साल भर से ज्यादा हुए, मन बेतरह घायल है। कान यूक्रेन की चीख से गूंजते रहते हैं। अपनी असहायता का तीखा बोध लगातार चुभता रहता है। यह शर्म भी कम नहीं चुभती कि हमारा देश भी नागरिकों की इस जघन्य हत्या में भागीदार है और यूक्रेन और रूस में बहते खून में से तेल छानकर जमा करने में लगा है।
यह सब था ही कि 7 अक्तूबर, 2023 को हमास ने इजरायल पर ऐसा पाशविक हमला कर दिया जिसने शर्म से झुके माथे पर टनों बोझ लाद दिया। शर्म से झुका सिर लगातार झुकता ही जा रहा है क्योंकि यह गुस्सा नहीं, आत्मग्लानि का बोझ है। असहमति, विवाद, गुस्सा, प्रतिद्वंद्विता, बदला, घृणा, कायरता और क्रूरता सबकी अपनी जगह है लेकिन इंसानियत की भी तो जगह है न! सिकुड़ते-सिकुड़ते वह जगह अब सांस लेने लायक भी नहीं बची है।
हमास ने जिस तरह इजरायल पर हमला किया, वह उसकी मूढ़ता, हृदयहीनता और अदूरदर्शिता का प्रमाण है। हमास के शीर्ष राजनीतिक नेता खालिद मशाल ने कहा कि हम ऐसी चोट मारना चाहते थे कि इजरायल बिलबिला जाए; और वही हुआ। लेकिन खालिद को क्या अब यह नहीं दीख रहा कि दोनों तरफ के सामान्य निर्दोष नागरिक बिलबिला रहे हैं? आज उनके साथ कोई नहीं है, सिवाय विनाश और मौत के।
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एक बात यह भी कही जा रही है कि इजरायल और अरब देशों में जैसी आर्थिक नजदीकियां बढ़ रही थीं, उसे तोड़ने के लिए हमास द्वारा यह आत्मघाती कदम उठाया। अब अरबों के लिए इजरायल की तरफ हाथ बढ़ाना संभव नहीं रह जाएगा। यह सच हो, तो भी यह कूटनीति कितनी अमानवीय है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुरंत बयान दे डाला कि भारत इजरायल के साथ खड़ा है। ऐसा कहने का अधिकार उन्हें कैसे मिला? आजादी के पहले से इस विवाद के संदर्भ में भारत की भूमिका स्पष्ट रही है। महात्मा गांधी ने स्वयं इस मामले में हमारी विदेश नीति की बुनियाद रख दी थी। उसे बदलने का अधिकार केवल भारत की जनता को है, किसी भी सरकार को नहीं कि वह अपने खोखले बहुमत के घमंड में राष्ट्रीय नीतियों से खिलवाड़ करे। अब विदेश मंत्रालय दबी-ढकी जुबान में उस पर लीपापोती कर रहा है। उसने बयान दिया है कि भारत हमास की हिंसा का निषेध करता है लेकिन फिलिस्तीनियों की आजादी पर किसी भी तरह के हमले को समर्थन नहीं देता।
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सारा अमेरिकी खेमा पश्चिम के आका मुल्क इजरायल के समर्थन में खड़ा हो गया है, जैसे हमें पता ही नहीं है कि यही वह खेमा है जिसने फिलिस्तीन के सीने पर खंजर की नोक से इजरायल लिखा था। महात्मा गांधी ने तब भी कहा था कि हमें एक-एक यहूदी अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा है लेकिन पश्चिमी शैतानी का सहारा लेकर वे फिलिस्तीनियों के घर में घुस जाएं, इसका हम समर्थन नहीं कर सकते।
1938 में गांधी ने एक विस्तृत आलेख में भारत का रुख साफ कर दिया था कि मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है। मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं। उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनके साथ हुई ज्यादतियों की बाबत जाना है। निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं लेकिन उनसे मेरी गहरी मित्रता भी मुझे न्याय का पक्ष देखने से रोक नहीं सकती और इसलिए यहूदियों की अपने राष्ट्रीय घर की मांग मुझे जंचती नहीं है। इसके लिए बाइबल का आधार खोजा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फिलिस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है लेकिन जैसा संसार में सभी लोग करते हैं, वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जन्मे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें?
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फिलिस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है या कि फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए। आज फिलिस्तीन में जो हो रहा है, उसका कोई नैतिक आधार नहीं है। पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है। गर्वीले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए ताकि पूरा या अधूरा फिलिस्तीन यहूदियों को दिया जा सके, तो यह एकदम अमानवीय कदम होगा। उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जन्मे हैं और कमा-खा रहे हैं, वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो। जैसे फ्रांस में जन्मे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं, वैसे ही फ्रांस में जन्मे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाए।
अमेरिकी और पश्चिमी खेमे की कुल कोशिश यही है कि युद्ध भी हमारी मुट्ठी में रहे और विराम भी। दोनों ही कमाई के अंतहीन अवसर देते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने मौके का फायदा उठाकर इजरायल के राजनीतिक नेतृत्व को अपने साथ ले लिया है। यह घटिया अवसरवादिता है। जब पूरा इजरायल उनके खिलाफ खड़ा था और वे न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में करने का भद्दा खेल खेल रहे थे, तब उनके हाथ ऐसा अवसर आ गया जिसने उन्हें नई बेईमानी का मौका दे दिया। यह पूरी कहानी बेईमानी से ही शुरू हुई थी और बेईमानी से ही आज तक जारी है। यह नया भारत है जो इस बेईमानी में साझेदारी कर रहा है।
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ऐसे में रास्ता क्या है? 5 मई, 1947 को रायटर के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा कि फिलिस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं? गांधी ने कहा, “यह ऐसी समस्या बन गई है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है। अगर मैं यहूदी होता, तो मैं उनसे कहता, ‘ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो। ऐसा करके तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है। अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है, तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है। आखिर, यहूदियों को फिलिस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए? यह महान जाति है। इसके पास महान विरासतें हैं। अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है, तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यहूदियों को आगे बढ़कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमेरिकी, किसी की भी सहायता के बिना यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए।”
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दरअसल, किसी को किसी की विरासत तो संभालनी नहीं है। सबको संभालनी है गद्दी। गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए, “यह एक ऐसी समस्या बन गई है जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है।” गांधी ने जो आशंका प्रकट की थी, उसके करीब 76 साल पूरे होने को हैं लेकिन युद्ध और विराम के बीच पिसते फिलिस्तीनी-इजरायली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं। विश्व की महाशक्तियां और दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं, तो येरुशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी लेकिन सत्य, प्रेम, करुणा के ऐसे रास्ते पर उन्हें कौन चलने देगा?
(कुमार प्रशांत गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। (सप्रेस) )
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