हाल में कर्नाटक में दलबदल और विधायकों की खरीद-फरोख्त का खुला खेल हुआ जिसके फलस्वरूप, कांग्रेस-जेडीएस सरकार गिर गई और बीजेपी ने राज्य में सत्ता संभाल ली। सत्ता में आने के बाद, बीजेपी सरकार ने जो सबसे पहला फैसला लिया वह यह था कि राज्य में टीपू सुल्तान की जयंती पर सरकारी आयोजन बंद किए जाएंगे। यह भी तय किया गया कि टीपू सुल्तान की जयंती- 10 नवंबर को ‘काले दिन’ के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन इस मध्यकालीन शासक के विरोध में रैलियां निकाली जाएंगी।
मध्यकालीन इतिहास की अलग-अलग व्याख्याएं की जाती हैं और कई मामलों में एक ही व्यक्ति कुछ समुदायों के लिए नायक और कुछ के लिए खलनायक होता है। टीपू सुल्तान के मामले में स्थिति और भी जटिल है। पहले, हिन्दू राष्ट्रवादी भी टीपू को नायक के रूप में देखते थे। साल 1970 के दशक में, आरएसएस द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं की श्रृंखला ‘भारत भारती’ में टीपू का महिमागान किया गया था। साल 2010 में आयोजित एक रैली में कुछ बीजेपी नेता टीपू के भेष में अपने हाथों में तलवार लिए मंच पर विराजमान थे। देश के वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जो कि आरएसएस की भट्टी में तप कर निकले हैं, ने कुछ ही वर्ष पूर्व टीपू के साहस की प्रशंसा करते हुए कहा था कि टीपू ने उस काल में मिसाइलों का प्रयोग किया था।
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अब, जब कर्नाटक में सांप्रदायिकता ने गहरी जड़ें जमा ली हैं, टीपू को हिन्दू-विरोधी आततायी शासक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। पिछले कुछ समय से कुछ पार्टियां जहां टीपू का इस्तेमाल मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कर रही हैं वहीं बीजेपी हिन्दुओं के वोट हासिल करने के लिए टीपू के दानवीकरण में जुटी है।
लेकिन इस शासक के व्यक्तित्व और कार्यों के बारे में गहराई और निष्पक्षता से पड़ताल करने पर साफ हो जाता है कि टीपू सुल्तान दरअसल, इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या पर आधारित अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का शिकार हुए। सांप्रदायिक तत्व मध्यकालीन इतिहास की चुनिंदा घटनाओं को अनावश्यक महत्व देकर धर्म के आधार पर इस काल के राजाओं को नायक और खलनायक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि सच ये है कि ये सभी राजा केवल अपने साम्राज्य को बचाए रखने और उसका विस्तार करने के लिए प्रयासरत थे और इसी उद्देश्य से उनमें से कुछ ने मंदिर तोड़े तो कुछ ने मंदिरों का संरक्षण किया।
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टीपू सुल्तान, मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे। टीपू को एहसास था कि मुगलों के कमजोर पड़ने से ईस्ट इंडिया कंपनी की राह आसान हो गई है। उन्होंने मराठाओं, रघुनाथ राव पटवर्धन और निजाम से अपील की कि वे अंग्रेजों का साथ न दें। उन्हें एक विदेशी ताकत के देश में जड़ें जमाने के खतरे का एहसास था। उस समय एक तरफ मराठा और टीपू और दूसरी ओर निजाम और टीपू एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे। ये तीनों ही अपने-अपने राज्य का विस्तार करना चाहते थे।
इसी बीच रघुनाथ राव पटवर्धन की सेना ने साल 1791 में मैसूर पर हमला किया और श्रृंगेरी मठ को लूट लिया। यह दिलचस्प है कि टीपू सुल्तान ने कीमती तोहफे भिजवाकर इस मठ का पुनरोद्धार किया। वे श्रृंगेरी मठ के मुख्य ट्रस्टी थे और इस मठ के स्वामी को जगदगुरू कहकर संबोधित करते थे। अपने सैन्य अभियानों के पहले वह हमेशा मठ के स्वामी का आशीर्वाद लिया करते थे।
