कुछ बदलाव हम पर इतनी धीमी गति से आते हैं कि वर्तमान पीढ़ी इसके नतीजों की जिम्मेदारी नहीं लेती है। इसमें से एक जलवायु परिवर्तन है जिसे हम मिसाल के लिए सामने रखकर बात कर सकते हैं। 1980 के दशक में इस्तेमाल होने वाले 'ग्रीनहाउस गैस' और 'क्लोरोफ्लोरोकार्बन' और 'ओजोन परत में छेद' जैसे शब्दों और जुमले हमें आज भी याद हैं। स्कूल में भी इनका इस्तेमाल किया जाता था, यानी कोई 35-40 साल पहले ही यह मुद्दा आम समझ या सामान्य ज्ञान में से एक था। फिर भी इस मोर्चे पर बहुत कुछ नहीं किया गया था और आज भी इस बारे में कुछ खास नहीं किया जा रहा है।
एक वजह तो वह दो लॉबी हैं जो चाहती हैं कि कार्बन उत्सर्जन जारी रहे। इनमें से एक है तेल और गैस उद्योग, जो दुनिया का सबसे बड़ा व्यवसाय है और दूसरा है ऑटोमोबाइल सेक्टर जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है। और निश्चित रूप से ये दोनों कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत भी हैं, और हम जानते हैं कि यह जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण है।
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दूसरा कारण यह है कि एक प्रजाति के रूप में, हमने इस खतरे को गंभीरता से नहीं लिया है क्योंकि हमें लगता है कि यह हमारी पीढ़ी में सीधे तौर पर हमें प्रभावित नहीं करता, इसलिए हम इसकी क्यों चिंता करें।कहीं थोड़ी गर्मी है तो कहीं थोड़ी ज्यादा सर्दी, और यह कोई ऐसे कारण तो नहीं हैं जिसके लिए हम अपनी जिंदगी को तौर तरीके बदलें या फिर उसके लिए कुछ अधिक पैसे खर्चे करें जिनसे हमें तकलीफ होती है। यानी, इससे हम यह तो अनुमान लगा सकते हैं कि 1985 के बाद से जन विचार प्रक्रिया ने कैसे काम किया और यही एकमात्र कारण है कि हमने जलवायु परिवर्तन को एक घटना के रूप में तो स्वीकार किया है, लेकिन इसके बारे में बहुत कुछ किया नहीं है। समस्या यह है, और विशेषज्ञ भी हमें लगातार बता रहे हैं कि यह खतरनाक है और हमने सही कदम नहीं उठाएं तो अगले कुछ वर्षों में हमारे ग्रह यानी पृथ्वी के हालातनिश्चित रूप से बदतर होते जाएंगे। लेकिन यह भी हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि हमने खतरे के खिलाफ कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया है।
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एक और ऐसा ही बदलाव है या सेक्टर है, वह है हमारी अर्थव्यवस्था। मैंने यहां पहले भी लिखा है कि हमारा सरकारी डेटा हमें बता रहा है कि हम किस ओर जा रहे हैं। 2014 में आज की तुलना में पांच करोड़ अधिक भारतीय काम कर रहे थे (और महामारी से पहले भी यही स्थिति थी)। 800 मिलियन लोग (जनसंख्या का 60%) मासिक 6 किलो मुफ्त अनाज पर निर्भर हैं। महामारी से पहले दो साल और तीन महीने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि में गिरावट आई। इस साल हमारी अर्थव्यवस्था उसी आकार की होगी जैसी 2019 में थी लेकिन 2019 में यह पहले से ही कमजोर थी और कमजोर विकास के पथ पर थी। बांग्लादेश, जो 2014 में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में हमसे लगभग 50% पीछे था, अब हमसे आगे है।
तो फिर इसका कारण क्या है और हम किस ओर जा रहे हैं? हम इन सवालों के जवाब तभी दे सकते हैं जब हम पहले यह स्वीकार करें कि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के तरीके में कुछ गड़बड़ है। किसी गलती को तभी ठीक किया जा सकता है जब हम स्वीकार करें कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं। चूँकि हमें लगता है कि हमारी सोच सही और हम ठीक हैं, तब फिर तो हम वहीं पहुंचेंगे जहां यह रास्ता हमें ले जा रहा है।
