साइमन लेविस और मार्क मस्लिन ने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक, “द ह्यूमन प्लेनेट - हाउ वी क्रिएटेड द अन्थ्रोपोसीन” में मानव विकास को क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया है। पहले दौर में मनुष्य शिकारी था, फिर खेती करने लगा। इसके बाद सुदूर व्यापार करने लगा और व्यापार के नाम पर सत्ता हड़पने लगा। इसके बाद औद्योगिक युग आया और सबसे बाद में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी व्यवस्था उभरी। हरेक दौर में मानव पहले से अधिक विकसित होता गया और साथ ही ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढ़ता गया। हरेक दौर में सूचनाएं भी पिछले दौर से अधिक उपलब्ध होने लगीं। हरेक नए दौर में जनसंख्या भी पहले से अधिक बढ़ती गयी। यहां तक प्रकृति हमसे अधिक शक्तिशाली थी, पर वर्त्तमान दौर विकास की अगली सीढ़ी है, इसे मानव युग कह सकते हैं क्योकि अब प्रकृति पर पूरा नियंत्रण मनुष्य का है और मानवीय गतिविधियां प्रकृति से अधिक सशक्त हो गयी हैं।
वर्त्तमान में मानव की गतिविधियों से जितनी मिट्टी, पत्थर और रेत अपनी जगह से हटाई जाती है, वह सभी प्राकृतिक कारणों से हटने वाली कुल मात्रा से बहुत अधिक है। हरेक वर्ष जितने कंक्रीट का उत्पादन किया जाता है उससे पूरी पृथ्वी पर 2 मिलीमीटर मोटी परत चढ़ाई जा सकती है। प्लास्टिक का उत्पादन कुछ वर्षों के भीतर ही इतना किया जा चुका है कि इसके अवशेष माउंट एवरेस्ट से लेकर मरिआना ट्रेंच (महासागरों में सबसे गहराई वाला क्षेत्र) तक मिलने लगा है। विश्व के आधे पेड़ काटे जा चुके हैं, और बहुत बड़ी संख्या में प्रजातियां मानव की गतिविधियों के कारण विलुप्त हो रही हैं। वायुमंडल से प्राकृतिक कारणों से जितनी नाइट्रोजन हटती है, उससे अधिक औद्योगिक उत्पादन और कृषि से हट जाती हैं। वायुमंडल में जितनी कार्बन डाइऑक्साइड मानव की गतिविधियां मिला रही हैं, वह अभूतपूर्व है और इससे जलवायु पूरी तरह बदल रहा है। पूरी दुनिया में 4.8 अरब टन खाद्यान्न उपजता है, 4.8 अरब मवेशी हैं, 1.2 अरब मोटर-वाहन हैं, 2 अरब पर्सनल कंप्यूटर हैं और 7.5 अरब से अधिक फ़ोन हैं।
कुल मिलाकर हम बहुत ही खतरनाक दौर में पहुंच गए हैं और संभव है कि मानव की गतिविधियां ही इसके विनाश का कारण बन जाएं। आज के दौर में समस्या केवल प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने की ही नहीं हैं, बल्कि हम सभी चीजों को बदलते जा रहे हैं। वायुमंडल को बदल दिया, भूमि की संरचना को बदल दिया, साधारण फसलों से जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों पर पहुंच गए, नए जानवर बनाने लगे, जीन के स्तर तक जीवन से छेड़छाड़ कर रहे हैं। अब तो कृत्रिम बुद्धि का ज़माना आ गया है। संभव है कि आने वाले समय में पृथ्वी पर सब कुछ बदल जाए, पर प्रकृति पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा कोई नहीं जानता।
Published: 01 Jul 2018, 9:01 AM IST
लेखकों के अनुसार, आज के दौर में भी यदि प्रकृति को बचाना है तो सबको एक समान वेतन (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) देना पड़ेगा। यह सब पर लागू होगा, जो काम करेगा और जो काम नहीं भी करेगा। अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान के इस सिद्धांत पर पश्चिमी देशों में खूब बहस होती है और कुछ प्रयोग भी किये गए हैं। इस सिद्धांत के पक्ष में तर्क यह है कि अधिक वेतन से आप अधिक चीजें खरीदते हैं, अधिक उपभोग करते हैं और पर्यावरण का अधिक विनाश करते हैं। जब अधिक और कम का फर्क मिट जाएगा तब उपभोग अपने आप कम होगा और पर्यावरण अधिक सुरक्षित होगा। पर, समस्या यह है कि जब बिना काम किये भी उतनी ही आमदनी होनी है, जितना काम करने पर तो फिर काम करने वाले कहां से आयेंगे?
दूसरा तरीका है, मनुष्य का आधी पृथ्वी पर सिमट जाना और शेष आधी पृथ्वी को अन्य सभी प्रजातियों के लिए छोड़ देना। विश्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद ईओ विल्सन के अनुसार, आधी पृथ्वी को जंतुओं और वनस्पतियों के लिए छोड़ देना चाहिए, पर सभी देश इसे आर्थिक विकास में बाधा मानते हैं। प्रजातियों और जंगलों को बचाने की जितनी जोर-शोर से मुहिम चलाई जाती है, जंगलों के काटने की दर उससे तेजी से बढ़ती जाती है।
किताब के अंत में एक आशा जगती है कि विनाश इसलिए रुकेगा क्योंकि मानव पहले से अधिक समझदार हो गया है। पर, वास्तविकता भयानक है और अकल्पनीय भी। अकल्पनीय इसलिए कि किस प्रयोगशाला में क्या चल रहा है, कौन से जीन परिवर्तित किए जा रहे हैं, कौन सा नया जानवर बनाने का प्रयास किया जा रहा है या फिर किसका क्लोन बन रहा है, यह कोई नहीं जानता।
Published: 01 Jul 2018, 9:01 AM IST
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Published: 01 Jul 2018, 9:01 AM IST