सवालों के जवाब देने के बजाय विपक्ष पर बरसते हुए उनसे बच निकलने की सत्ताधीशों की जो तरकीब पिछले दस सालों में खूब परवान चढ़ी है, गत दिनों उत्तर प्रदेश विधानसभा में उसमें तब एक नया अध्याय जुड़ा जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रश्नाकुल विपक्ष को लताड़ते हुए यहां तक कह डाला कि मैं यहां (मुख्यमंत्री पद पर) नौकरी करने नहीं आया हूं। कतई नहीं।... मेरे लिए यह प्रतिष्ठा की लड़ाई भी नहीं है।... मुझे इससे ज्यादा प्रतिष्ठा अपने मठ में मिल जाती है।
ऐसे में, जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, राजनीतिक नजरिया रखने वाले उनके इस कथन का एक यह अर्थ भी निकालने लगे कि वे (योगी) ‘यहां’ अभीष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर पा रहे। लेकिन चूंकि विपक्ष के पास इस अर्थ के सहारे उन्हें तुर्की ब तुर्की विधानमंडल में ही नए सवालों से घेर लेने की सहूलियत हासिल नहीं थी, इसलिए उसके सवाल मुख्य विपक्षी दल सपा के सुप्रीमो अखिलेश यादव की ओर से सोशल मीडिया पर सामने आए: ‘दिल्ली का गुस्सा लखनऊ में क्यों उतार रहे हैं? सवाल ये है कि इनकी प्रतिष्ठा को ठेस किसने पहुंचाई? कह रहे हैं सामने वालों (यानी विपक्ष) से पर बता रहे हैं पीछे वालों को। कोई है पीछे?
दरअसल, योगी विधानसभा में यह सब बोल रहे थे, तो उनके ठीक पीछे नौकरशाह (गुजरात कैडर के आईएएस) से नेता बने ए के शर्मा बैठे हुए थे जिनकी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चहेते की छवि है। जानकारों के अनुसार, गत विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें प्रदेश में सक्रिय किया गया, तो उसके पीछे योगी को किनारे लगाने की मंशा थी जो भले ही अभी तक फलीभूत नहीं हुई, बदली नहीं है।
लेकिन योगी की इस आत्माभिव्यक्ति से सपा-भाजपा की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता, भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष और मोदी-योगी अंतर्विरोध से परे भी कई सवाल उठते हैं जिनको तत्काल जवाब की जरूरत है- इस विडंबना के चलते और भी कि मुख्यमंत्री के तौर पर वीवीआईपी ट्रीटमेंट के साथ राजकोष से भारी-भरकम वेतन-भत्ते, अमला-बंगला, और कार-हेलीकाप्टर वगैरह लेने के बावजूद योगी कहते हैं कि मैं यहां नौकरी करने नहीं आया। कहने की जरूरत नहीं, खुद को उसकी बंदिशों से परे रखने के लिए। ऐसे में उनसे इतना तो पूछा ही जा सकता है कि अरे भाई, नौकरी और कैसी होती है? जानकारों के मुताबिक, वह अपने मूल रूप में सेवा का ही पर्याय है और डॉ. राममनोहर लोहिया प्रधानमंत्री तक को ‘सदन का नौकर’ ही कहा करते थे।
इससे भी बड़ा सवाल यह कि अगर योगी को लगता है कि उनको मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने से ज्यादा प्रतिष्ठा उनके मठ में मिल जाती है, तो क्या उनकी निगाह में मुख्यमंत्री का पद उनके गोरक्षपीठाधीश्वर वाले पद से कम प्रतिष्ठित है? अगर हां, तो इस बात में संदेह की पर्याप्त गुंजाइश है कि मुख्यमंत्री पद से जुड़ी प्रतिष्ठा को आंकने की उनकी कसौटी किंचित भी संवैधानिक या लोकतांत्रिक रह गई है या नहीं। इस संदेह की भी कि कहीं यह कसौटी धर्मसत्ता और राजसत्ता के पुराने द्वंद्वों को नया करने वाली तो नहीं?
