यह स्वीकार करने को चैयार नहीं है कि हिंदुत्व और बीजेपी के शासन मुसलमानों की सुरक्षा में कमी आई है या उन पर खतरा बढ़ा है। सवाल यह है कि क्या यह सच है और इसका जवाब जानने के लिए हमें उन लोगों से ही पूछना होगा जो खुद को खतरे में और असुरक्षित महसूस करते हैं। न कि उनसे जो बाकी दुनिया के अनुसार, इस सबको कर रहे हैं या प्रोत्साहित कर रहे हैं। यह जानने के लिए कि क्या मुसलमान चिंतित हैं और डरते हैं, हमें मुसलमानों से ही पूछना होगा। और चूंकि मेरे जानने वाले मुसलमान हैं इसलिए मैं आपको बता सकता हूं कि हमने जो किया है और हमारे देश के लिए कर रहे हैं, उसके बारे में वे चिंतित और डरे हुए हैं। और उनके पास चिंतित होने के कारण भी हैं और वे कारण हमने ही उन्हें दिए हैं।
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आज की तारीख में मुसलानों के खिलाफ कोई भी अभद्र बात बिना किसी शर्म या सजा के खौफ के कही जा सकती है। और सजा का डर न होना इस बात से आता है क्योंकि सत्ताधारी पार्टी के अल्पसंख्यकों को लेकर जो विचार हैं उन्हें छिपाने का वह ढोंग नहीं करती है। और शर्म न होने की बात इससे सामने आती है कि हमने भारतीय समाज को बेहद असंवेदनशील बना दिया है। अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से मुसलमानों का हमारे द्वारा दानवीकरण और अमानवीयकरण इतना पूर्ण हो चुका है कि मुस्लिम लड़कियों के अपहरण और यौन हिंसा के आह्वान आज हमारे समाज में स्वीकार्य हैं और सार्वजनिक स्थानों पर किए जा सकते हैं।
हमने भारत को अंदरूनी और बाहरी तौर पर जो नुकसान पहुंचाया है वह लंबे समय तक स्थाई रहेगा। ऐसा इसलिए भी क्योंकि दुनिया इसके बारे में सिर्फ इसलिए बात करना बंद नहीं करेगी क्योंकि हमने इसका खंडन किया है, और जो हो रहा है वह जारी रहेगा क्योंकि सत्ताधारी दल इसे अपने राजनीतिक हित में देखता है।
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देश के अटॉर्नी जनरल ने एक कथित हिंदू संत के खिलाफ अदालत की अवमानना का मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है। उन्होंने कहा, "मैंने पाया है कि यति नरसिंहानंद द्वारा दिया गया यह बयान कि 'जो लोग इस सिस्टम में, इन राजनेताओं में, सर्वोच्च न्यायालय में और सेना में विश्वास करते हैं, सभी एक कुत्ते की मौत मरेंगे', यह बयान आम लोगों के मन मस्तिष्क में सुप्रीम कोरेट के अधिकार को कम करने की सीधी कोशिश है।” अटॉर्नी जनरल ने यह बात एक एक्टिविस्ट की याचिका के बाद उनके विचार जानने के लिए पूछे गए नोटिस के जवाब में कही। आखिर ऐसा कुछ सरकार ने खुद क्यों नहीं किया? इसका उत्तर इस बात को प्रतिबिंबित करने में है कि बाहरी दुनिया हमारे बारे में क्या कह रही है। और यह बात कि केंद्र सरकार और सत्ताधारी दल सार्वजनिक रूप से किए जाने वाले ऐसे आह्वान प्रति उदासीन हैं। मैं तीन दशक से लिख रहा हूं लेकिन ऐसा समय मैंने कभी नहीं देखा जब सार्वजनिक रूप से जो कुछ कहा जा रहा है उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। मैंने देखा है, और हममे से बहुत से लोगों ने देखा है कि हमारे शहरों में क्या हुआ है जब समुदायों के खिलाफ हिंसा हुई है।
हम बहुत ही खतरनाक दौर में है और दुनिया हमारे लिए चिंतित है। समझदारी यह होगी कि हम उनकी बात सुनें और उस खाई से पीछे हटें जहां हम पहुंच गए हैं। नरसंहार जैसे शब्दों को सुनकर भी खारिज करना सुरक्षित नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से भारत आज यही कर रहा है।
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