विचार

राम पुनियानी का लेखः कोरोना संकट में इंसानियत ने नफरत को हराया, कई आंधियों के बाद भी रौशन है शमा

आज की सरकार को हिंदू और मुसलमान का एका और उनके बीच सौहार्द मंजूर नहीं है। यही वजह है कि वो शहरों तक के नाम बदल रही है। लेकिन इन्हें नहीं पता कि हमारे समाज की रग-रग में प्रेम और सौहार्द है। कोरोना काल में हमें हमारी संस्कृति के इसी पक्ष के दर्शन हो रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

इस समय हमारा देश कोरोना महामारी की विभीषिका और उससे निपटने में सरकार की भूलों के परिणाम भोग रहा है। इस कठिन समय में भी कुछ लोग इस त्रासदी का उपयोग एक समुदाय विशेष का दानवीकरण करने के लिए कर रहे हैं। नफरत के ये सौदागर, टीवी और सोशल मीडिया जैसे शक्तिशाली जनसंचार माध्यमों के जरिये धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं।

इस अभियान में फेक न्यूज एक बड़ा हथियार है। यह सब देख कर किसी को भी ऐसा लग सकता है कि दोनों समुदायों के बीच इतनी गहरी खाई खोद दी गई है कि उसे भरना असंभव नहीं तो बहुत कठिन जरूर है। परन्तु इस अंधेरे में भी आशा की एक किरण है। और वह है दोनों समुदायों के लोगों का एक दूसरे की मदद के लिए आगे आना।

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सांप्रदायिक सौहार्द की सबसे मार्मिक घटना अमृत और फारूख से जुड़ी है। वे एक ट्रक से सूरत से उत्तर प्रदेश जा रहे थे। रास्ते में अमृत बीमार पड़ गया और अन्य मजदूरों ने संक्रमण के डर से उसे आधी रात को ही रास्ते में उतार दिया। परंतु वह अकेला नहीं था। उसका साथी फारूक भी उसके साथ ट्रक से उतर गया। उसने सड़क किनारे अमृत को अपनी गोद में लिटाया और मदद की गुहार लगाई। अन्य लोगों ने उसकी मदद की और जल्दी ही एक एम्बुलेंस वहां आ गई, जिसने अमृत को अस्पताल पहुंचाया।

एक अन्य घटना में एक मजदूर, जिसका बच्चा विकलांग था, ने एक अन्य मजदूर की साइकिल बिना इजाजत के ले ली। उसने एक कागज पर बस यह संदेश लिख छोड़ा कि उसे उसके बच्चों के साथ दूर जाना है और उसके पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह साइकिल चुरा ले। इस चोरी का साइकिल के मालिक प्रभु दयाल ने इसका जरा भी बुरा नहीं माना। साइकिल ले जाने वाले शख्स का नाम था मोहम्मद इकबाल खान।

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मुंबई के सेवरी में पांडुरंग उबाले नामक एक बुजुर्ग की अधिक उम्र और अन्य बीमारियों से मौत हो गई। लॉकडाउन के कारण उसके नजदीकी रिश्तेदार उसके घर नहीं पहुंच सके। ऐसे में उसके मुस्लिम पड़ोसी आगे आए और उन्होंने हिंदू विधि-विधान से उसका क्रियाकर्म किया। इसी तरह की कुछ घटनाएं बेंगलुरू और राजस्थान समेत कई शहरों से भी सामने आईं।

दिल्ली के तिहाड़ जेल में हिंदू बंदियों ने अपने मुसलमान साथियों के साथ रोज़ा रखा। पुणे में एक मस्जिद (आज़म कैंपस) और मणिपुर में एक चर्च को क्वारंटाइन केंद्र के रूप में इस्तेमाल के लिए अधिकारियों के हवाले कर दिया गया। दिल को छू लेने वाले एक अन्य घटनाक्रम में, एक मुस्लिम लड़की ने एक हिंदू घर में शरण ली और इतना ही नहीं मेजबानों ने तड़के उठकर उसके लिए सेहरी का भी इंतजाम किया।