प्रतिष्ठा है क्या चीज?
बहरहाल, आगे बढ़ने से पहले समझ लेते हैं कि प्रतिष्ठा वास्तव में होती क्या है? विकीपीडिया के एक पेज पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, यह सामाजिक स्तरीकरण का उपकरण है जो सामाजिक समूह में किसी इकाई को खास स्थान और महत्व प्रदान किए जाने की स्थिति व्यक्त करता है। इसके दो मूल आधार माने गए हैं- कर्म और कुल। अनेक सामाजिक समूहों में ये दोनों स्रोत एक साथ सक्रिय मिलते हैं। संस्कृत साहित्य में प्रतिष्ठा के संबंध में रामायण, महाभारत आदि महाख्यानों से लेकर नीतिग्रंथों और शास्त्रों में विभिन्न तरह की धारणाएं मिलती हैं। इसे एक ओर प्रगति का स्रोत माना गया है, तो कई लोगों द्वारा इसे अवनति के स्रोत के रूप में भी चिन्हित किया गया है। ‘प्रतिष्ठा शूकरोविष्ठा’ की धारणा के अनुसार, मात्र सम्मान पाने के दृष्टिकोण से किया गया काम सुअर के मल के समान होता है। ऐसी प्रतिष्ठा की आकांक्षा अपने आप में व्यर्थ और अपवित्र परिणाम मूलक होती है।
शब्दकोशों में प्रतिष्ठा के अस्मिता, आन-बान, धाक, रुतबे और साख वगैरह से जुडे कई और अर्थ भी दिए गए हैं जबकि अंग्रेजी में जो ‘रेप्यूटेशन’ और ‘प्रेस्टिज’ शब्द प्रतिष्ठा के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। उनके अनुसार, प्रतिष्ठा ‘ओवरआल क्वालिटी ऑर करेक्टर ऐज सीन ऑर जज्ड बाई पीपुल इन जनरल’ और ‘ए हाई स्टैंडिंग अचीव्ड थ्रू सक्सेज ऑर इन्फ्लूयंस ऑर वेल्थ इटसिटरा’ है।
कौन बता सकता है कि आज की तारीख में यह ‘ओवरआल क्वालिटी’ और ‘हाईस्टैंडिंग’ धर्मसत्ता के अधीशों के पास ज्यादा है या राजसत्ता के? या कि दोनों ही कर्तव्यच्युत होकर ‘पीपुल इन जनरल’ की निगाह में इनसे वंचित हो गए हैं? क्या पता, योगी इस सवाल से जूझते हुए यह याद करना भी चाहेंगे या नहीं कि जहां दुनिया का इतिहास राज और धर्म इन दोनों सत्ताओं के बीच ‘तू बड़ा कि मैं’ के संघर्षों से भरा पड़ा है, वहीं, इनकी मिलीभगत ने भी दुनिया में कुछ कम गुल नहीं खिलाए हैं। इन्हीं गुलों के चलते आगे चलकर धर्म और राजनीति में दूरी की जरूरत महसूस की जाने लगी और धर्मनिरपेक्षता का वह सिद्धांत अस्तित्व में आया जिसका मजाक उड़ाने का योगी कोई मौका शायद ही छोड़ते हों।
छोड़ें भी भला क्यों, जब उन्होंने उसके विपरीत धर्म और राजनीति के घालमेल के दौर में ही अपना ‘उद्भव और विकास’ देखा है। फिर भी जानें क्यों, वह यह भी नहीं देख पाते कि इस दौर में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के लाभार्थी धर्माधीशों की लगातार बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं कहीं से नहीं जतातीं कि वे धर्मसत्ता में अपनी स्थिति से ज्यादा संतुष्ट अनुभव करते हैं। करते तो अपेक्षाकृत ‘कम प्रतिष्ठित’ राजनीतिक सत्ता के पदों की मारामारी में शामिल होकर अपना ‘अवमूल्यन’ क्यों कराते?
केर-बेर को संग!
