1970 के दशक में जब एक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक ने ‘कांग्रेसी सिस्टम’ शब्द का इस्तेमाल किया, तब वास्तव में यह कथित ‘सिस्टम’ अत्यधिक दबाव में था और विखंडित हो रहा था। उसके लिए खतरा बाहर से नहीं बल्कि अंदर से पैदा हुआ था और नए तरह का राजनीतिक दबाव बन रहा था।
वर्ष 1967 में कांग्रेस को आठ राज्यों में हार का सामना करना पड़ा था। उस समय तक ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा ने जन्म भी नहीं लिया था, लेकिन राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव एक साथ हुए थे। तब लोकसभा का चुनाव भी कांग्रेस किसी तरह जीत पाई थी। कांग्रेस को किसी एक वैकल्पिक राष्ट्रीय ताकत ने नहीं बल्कि बहुत सारी नई और यहां तक कि परस्पर विरोधी ताकतों या राजनीतिक गठजोड़ ने शिकस्त दी थी।
तमिलनाडु की डीएमके और पश्चिम बंगाल की सीपीएम में किसी तरह की कोई समानता नहीं थी और वैसे ही पंजाब के अकाली दल और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में हिन्दुत्व-आधारित जनसंघ में भी परस्पर कोई समानता नहीं थी।
उसी साल, यानी 1967 में ही समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस विरोधी पार्टियों का एक मोर्चा बनाने की अपील की थी और इस तरह देश में गैर-कांग्रेसी राजनीति ने पहली बार एक ठोस आकार लिया।
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विडंबना यह है कि राम मनोहर लोहिया की इस अपील का फायदा समाजवादियों की जगह हिन्दुत्ववादी ताकतों को मिला जबकि ये दोनों परस्पर विरोधी थे। हिन्दुत्ववादी ताकतों को इसके बाद मजबूती दे गए जयप्रकाश नारायण। 1977 में जब जयप्रकाश नारायण ने जनता पार्टी की स्थापना की, तो इन ताकतों को पैर जमाने का एक और मौका मिल गया। आज नरेंद्र मोदी की बीजेपी उसी कांग्रेस-विरोध पर जिंदा है।
हालांकि इंदिरा गांधी ने 1971 का ‘गरीबी हटाओ’ चुनाव जीता और फिर 1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में हार के बाद उन्होंने 1980 के चुनाव में शानदार वापसी की और इस तरह रजनी कोठारी की ‘कांग्रेस सिस्टम’ की अवधारणा जिंदा रही, लेकिन इसके साथ ही इसके विरोध में जन्मे ‘सिस्टम’ ने भी अपने लिए जगह बना ली थी।
कांग्रेस को अकसर ‘छतरी पार्टी’ कहकर संबोधित किया जाता रहा क्योंकि यह ऐसा संगठन रहा जिसके साये में विभिन्न गुट एक साथ रहे। जैसे ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ एक अमूर्त अवधारणा है, वैसे ही कांग्रेस भी एक विचार है जिसे इकरंगे राजनीतिक दल के रूप में परिभाषित या पहचाने जाने के बजाय इसे ऐसी राजनीतिक रचना के तौर पर देखा जाना चाहिए जो बहुरंगी है। हकीकत यह है कि ‘भारत का विचार’ और ‘कांग्रेस का विचार’ बड़ी मजबूती के साथ एक-दूसरे से जुड़े हैं।
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सवाल यह उठता है कि यह ‘भारत का विचार’ या फिर ‘कांग्रेस का विचार’ आखिर है क्या? इसके दिल की धड़कनें कहां हैं? दरअसल, इसकी जड़ें आजादी के आंदोलन, गांधीजी के विचारों और गांधीजी के घोषित उत्तराधिकारी पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों में निहित हैं। इन्हीं विचारों के साथ इस राष्ट्र का जन्म हुआ। सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र; वैज्ञानिक सोच में लिपटी आधुनिक राष्ट्र की कल्पना; अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में गुट-निरपेक्षता जैसे नीतिगत सिद्धांतों के रूप में ये विचार आगे भी राष्ट्र की बुनियाद बने रहे। कांग्रेस और देश- दोनों के विचारों का आधार रहे गांधीवादी मूल्य। यह सही है कि इन विचारों का हमेशा पूरी तरह पालन नहीं होता लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इसकी वैचारिक बुनियाद यही है।
कांग्रेस को किस तरह की पार्टी माना जाए। कांग्रेस को दक्षिणपंथ की ओर झुकी पार्टी तो नहीं ही कहा जा सकता है और सच कहें तो ‘दाएं या बाएं’ इन दोनों ही दिशाओं से कांग्रेस के विचार अलग हैं, हालांकि देखने वाले इसमें दोनों की ही झलक देखते हैं।
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जब बैंकों, बीमा कंपनियों, कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण होता है तो इसमें वाम झुकाव देखा जाता है और जब नरसिंह राव-मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया जाता है तो कांग्रेस में दक्षिणपंथी रुझान देखा जाता है। उदारीकरण के समय कांग्रेस को इस तरह की आलोचना भी सुननी पड़ती है कि उसने नेहरू के समाजवाद की बलि चढ़ा दी।