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ऐसे और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। यह भी साफ है कि ऐसी असंख्य घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई होंगी और उनमें से बहुत कम मीडिया में स्थान पा सकी होंगी। कोरोना के हमले के बाद से जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा था, जिस धड़ल्ले से कोरोना बम और कोरोना जिहाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल हो रहा था, उससे ऐसा लग रहा था कि सांप्रदायिक तत्त्व हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे का दुश्मन बनाने के अपने अभियान में सफल हो जाएंगे।

लेकिन आखिरकार यह सिद्ध हुआ कि नफरत फैलाने वाले भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। धार्मिक राष्ट्रवादियों की लाख कोशिशों के बाद भी वह बंधुत्व और सद्भाव, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम की विरासत है, मरा नहीं है। वह आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है।

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भारतीय संस्कृति मूलतः सांझा संस्कृति है जो विविधताओं को अपने में समाहित कर लेती है। भारत के मध्यकालीन इतिहास को अक्सर एक स्याह दौर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। संप्रदायवादी लेखक उसे एक ऐसे दौर के रूप में चित्रित करते हैं जिसमें हिंदुओं को घोर दुख भोगने पड़े। परंतु यही वह दौर था जब भक्ति परंपरा फली-फूली और भारतीय भाषाओं में विपुल साहित्य सृजन हुआ।

यही वह दौर था जिसमें राजदरबारों की भाषा फारसी और जनता की भाषा अवधी के मेल से उर्दू का जन्म हुआ। यही वह दौर था जब गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम की कथा एक जनभाषा में लिखी। तुलसीदास ने अपनी आत्मकथा ‘कवितावली’ में लिखा है कि वे मस्जिद में सोते थे। उसी दौर में अनेक मुस्लिम कवियों ने हिन्दू देवी-देवताओं की शान में अद्भुत रचनाओं का सृजन किया। रहीम और रसखान ने भगवान श्रीकृष्ण पर जो कविताएं लिखीं हैं, आज तक उनका कोई जोड़ नहीं है।

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हमारे देश के खानपान, पहनावे और सामाजिक जीवन पर इन दोनों धर्मों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। भारतीयों के जीवन पर ईसाई धर्म का असर भी सबके सामने है। यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच प्रेमपूर्ण रिश्तों का प्रतीक ही तो है कि जहां कई मुसलमान कबीर जैसे भक्ति संतों के अनुयायी हैं, वहीं अनेक हिंदू सूफी संतों की दरगाहों पर चादर चढ़ाते हैं। हिंदी फिल्में भी इस सांझा संस्कृति को प्रतिबिंबित करतीं हैं। कितने ही मुस्लिम गीतकारों ने दिल को छू लेने वाले भजन लिखे हैं। इनमें से मेरा सबसे पसंदीदा है ‘मन तड़फत हरि दर्शन को आज’। इस भजन को शकील बदायूंनी ने लिखा था, संगीत दिया था नौशाद ने और गाया था मुहम्मद रफ़ी ने।

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हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादियों और अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी हमारे स्वाधीनता आन्दोलन का मूल चरित्र बना रहा। सभी धर्मों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर यह लड़ाई लड़ी। कई रचनकारों ने विविध समुदायों के मेल के शब्दचित्र खींचे हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और देश के बंटवारे के बाद जो सांप्रदायिक हिंसा फैली, उसे नियंत्रित करने में गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर महात्मा गांधी तक ने महती भूमिका निभाई।

गुजरात में वसंत राव हेंगिस्ते और रजब अली नामक दोस्तों ने सांप्रदायिक पागलपन के खिलाफ लड़ाई में अपनी जान गंवा दी। आज की सरकार को हिंदुओं और मुसलमानों का एका, उनके बीच प्रेम और सौहार्द मंजूर नहीं है। और यही कारण है कि वो शहरों (इलाहाबाद, मुगलसराय) तक के नाम बदल रही है। लेकिन इन्हें नहीं पता कि हमारे समाज की रग-रग में प्रेम और सांप्रदायिक सौहार्द है। कोरोना काल में हमें हमारी संस्कृति के इसी पक्ष के दर्शन हो रहे हैं।

(लेख का हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)

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