अधिकतर बीजेपी विरोधी और कुछ भाजपाई तक ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में जाने से दुखी हैं। दुखी होना तो मुझे भी खूब आता है, मगर मैं उनसे ही नहीं, पूरी नेता-प्रजाति से दुखी हूं। दुखी इसलिए हूं कि आजादी के सत्तर से ज्यादा साल हो गए लेकिन आज तक मुझे एक भी नेता ऐसा नहीं मिला, जो 'जनता की सेवा' करना न चाहता हो!
हर नेता की आजकल जीवन में केवल एक ही इच्छा होती है- ‘जनता की सेवा’! पता नहीं क्यों ‘सेवा’ करने का यह ‘महान’ जज्बा हममें पैदा नहीं हुआ, ताकि हम भी नेताओं की तरह ‘सेवाभावी’ बन पाते! कोई ‘सेवा’ करने के लिए कांग्रेस में आ जाता है, कांग्रेस अवसर न दे तो बीजेपी में चला जाता है। 'सेवा' करने के घोषित उद्देश्य से बीएसपी से एसपी में, एसपी से बीएसपी में यानी जो भी, जहां भी अवसर दे, वहां चला जाता है। कोई बड़ी पार्टी 'अवसर' न दे तो अपनी खुद की पार्टी बना लेता है या निर्दलीय ही चुनाव के मैदान में उतर जाता है।
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और अगर टिकट मिलने के बाद भी जनता उसे 'सेवा का अवसर' न दे, चुनाव में हरा दे- जैसा कि बेचारे ज्योतिरादित्य के साथ 2019 में हुआ- तो भी 'जनता की सेवा' करने की तीव्र ललक उसमें बनी रहती है। यह ऐसी 'लौ' है, जो किसी हालत मेंं, किसी आंधी-तूफान में नहीं बुझती। ऐसे लोग इधर से नहीं, तो उधर से, राज्यसभा का नहीं तो विधान परिषद का टिकट कबाड़ लाते हैं। ये 'सेवा' करने का कोई अवसर चूक जाएं, ऐसा हो नहींं सकता। मुफ्त में टिकट न मिले तो करोड़ों की भेंट चढ़ाकर 'जनता की सेवा' करने चले आते हैं।
मोदी-प्रजाति के नेता तो दुनिया छोड़ने के अलावा 'सेवा' करने के लिए सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार रहते हैं। घर-बार, मां-बाप, भाई, चाय-पकोड़े की दुकान सब उनके लिए घास के तिनके बराबर है। कुछ लोग तो मां-बाप, भाई-बहन को भूखा-प्यासा छोड़कर भी 'जनता की सेवा' किए बिना नहीं मानते। उनके लिए जनता, उनके परिवार से ऊपर कोई वस्तु है। परिवार वह नहीं दे सकता, पत्नी वह नहीं दे सकती, जो 'जनता की सेवा' उन्हें दे सकती है। और 'जनता की सेवा' ही ऐसा 'मूलमंत्र' है, जिससे अपने परिवार की, बिजनेस की 'सेवा' भी अच्छे ढंग से की जा सकती है। 'जनता की सेवा' की ऐसी विकट महिमा किसी मंत्र, किसी आरती, किसी हनुमान चालीसा में नहीं मिलती मगर नेता या नेताकांक्षी इस महिमा को अच्छी तरह जानता और मानता है।
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दरअसल जनता को इन नेताओं ने ही बिगाड़ा है। नेता 'सेवा' करने को तत्पर, तो स्वाभाविक है कि जनता भी सेवा लेने के लिए तत्पर रहती है। न नेता सेवा करने से पीछे हटने को तैयार हैं, न जनता सेवा लेने से! कुछ नेताओं के मन में तो ऐसा प्रबल 'सेवाभाव' होता है कि तड़ीपार होकर भी, 2002 करवा कर भी 'सेवा' करना नहीं छोड़ते। कुछ तो बलात्कार के आरोप लगने पर भी, दोषी सिद्ध होने पर भी, करोड़ों के गबन और घोटाले का आरोप सहकर भी 'जनता की सेवा' से वंचित होने को तैयार नहीं। खुद भी 'सेवा' करते हैं- पत्नी, बेटे-बेटी, पतोहू, भांजी-भतीजी को भी अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में 'सेवा' के 'पुण्य कार्य' में लगा देते हैं। जनता की 'सेवा' के ऐसे व्रती भारत के अलावा और कहां मिल सकते हैं!
अच्छा 'सेवा' भी ये कुर्सी पर बैठकर ही कर पाते हैं, भले ही सिंधिया जी जैसा कोई युवा नेता क्यों न हो! आजकल 'जनता की सेवा' करने की यह अत्यंत लोकप्रिय शैली है। इससे पता चलता है कि गांधीजी ने तो जनता की सेवा की ही नहीं थी! की होती तो जनता उन्हें कुर्सी नवाजती या वे नवजवा लेते! कम से कम उन्होंने उतनी तो बिलकुल नहीं की थी, जितनी कि ज्योतिरादित्य जी आज तक कर चुके हैं और आगे भी मोदीजी के मंत्री बनकर करेंगे।
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एकमात्र सिद्धांत ही जब जनता की सेवा' करना हो तो पार्टी कोई भी हो, चाहे वह पार्टी हो, जिसे आप कल तक दिन-रात गरियाते रहते थे, जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते रहते थे! लक्ष्य स्पष्ट हो, राज्यसभा की सीट के साथ मंत्री की सीट भी पक्की हो तो अपना अतीत, अपने पिता का अतीत मैटर नहीं करता, दादी और बुआओं का अतीत मैटर करने लग जाता है। तो महाराज, कीजिए जनता की 'सेवा'। जनता न करवाना चाहे तो भी, उसकी इतनी अधिक सेवा कीजिए, उसके हाथ-पैर इतने ज्यादा दबाइए कि उसकी हड्डी-पसली टूट जाए! वह कराह उठे, हाथ-पैर जोड़े, महाराज और नहीं!
मैंने तो तय किया है कि भविष्य में जो भी नेता कहेगा कि मैं जनता की सेवा करना चाहता हूं, उन्हें मिलेगा मेरा ठेंगा! इसके बजाए मैं उस नेता को वोट देना पसंद करूंगा जो छप्पन या चौवन या चौवालीस या चौंतीस इंच का- यानि उसके सीने की चौड़ाई जो भी हो- उसे तानकर यह कहने की हिम्मत रखता हो कि मैं जनता की नहीं, अपनी सेवा करूंगा और इसके लिए भविष्य में किसी भी पार्टी में जाने और कोई भी पद पाने मेंं संकोच नहीं करूंगा। जिसकी आज निंदा कर रहा हूं, कल उसी के गीत गाऊंगा तो मेरा वोट शर्तिया तौर पर उसे मिलेगा। तैयार है कोई नेता? नहीं तैयार है तो सब के सब मेरी बला से ज्योतिरादित्य बन जाओ!
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