विचार

आकार पटेल का लेख: CAB के नतीजों की अभी कल्पना तक नहीं की जा सकती, यूरोपीय यूनियन के नतीजे सिखा सकते हैं सबक

केंद्र की मोदी सरकार ने जिस तरह नागरिकता संशोधन कानून सामने रखा है, उसके नतीजों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। अगर यूरोपीय यूनियन के ब्रेक्सिट पर नतीजों और हाल के चुनावी परिणाम से सबक लिया होता तो शायद हालात ऐसे नहीं होते।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

कोई भी प्रांचीन और खुद पर गर्व करने वाला देश अपने यहां की आव्रजन यानी इमिग्रेशन नीति चुनने के लिए वोट करता है। देश की बहुमत मजबूती के साथ पार्टी का समर्थन करता है जो अप्रवासियों के खिलाफ अभियान चला रही है और उनके खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल कर रही है। लेकिन छोटे राज्यों में समस्या है। वे इस नीति का कड़ा निरोध करते हैं। विरोध इतना मजबूत है कि एक विभाजन की स्थिति पैदा हो जाती है।

यह कहानी ब्रेक्सिट चुनाव की है, जिसके नतीजे इसी सप्ताह सामने आए हैं। यूनाइटेड किंगडम का नाम यूके इसीलिए पड़ा है क्योंकि यह चार देशों, इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड का समूह है। इनमें से पहले तीन देश एक द्वीप पर हैं, जिसे ग्रेट ब्रिटेन कहा जाता है। आखिरी एक और द्वीप का हिस्सा है, और आयरलैंड गणराज्य में शामिल है।

2016 के जनमत संग्रह में, इंग्लैंड और वेल्स ने ब्रेक्सिट के समर्थन में मतदान किया, यानी वे यूरोपीय संघ छोड़ना चाहते थे। उत्तरी आयरलैंड और स्कॉटलैंड ने ब्रेक्सिट के खिलाफ मतदान किया। आम चुनाव के नतीजों में भी यही स्थिति सामने आई। बोरिस जॉनसन की कंजर्वेटिव पार्टी, जो कि एक बहुसंख्यावादी, यूरोप विरोधी और आव्रजन विरोधी रुख की पार्टी है, की इंग्लैंड और वेल्स में लहर छाई रही, लेकिन स्कॉटलैंड ने एक स्थानीय पार्टी के लिए मतदान किया जिसने तुरंत यूनाइटेड किंगडम छोड़ने के लिए जनमत संग्रह की मांग की है।

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उत्तरी आयरलैंड ने अपने इतिहास में पहली बार राजशाही के समर्थक लोगों के मुकाबले अलगाववादी, सिन फेइन को अधिक सीटें दी हैं। सिन फ़िन उत्तरी आयरलैंड के यूरोपी. यूनियन का हिस्सा रहे आयरलैंड गणराज्य के साथ घनिष्ठ संबंध चाहती है। पर, ब्रेक्सिट ऐसी संभावना के खिलाफ है।

स्कॉटलैंड को लंबे समय से लगता रहा है कि इंग्लैंड के साथ आर्थिक रिश्ते होने के बावजूद, इस पर ऐतिहासिक रूप से अंग्रेजों का कब्जा रहा है। कैथोलिक और उत्तरी आयरलैंड के कई प्रोटेस्टेंट समान संस्कृति और भाषा के कारण खुद को आयरलैंड गणराज्य के करीब महसूस करते हैं। और, बाकी यूनाइटेड किंगडम के मुकाबले इस हिस्से के साथ उनके आयरलैंड के साथ आर्थिक रिश्ते कहीं गहरे हैं। जनमत संग्रह और चुनाव से पहले भी यही स्थिति थी। ऐसी आशंका थी कि यूरोप के संबंध में नीति में आमूल-चूल परिवर्तन से दूसरी समस्याएं भी सामने आ सकती हैं। लेकिन अंग्रेजों की बहुसंख्यावादी नीति और उनकी राजनीति की आव्रजन विरोधी बयानबाजी इतनी मुखर थी कि वह चुनाव के बाकी मुद्दों पर भारी पड़ी।