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खुद पंडित नेहरू की कुछ कम्युनिस्ट उनके कथित पूंजीवादी रुझान के लिए आलोचना करते थे और स्वतंत्र पार्टी तो उन्हें ‘हृदय से कम्युनिस्ट’ कहा करती थी। समाजवादी और कम्युनिस्ट पंडितजी की ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ नीति की यह कहकर आलोचना करते थे कि यह परोक्ष रूप से निजी क्षेत्र के पूंजीवाद को बढ़ावा देना है। स्वतंत्र पार्टी को योजना के इस महालनोबिस सूत्र में सोवियत शैली दिखती थी और वह यह कहते हुए आलोचना करती थी कि यह पिछले दरवाजे से सोवियत संघ-जैसा समाजवाद लाने का प्रयास है।
हालांकि नेहरू मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र की नीति की वकालत करते थे लेकिन उन्होंने किसी भी बड़े व्यापारिक समूह का राष्ट्रीयकरण करने की पहल नहीं की। वास्तव में, निजी क्षेत्र का जो भी थोड़ा-बहुत राष्ट्रीयकरण हुआ, वह इंदिरा गांधी के दौर में हुआ और उन्हीं की पहल पर ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए।
कांग्रेस का कथित ‘केंद्रवाद’ अनिवार्य रूप से एक व्यावहारिक, उदार रुख था जिसने विभिन्न सामाजिक समूहों और आर्थिक हितों के लिए जगह बनाई। कांग्रेस की नीतियों ने सार्वजनिक सरोकार और निजी हितों के बीच संतुलन स्थापित किया। कांग्रेस ने सामाजिक कल्याण योजनाओं के जरिये वंचितों को आश्वस्त किया तो छोटे और मध्यम व्यवसायों को प्रोत्साहन दिया और वहीं बिड़ला और टाटा जैसे पूंजीपति घरानों को भी फलने-फूलने का मौका दिया।
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कम्युनिस्ट हों या समाजवादी- किसी के भी पास कांग्रेस जैसा व्यापक जनाधार नहीं था। कांग्रेस के पास आरएसएस जैसा कैडर भी नहीं है जो बीजेपी के लिए काम करता है, न ही कम्युनिस्टों की तरह के कार्यकर्ता हैं जिन्हें ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। कोई भी व्यक्ति कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड-धारक तब तक नहीं बन सकता जब तक कि सदस्य चयन बोर्ड हरी झंडी न दिखा दे। वैसे ही आप तब तक आरएसएस में शामिल नहीं हो सकते जब तक आपको स्वीकार नहीं किया जाता। बीजेपी में ‘घुसपैठियों’ का स्वागत हो सकता है लेकिन आरएसएस में नहीं।
यहां तक कि जाति-आधारित पार्टियां भी छानबीन करके ही लोगों को लेती हैं। लेकिन कांग्रेस के दरवाजे सभी के लिए खुले हैं। कांग्रेस एक खुला घर है जिसमें कोई भी आ सकता है, कोई भी जा सकता है; कोई भी इसका सदस्य बन सकता है और कोई भी इसे छोड़ सकता है; कोई भी अपनी ही पार्टी की सरकार की नीतियों की तारीफ कर सकता है तो कोई भी इसकी आलोचना कर सकता है; गुट बनाए जा सकते हैं, गुट तोड़े जा सकते हैं..., फिर भी कारवां चलता रहता है। ऐसी है कांग्रेस।
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पंडित नेहरू ऐसे लोगों से घिरे हुए थे जो हिन्दुत्व की विचारधारा में दृढ़ता से विश्वास करते थे, फिर भी उन सबने नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार किया। इंदिरा गांधी पार्टी के दक्षिणपंथी गुट से घिरी रहती थीं जिसे ‘सिंडिकेट’ नाम से भी जाना जाता है लेकिन उनके कथित ‘किचन कैबिनेट’ में मार्क्सवादी या स्पष्ट रूप से सोवियत संघ की ओर झुके लोग भी थे। मोरारजी देसाई जैसे गांधीवादी भी थे, जो नेहरू के कैबिनेट से लेकर इंदिरा के कैबिनेट का हिस्सा रहे।
पार्टी चलती रही, चुनाव जीतती रही जब तक कि 1967 के झटकों ने राजनीतिक विकल्पों की संभावना पेश नहीं की। तब तक क्षेत्रीय दलों की कोई वास्तविक उपस्थिति नहीं थी। डीएमके 1967 में सत्ता में आई। बाद में यह टूट गई और इस तरह एआईएडीएमके और कुछ अन्य समूहों का जन्म हुआ लेकिन यह राज्य कभी कांग्रेस के खाते में नहीं आया।
अस्तित्व के द्वंद्व ने भी संभवत: कांग्रेस में वैचारिक अनिर्णय की स्थिति पैदा की है। पार्टी में तमाम ऐसे लोग हैं जो रूढ़ीवादी उच्च जाति हिंदू वोट पाने के लिए ‘नरम हिंदुत्व’ के रास्ते पर बढ़ना सही समझते हैं, वहीं बहुत-से लोग चाहते हैं कि पार्टी और भी मजबूती के साथ गरीबों, वंचितों, पिछड़ों और हाशिये पर पड़े लोगों की बात करे। भारतीय समाज विभिन्न खांचों में बंटा हुआ है और ऐसी कोई अकेली पार्टी नहीं जो सभी को भरोसा दिला सके और ऐसा कोई तरीका नहीं कि यह कहा जा सके कि कांग्रेस लोगों का वह भरोसा दोबारा जीत सकेगी।
(कुमार केतकर वरिष्ठ पत्रकार और कांग्रेस से राज्यसभा सांसद हैं।)
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