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तीसरा बदलाव ऐसा है जो हम खुद अपने लिए कर रहे हैं लेकिन जिसके नतीजों को हम पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं और उस पर समझदारी से बात या चर्चा नहीं कर रहे हैं, वह है हमारे समाज का सांप्रदायिकरण है, जो पूरी तरह हो चुका है। आज अल्पसंख्यकों पर हमले, चाहे वे मुस्लिम हों या ईसाई, इतने आम हो गए हैं कि उनसे जुड़ी खबरें अखबारों के पहले पन्ने तक नहीं आतीं। हर दिन कुछ नया होता है, जो अक्सर सरकार या सत्ताधारी पार्टी की तरफ से होता है। हमने कानून और हिंसा से अल्पसंख्यक भारतीयों का जो उत्पीड़न किया है उसने हमें किसी एक खास जगह पहुंचा दिया है। जलवायु परिवर्तन की तरह और शायद अर्थव्यवस्था के विपरीत, इस मुद्दे को भी हमने जानबूझकर किसी खास मकसद के रूप में देखना शुरु कर दिया है। यह कहना गलत होगा कि सरकार ने जानबूझकर जीडीपी विकास दर को रोका है। लेकिन यह कहना सही है कि भारत आज सोचते-समझते उस मुकाम पर पहुंचा है जहां सांप्रदायिकता ने देश को पूरी तरह से संक्रमित कर दिया है।
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इस सबके नतीजे हमारे लिए क्या हैं? इस पर नीचे लिखी कुछ बातें सोची जा सकती हैं:
एक बेहद कमजोर अर्थव्यवस्था का कारण है कि लोगों का विश्वास स्तर कम हुआ है और इसका अर्थ है कि निवेश में कमी आएगी। पूंजी एक ऐसी कायर है जो अनिश्चितता देखते ही भाग खड़ी होती है, और आज के भारत में निश्चितता की ही जबरदस्त कमी है। कानून के शासन में लगातार कमी और उनन्मादी भीड़ और समूहों को हिंसक होने के मौके देना। बाहरी दुनिया से घुसपैठ, जिसे भारत के आकार वाला देश अनदेखा नहीं कर सकता, वह अपने आप में ही पर्याप्त है। ये सब पहले ही हो हो चुका है और भारत 2019 से उन देशों की सूची में है जिनके खिलाफ प्रतिबंधों की सिफारिश की गई है (हालांकि इन पर अभई अमल नहीं हुआ है)।
हमने एक पीढ़ी और शायद दो पीढ़ियों के युवाओं का ऐसा ब्रेनवॉश कर दिया है जो सिर्फ एक तरफ सिर्फ आंतरिक दुश्मनों के बारे में सोचने लगे हैं। दूसरी तरफ ऐसे संस्थानों और संस्थाओं का विनाश हो रहा है, जिन्हें दशकों की मेहनत और बहुत ही समझदारी से संभाल कर रखा गया था। इनमें न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक निकाय शामिल हैं, क्योंकि इन संस्थाओं ने 2014 के बाद से कार्यपालिका के ही हिस्से के रूप में काम करना शुरु कर दिया है। इसके साथ ही नौकरशाही यानी सिविल सेवा और सशस्त्र बल जैसे संस्थान हैं, जो मौजूदा वक्त में सरकार और सत्ताधारी दल से इस हद तक वैचारिक स्तर पर जुड़ गए हैं जैसा कि हमारे इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।
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हमने ये सब खुद अपने साथ किया है और इस सब पर जयकारे लगाते हुए तालियां बजाई हैं। इसलिए इनसे वापसी आसान नहीं होगी। एक अंग्रेजी कहावत है 'जल्दबाजी में काम करो, फुर्सत में पछताओ'। जलवायु परिवर्तन और अर्थव्यवस्था की तरह, इस मुद्दे पर भी हमें जल्द ही पश्चाताप करने के अलावा और कुछ हासिल नहीं होगा, हां इतना जरूर है कि क्या हम कभी फुर्सत में इस सब पर पछताएंगे भी या नहीं।
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