इन दिनों विश्व स्तर पर इस सोच को व्यापक मान्यता मिल रही है कि कुछ संदर्भों में धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में पड़ रही है। दूसरे शब्दों में जिन स्थितियों में धरती में इतना विविधतापूर्ण, रंग-बिरंगा, लाखों प्रजातियों वाला जीवन पनप सका, वह स्थितियां ही अब संकटग्रस्त हैं। इसका एक कारण भारी पर्यावरण विनाश है जिसमें जलवायु बदलाव सहित अनेक अन्य गंभीर समस्याएं जुड़ी हैं। ऐसी लगभग 10 पर्यावरण समस्याएं चर्चा में रही हैं जो धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं के लिए खतरा उपस्थित करती हैं। इनके अतिरिक्त महाविनाशक हथियारों, विशेषकर परमाणु हथियारों से भी धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को गंभीर खतरा है। हिरोशिमा पर गिरने वाले परमाणु हथियार से कहीं अधिक विनाशक क्षमता वाले लगभग 14500 परमाणु हथियार इस समय दुनिया में मौजूद हैं।
वैसे तो विश्व में अनेक गंभीर समस्याएं हैं, पर प्रायः माना जा रहा है कि जो समस्याएं धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को खतरे में डाल रही हैं उन्हें सबसे ऊंची प्राथमिकता देना जरूरी है। जलवायु बदलाव का मुद्दा दुनिया भर में जोर पकड़ रहा है, पर साथ में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या जो कुछ हो रहा है वह इस संकट के समाधान के लिए पर्याप्त है। वैज्ञानिकों ने समस्या के पूर्व अनुमानों से भी अधिक गंभीर स्थिति होने की चेतावनी दी है। इस स्थिति में यह मुद्दा उठा है कि केवल तकनीकी बदलाव पर्याप्त नहीं है, व्यापक सामाजिक स्तर पर सादगी की ओर बढ़ना और उपभोक्तावाद के जोर को कम करना भी जरूरी है।
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इस संदर्भ में अधिक चर्चा महात्मा गांधी के विचारों की होती है, क्योंकि पर्यावरण संकट के विकट होने से बहुत पहले ही उन्होंने कह दिया था कि लालच और अधिक उपभोग को धरती संभाल नहीं पाएगी। उन्होंने कहा कि जब चंद पश्चिमी देशों के उपभोक्तावाद से ही इतनी गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं तो दुनिया भर में इसके प्रसार में निश्चय ही संकट असहनीय हद तक बढ़ जाएगा। उनकी इस चेतावनी की सार्थकता आज स्पष्ट नजर आ रही है, तो समाधान भी उनकी सोच में ही खोजे जा रहे हैं।
इस संदर्भ में जहां उनका सादगी और संयम का संदेश सबसे महत्त्वपूर्ण है, वहां अर्थनीति को नैतिकता से जोड़ने, शराब जैसी नुकसानदायक उपभोक्ता वस्तुओं को पूरी तरह त्यागने और अर्थव्यवस्था में गांव समुदायों को अधिक महत्त्व देने के उनके संदेश भी बहुत महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं। उन्होंने पूंजीवाद और साम्यवाद की बहस से ऊपर उठकर गरीब और कमजोर लोगों को विकास के केंद्र में रखने और लालच को त्याग वास्तविक जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा। यह संदेश जलवायु बदलाव और पर्यावरण की अन्य गंभीर समस्याओं के टिकाऊ समाधान के लिए महत्त्वपूर्ण है।
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अगर लालच, अत्यधिक उपभोग और दोहन हावी होते हैं तो वे केवल पर्यावरण संकट की ओर नहीं ले जाते हैं, अपितु हिंसा और युद्ध की ओर भी ले जाते हैं। विश्व की सबसे बड़ी औपनिवेशिक शक्ति के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी की यह स्पष्ट सोच बनी कि लालच और अत्यधिक उपभोग दूसरों के संसाधन हड़पने की ओर ले जाता है और इसके कारण ही बहुत से युद्ध होते हैं, दूसरों पर आधिपत्य जमाया जाता है। अतः युद्ध और हिंसा के इस मूल कारण को दूर करने के लिए भी उन्होंने सादगी और संयम के जीवन का संदेश दिया।
दूसरी ओर जो लोग इस हिंसा और आधिपत्य का शिकार हो चुके हैं या हो रहे हैं, उनके लिए उन्होंने अहिंसक संघर्ष की राह दिखाई। गांधीजी के बाद नेलसन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग ने भी अन्याय और आधिपत्य का सामना करने के लिए गांधी जी की इस राह का ही समर्थन किया और इसे अपनाया भी। भारत के अनेक जन-आंदोलनों और अभियानों ने भी इस अहिंसक राह को अपनाकर अनेक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त किए।
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इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी समस्याओं के समाधान में गांधीजी के विचारों और कार्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है और यह संदेश भारत से सशक्त रूप से जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि केवल कहने भर को नहीं अपितु वास्तविक व्यवहार में गांधी जी की सोच को भारत में अधिक महत्त्व मिले। देश के अनेक भीतरी तनावों को कम करने में और विशेष सभी मजहबों की एकता और प्रेम बढ़ाने में अगर बहुत निष्ठावान कार्य हो और सादगी को व्यापक स्तर पर अपनाया जाए तो इसका बहुत सार्थक संदेश दुनिया भर में जाएगा।
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