इन चुनावी नतीजों से फिलहाल तो अंग्रेज जीत की संतुष्टि महसूस करेंगे। इस संदर्भ में हम अपने यहां आई नीति को देखें। भारत ऐसी आव्रजन विरोधी नीति लागू करने की प्रक्रिया में है जिसकी ऊंच-नीच पर ठीक से बहस नहीं हुई और नतीजतन देश की बड़ी आबादी को यह समझ नहीं आई, और मैं तो कहूंगा कि ज्यादातर सांसदों तक की समझ में नहीं आई।

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इन मुद्दों को अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरीके से पेश किया जा रहा है। सत्तारूढ़ दल का कहना है कि यह अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का कानून है, लेकिन सिर्फ उनपर लागू होगा जो 2015 से पहले भारत आए हैं। यानी ऐसे मुस्लिम जो अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे उन्हें हिरासत केंद्रों में बंद कर दिया जाएगा। अगर उनके पास अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान की नागरिकता होने के दस्तावेज नहीं हैं तो उन्हें वहां नहीं भेजा जा सकता है। इसलिए उन्हें भारत में स्थाई रूप से हिरासत केंद्रों मेंबंद करना होगा, जैसा कि असम में हो रहा है।

जिस तरह से बीजेपी सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक पेश किया उसका ध्येय यह बताया गया कि उन विदेशी समुदायों की रक्षा करना है जो अपने देशों में उत्पीड़न का शिकार हैं। लेकिन देश के जिन राज्यों में यह गंभीर मुद्दा है उनमें पूर्वोत्तर के राज्य प्रमुख हैं। वहां सिर्फ किसी धर्म विशेष के शरणार्थियों की ही समस्या नहीं है, बल्कि हिंदुओं से भी दिक्कत है। यही कारण है कि वे नागरिकता संशोधन कानून पास होने का विरोध करते रहे हैं। बाकी देश को यह मुद्दा पूरी तरह समझ ही नहीं आ रहा है, जो कि सोचता है कि यह एक सांप्रदायिक समस्या है। लेकिन, ऐसा नहीं है, फिर भी सरकार फिर भी इसे यही बनाकर सामने रख रही है।

नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स, यानी एनआरसी अभी कुछ सप्ताह पहले ही पूरा हुआ है और जिसे असम बीजेपी सबसे ज्यादा हवा दे रही थी, अब यही असम बीजेपी इसका विरोध करते हुए इसे नकार रही है। उसका कहना है कि जिन 19 लाख लोगों को सूची से बाहर रखा गया है, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का एक और मौका दिया जाना चाहिए। आखिर क्यों? क्योंकि एनआरसी से बड़ी संख्या में जो लोग बाहर हो गए, उनमें ज्यादातर संख्या हिंदुओं की है, जिससे बीजेपी चौंक गई है।

नागरिकता संशोधन विधेयक इन सभी लोगों को सुरक्षा प्रदान करता है और केवल विशेष रूप से मुसलमानों को बाहर कर देगा। यदि कोई गैर-मुस्लिम एनआरसी के तहत दस्तावेज नहीं दे सकता है, तो उन्हें नागरकिता संशोधन कानून के तहत नागरिकता दे दी जाएगी, और बच्चों और बूढ़ों सहित मुसलमानों को जेल होगी। लेकिन पूर्वोत्तर इस समाधान को नहीं चाहता है जो बीजेपी ने दिया है, और यह स्पष्ट हो गया है कि इस बारे में पूरी तरह गंभीरता से सोचा नहीं गया है।

इस तरह इस कानून को कुछ और समझने के बजाय खुद ही पैदा की गई समस्या ही मानना होगा। यह सच है कि एनआरसी की जड़ें कई दशकों पहले असम सरकार के साथ तत्कालीन राजीव गांधी सरकार द्वारा किए गए समझौते में हैं। लेकिन मौजूदा संकट विशुद्ध रूप से बीजेपी की प्रमुख और मुस्लिम विरोधी विचारधारा से उपजा है। यूके की तरह, इस विचारधारा से भी ऐसे प्रभाव पड़ेंगे जिनकी अभी कल्पना नहीं की जा सकती और कोई भी वैसा नहीं चाहेगा।

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