डल गेट पर इस समय अगर आप किसी भी होटल में कमरा बुक कराने की कोशिश करेंगे तो अव्वल तो मिलना ही मुश्किल होगा और अगर मिला भी तो दोगुने-तिगने दाम पर। टैक्सी स्टैन्ड पर गाड़ियां मिल पाना लगभग असंभव है, तो पहलगाम और गुलमर्ग जैसे पर्यटन स्थानों को जाने वाले रास्तों पर लंबे-लंबे जाम लगे हैं। लेकिन अगर आप मट्टन या अवन्तिपुरा के ध्वंसावशेष देखने की इच्छा व्यक्त करेंगे, तो आपको पता चलेगा कि दक्षिण कश्मीर के ऐसे सभी रास्ते पर्यटकों के लिए बंद कर दिए गए हैं। यही नहीं, दूधपथरी के रास्ते में अगर आप बड़गाम स्थित कश्मीरी पंडितोों के ट्रांजिट कैम्प में जाना चाहेंगे, तो भी वहां तैनात भारी सुरक्षाबल आपको अनुमति नहीं देंगे। नब्बे के दशक की तरह सड़कों पर एके-47 लहराते आतंकवादी नजर नहीं आ रहे, न ही पत्थरबाजी हो रही है। दुकानें खुली हैं, भीड़भाड़ है सड़कों पर और सुरक्षा बलों की भारी तैनाती के बावजूद बाहर से देखने पर किसी को हालात सामान्य लग सकते हैं लेकिन इन कैम्पों में रहने वाले या फिर नब्बे के दशक में कश्मीर न छोड़ने का फैसला करने वाले पंडितों से ही नहीं बल्कि डाउनटाउन में घूमते और दोस्तों से बतियाते कश्मीर में तीन साल बाद भारी संख्या में लौटे पर्यटकों के सहारे हालात सामान्य होने के सारे दावे हकीकत से ज्यादा भ्रम नजर आते हैं।
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पिछले दिनों ट्रांजिट कैम्प में रहने वाले राहुल भट्ट की हत्या के बाद से शुरू हुआ टारगेटेड हत्याओं का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा और सतह के नीचे लगातार बढ़ता तनाव एक भयावह भविष्य के संकेत दे रहा है। देखें तो टारगेटेड हत्याओं का यह दौर अगस्त, 2019 में 370 हटाने और जम्मू- कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनने के बाद हुए पंचायत चुनावों के साथ ही शुरू हो गया था। इन चुनावों का बहिष्कार कर रहे आतंकवादियों ने कई पंचों/सरपंचों की एक के बाद एक हत्याएं कर दी थीं जिनमें कई कश्मीरी पंडित पंच भी शामिल थे। इसके बाद कश्मीरी पंडितों की विवादित संपत्तियों पर दावों को हल करने के लिए वेबसाइट लॉन्च करने के बाद नब्बे के दशक में कश्मीर में रुकने का फैसला करने वाले दवा-व्यापारी माखनलाल बिंदरू सहित स्कूल शिक्षकों की हत्याएं हुईं। इसके साथ-साथ मुखबिर होने का आरोप लगाकर कई मुस्लिम नागरिकों की भी हत्याएं हुईं और अब इस नए दौर में मनमोहन सिंह के जमाने में दिए गए प्रधानमंत्री पैकेज के लाभार्थियों को निशाना बनाया जा रहा है।
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ज्ञातव्य है कि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के उद्देश्य से बने इस पैकेज के तहत विस्थापित पंडितों के लिए नौकरी और आवास की व्यवस्था की गई थी। ट्रांजिट कैम्पों में रह रहे इन लाभार्थियों पर अभी तक कोई हमला नहीं किया गया था। 2014-18 के बीच मैं कैम्पों और दूसरी जगहों पर रह रहे अनेक पंडितों से मिला और सुरक्षा को लेकर उनमें कोई चिंता नहीं देखी थी। लेकिन अब हालात एकदम उलट हैं। कैम्पों से बड़ी संख्या में पलायन की खबरें ही नहीं आ रहीं बल्कि बाकी पंडितों और बाहर से आए श्रमिकों में भी भविष्य को लेकर भारी आशंका है। इन हत्याओं की जिम्मेदारी द रेसिस्टेंस फ्रन्ट नाम के नए संगठन ने ली है और यह संगठन लगातार पंडितों और बाहरी लोगों को घाटी छोड़ने तथा अमरनाथ यात्रा में बाधा पहुंचाने की धमकियां दे रहा है।
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कश्मीर में माना जा रहा है कि ताजा हत्याओं की जड़ में दो चीजें हैं। पहली तो यह धारणा कि पैकेज के तहत आए लोगों को सभी महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती दी जा रही है। असल में 370 हटाने के बाद से ही प्रशासन और पुलिस के उच्च और महत्वपूर्ण पदों पर पहले ही बाहरी लोगों को भर दिया गया है। स्थानीय भाषा तथा संस्कृति से पूरी तरह अनजान बाहरी अधिकारियों के कारण मानवीय इंटेलिजेंस लगभग खत्म सा हो गया है और इस धारणा को बल मिला है कि केंद्र सरकार कश्मीर में जनसंख्या संतुलन बदलना चाहती है। जिस तरह कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म में कश्मीर का एकपक्षीय चित्रण किया गया और इसे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और आरएसएस की संस्तुति मिली और फिर सोशल मीडिया पर कश्मीरी मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाई गई, उसने आग में और घी डाला।
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एक कश्मीरी सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि पहले लोगों को लगता था कि सरकार और सेना ही उनके प्रति दुराग्रह रखते हैं लेकिन अब लगता है गैर कश्मीरी भारतीय जनता भी उनसे नफरत करती है। कश्मीरी पंडितों का इस फिल्म को मिला समर्थन भरोसे की आखिरी कड़ियों को तोड़ने वाला था और इसने भारत विरोधी तत्वों को लोगों को भारत के खिलाफ भड़काने का मौका दिया। इन सबने घाटी में शांति से रह रहे पंडितों की जिंदगी मुश्किल में डाल दी। जाहिर है, उनकी फिक्र किसी को नहीं थी। वैसे भी, टीआरएफ जैसे नए संगठन के लिए पंडितों की हत्या तुरंत प्रचार पाने के लिए मुफीद थी क्योंकि जहां पंडित की हत्या की खबर राष्ट्रीय बन जाती है, कश्मीरी मुसलमानों की मौतों पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
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इन घटनाओं को लेकर कश्मीरी समाज में भी भारी चिंता है। शुक्रवार की नमाज में कई जगह इमामों ने ऐसी घटनाएं रोकने और पंडितों को भरोसा दिलाने की कोशिश की। लेकिन इन सबके बीच दुर्भाग्यपूर्ण है सरकार की चुप्पी। केंद्र से कश्मीर तक सत्ता पर काबिज बीजेपी पंडितों को लौटाने का दावा करती रहती है लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कश्मीर के इस्तेमाल की उसकी नीति ने घाटी में रह रहे पंडितों के सामने भी पलायन का खतरा पैदा कर दिया है। जरूरत तो बातचीत और भरोसा कायम करने की है लेकिन इस सरकार से शायद ही किसी को ऐसी कोई उम्मीद हो।
(लेखक ने हाल में कश्मीर का कई बार दौरा किया है। यूट्यूब पर भी उन्होंने कश्मीर के बारे में विचार रखे हैं।)
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