हां, इस ‘क्यों’ का अन्य धर्माधीशों के पास कोई उत्तर हो या नहीं, योगी के पास है। यह कि ‘मैं यहां इसलिए हूं कि वह (अपराधी) करेगा, तो भुगतेगा’। लेकिन उनका यह उत्तर भी धर्माधीश के रूप में उनकी सीमा ही उजागर करता है, प्रतिष्ठा नहीं। धर्माधीश के रूप में वे कितने भी ‘प्रभुत्वसंपन्न’ क्यों न रहे हों, किसी अपराधी की (इस जीवन में, ‘अगले जन्म’ की बात और है) ‘करेगा तो भुगतेगा’ की नियति सुनिश्चित नहीं कर सकते थे। ऐसा करने की शक्ति उन्हें राजसत्ता के मुख्यमंत्री पद ने ही दी है।
अन्यथा कौन नहीं जानता कि 2007 में वे सांसद रहते हुए भी इतने ‘असहाय’ अनुभव कर रहे थे कि लोकसभा में अपनी पीड़ा बताते हुए रो पड़े थे। ताज्जुब कि जिस पद ने उन्हें वैसी असहायता से उबारकर इतनी शक्ति बख्शी कि उनकी निगाह में जो भी अपराधी हो, उसे उसके अंजाम तक पहुंचा दे, उस पर प्रतिष्ठित होना अब उन्हें कमतर लगने लगा है।
काश, वे समझते कि असहायता और प्रतिष्ठा का संग केर-बेर के संग जैसा होता है और लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित राजसत्ता का प्रतिनिधि इस मायने में ज्यादा शक्तिसंपन्न होता है कि लोकतंत्र की अवधारणा का जन्म ही धर्मों या उनके प्रतिनिधि सम्राटों, महाराजाओं, बादशाहों, शहंशाहों और तानाशाहों के राज को नकारने की शुरुआत से हुआ है। इतना ही नहीं, आज लोकतंत्र के दुर्दिन में भी जनता में बदल चुकी प्रजा फिर से प्रजा बनने को राजी नहीं है। वह समझती है कि देश में लोकतंत्र नहीं होता, तो योगी मुख्यमंत्री होने का सपना तो खैर क्या देखते, उन्हें आंसू बहाने के लिए लोकसभा भी नसीब नहीं होती!
दरअसल, योगी की मुश्किलें दूसरी तरह की हैं और इस कारण कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं कि उन्हें उस ‘दूसरी तरह’ को स्वीकारना गवारा नहीं। न वह धर्माधीश के तौर पर धर्म के किसी उदात्त मूल्य के पैरोकार बन पाए हैं और न राजनेता के तौर पर लोकतांत्रिक उदारता के जबकि इन दोनों के समन्वय से वह कम-से-कम उन लोगों की निगाह में जो धर्म को दीर्घकालिक राजनीति और राजनीति को तात्कालिक धर्म मानते रहे हैं, सोने में सुहागा जैसी स्थिति पा सकते थे।
तब उन्हें धर्मसत्ता में अपनी प्रतिष्ठा की धौंस देने की जरूरत भी नहीं ही महसूस होती और कौन जाने, भाजपा के बाहर भी कुछ स्वीकृति प्राप्त हो जाती जबकि अभी वह उसमें ही पूर्ण स्वीकृति नहीं प्राप्त कर पाए हैं। तभी, और तो और, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी उनके द्वारा विधानसभा में पारित कराए गए बहुचर्चित नजूल संपत्ति बिल को विधान परिषद में पारित नहीं होने देते- उसे रोकने के लिए विपक्ष की भूमिका निभाने पर उतर आते हैं।
प्रसंगवश, अभी तक जितने भी संत या भक्त कवि या किसी भी रूप में इस देश की सहज स्मृति में बसे हैं, उनमें किसी ने भी कभी अपने मठ या मंदिर में प्रतिष्ठित होने की डींग नहीं हांकी। न ही सीकरी की लालसा रखी। कुम्भनदास ने तो उलटे यह भी पूछ डाला: ‘संतन को कहां सीकरी सों काम? आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम!
कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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