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इसके साथ ही, यह भी सही है कि उन्होंने वराह मंदिर पर हमला किया था। इसका कारण स्पष्ट था। दरअसल मंदिर का प्रतीक वराह (जंगली सुअर) था जो कि मैसूर राजवंश का भी प्रतीक था। इसी राजवंश को सत्ताच्युत करके टीपू मैसूर के राजा बने थे। तो इस तरह टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ का संरक्षण किया तो वराह मंदिर पर हमला किया। जाहिर है कि वराह मंदिर पर हमले को टीपू के हिन्दू-विरोधी होने का प्रमाण बताया जा सकता है। परंतु उनके निशाने पर हिन्दू धर्म न होकर वह राजवंश था जिसे उन्होंने युद्ध में पराजित किया था। इसी तरह, मराठाओं ने श्रृंगेरी मठ को इसलिए नहीं लूटा था क्योंकि वे हिन्दू धर्म के खिलाफ थे बल्कि इसलिए लूटा क्योंकि उनके निशाने पर टीपू सुल्तान थे।
यह भी कहा जाता है कि टीपू ने फारसी को अपने दरबार की भाषा का दर्जा दिया और कन्नड़ को नजरअंदाज किया। जबकि तथ्य यह है कि उस काल में भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश शासकों के दरबार की भाषा फारसी थी। शिवाजी ने मौलाना हैदर अली को अपने गुप्तचर मामलों का मंत्री इसलिए नियुक्त किया था ताकि वे अन्य राजाओं से फारसी में संवाद कर सकें।
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यह आरोप भी लगाया जाता है कि टीपू ने सैकड़ों ब्राह्मणों का इसलिए कत्ल कर दिया था, क्योंकि उन्होंने मुसलमान बनने से इंकार कर दिया था। यह पूरी तरह से गलत है। इस संदर्भ में हमें यह भी याद रखना चाहिए कि टीपू के प्रमुख सलाहकार एक ब्राह्मण, पुरनैया थे। ये सारे झूठ अंग्रेजों द्वारा फैलाए गए थे क्योंकि टीपू, भारत में उनके राज के विस्तार की राह में चट्टान बनकर खड़े थे।
यह आरोप भी लगाया जाता है कि टीपू ने कुछ हिन्दू और ईसाई समुदायों को प्रताड़ित किया। यह अंशतः सही है। लेकिन उन्होंने इन समुदायों को निशाना इसलिए बनाया क्योंकि वे अंग्रेजों की मदद कर रहे थे, जो कि मैसूर राज्य के हितों के खिलाफ था। टीपू ने मुस्लिम माहदवियों को भी निशाना बनाया क्योंकि वे ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के घुड़सवार दस्ते में भर्ती हो रहे थे। दरअसल यह सब सत्ता का खेल था, जिसका धर्म से कोई वास्ता नहीं था।
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सांप्रदायिक ताकतें, इतिहास का दुरुपयोग अपनी विभाजनकारी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए करती आ रही हैं। महाराष्ट्र के एक शोध अध्येता सरफराज शेख ने अपनी पुस्तक ‘सुल्तान-ए- खुदाद’ में टीपू सुल्तान का घोषणापत्र प्रकाशित किया है। इस घोषणापत्र में टीपू यह घोषणा करते हैं कि वे अपनी प्रजा के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेंगे और अपनी आखिरी सांस तक अपने राज्य की रक्षा करेंगे। और उन्होंने यही किया भी। अंग्रेजों से समझौता करने के बजाए उन्होंने उनसे लड़ते हुए अपनी जान गंवा दी। वे 1799 में चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में मारे गए।
रंगमंच की दुनिया की महान शख्सियत गिरीश कर्नाड ने कहा था कि अगर टीपू हिन्दू होते तो उन्हें कर्नाटक में वही सम्मान और गौरव हासिल होता जो शिवाजी को महाराष्ट्र में है। आज भी मैसूर के गांवों में टीपू की बहादुरी का वर्णन करने वाले लोकगीत प्रचलित हैं।
हमें धर्म के आधार पर इतिहास के नायकों को बांटने से बचना चाहिए। बल्कि मैं तो यह मानता हूं कि हमारे अधिकांश नायक स्वाधीनता संग्राम के वे नेता होने चाहिए, जिन्होंने आज के भारत को आकार दिया। हमें सांप्रदायिक इतिहास लेखन के जाल में नहीं फंसना चाहिए।
(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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