विचार

सिर में चोट के लिए पैर पर मरहम लगाने जैसा है मोदी सरकार का ताजा ऐलान, ऐसे कैसे आर्थिक संकट से उबरेगा देश!

आर्थिक संकट से उबरने के लिए मोदी सरकार के ताजा उपाय तो बेअसर नजर आ रहे हैं, लेकिन निर्मला सीतारमण का तीसरा आइडिया सबसे चमकदार है। उन्होंने अगले साल चार शहरों में दुबई, सिंगापुर व हांगकांग के तर्ज पर सालाना शॉपिंग फेस्टिवल आयोजित करने का ऐलान किया है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

जिस वित्त मंत्री को देश की अर्थव्यवस्था में 7.5 प्रतिशत और मैन्यूफैक्चरिंग में 49 प्रतिशत योगदान करने वाले ऑटो उद्योग की समस्या युवा पीढ़ी के ओला-उबर की तरफ झुकने में नजर आती हो, जिस सरकार के मुखिया का विकास मॉडल दूसरों के काम का श्रेय लेने पर टिका हो, जिसने गुजरातियों की उद्यमशीलता को भुनाने का ही उद्यम किया हो, उससे हम इसी तरह छिछली खिलाने की उम्मीद कर सकते हैं, समस्याओं के सार्थक समाधान की नहीं।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और खासकर शेयर ब्रोकर से कॅरिअर शुरू करने वाले हमारे गृहमंत्री और बीजेपी प्रमुख अमित शाह ने सोच लिया होगा कि सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सितंबर के दूसरे हफ्ते में जिन कदमों की घोषणा की है, उससे अगले हफ्ते सोमवार को शेयर बाजार बम-बम कर उठेगा। लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी पेट्रोलियम तेल कंपनी सऊदी अराम्को के ठिकानों पर हुए ड्रोन हमले ने ऐसा पलीता लगाया कि शेयर बाजार धड़ाम हो गया। इससे उठी धुंध में पता लगाना असंभव है कि सरकार की शनिवारी घोषणा न हुई होती तो यह शनिचरी प्रभाव कितना ज्यादा मारक हो सकता था।

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खैर, इतना जरूर साफ हो गया है कि एक ही दिन में प्रति बैरल 60 डॉलर से 20 प्रतिशत उछलकर 72 डॉलर तक जा पहुंचे कच्चे तेल से भारत का सालाना आयात बिल 1.28 लाख करोड़ रुपये बढ़ जाएगा। सरकारी आकलन के अनुसार, कच्चे तेल के दाम में हरेक डॉलर वृद्धि पर हमारा सालाना आयात बिल 10,700 करोड़ रुपये बढ़ जाता है। हम अपनी जरूरत का लगभग 83 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करते हैं और कच्चे तेल के इस तरह मंहगे हो जाने का सीधा-सा मतलब होगा कि हमारा आयात बिल एकबारगी 20 प्रतिशत बढ़ सकता है। अगर निर्यात इससे ज्यादा रफ्तार से नहीं बढ़े तो देश का व्यापार घाटा बढ़ता चला जाएगा।

वित्तमंत्री सीतारमण ने इसी निर्यात को बढ़ाने के लिए 50,000 करोड़ रुपये की प्रोत्साहन योजना की घोषणा की है। एक तो यह अभी तक चल रही लगभग 45,000 करोड़ रुपये की प्रोत्साहन योजना का विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की शर्तों को पूरा करने के लिए मजबूरी में लाया गया नया संस्करण है। दूसरे, कच्चे तेल में लगी आग ने इससे होने वाले लाभ की बची-खुची आस भी खाक कर दी है।

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बता दें कि हमारा निर्यात बीते वित्त वर्ष 2018-19 में 330 अरब डॉलर रहा। यह पांच साल पहले 2013-14 के निर्यात 314 अरब डॉलर से मात्र 5.09 प्रतिशत ज्यादा है और इसकी सालाना चक्र वृद्धि दर एक प्रतिशत निकलती है। फिर भी कमाल है कि सरकार हर साल निर्यात के 19-20 प्रतिशत बढ़ने का मंसूबा पाले हुए है। वह भी तब, जब विश्व अर्थव्यवस्था ठहराव का शिकार है और अमेरिका, यूरोप और चीन-जैसे बड़े बाजारों के बीच व्यापार-युद्ध छिड़ा हुआ है।

हकीकत यह है कि चालू वित्त वर्ष 2019-20 में अगस्त महीने में हमारा निर्यात साल भर पहले की समान अवधि से 6.05 प्रतिशत घट गया। ध्यान दें कि वित्त मंत्री ने इस पृष्ठभूमि में निर्यात बढ़ाने के लिए जो स्कीम घोषित की है, उसके तीन अहम पहलू हैं। एक, निर्यातकों को जीएसटी व अन्य ड्यूटी जल्दी से जल्दी रिफंड कर दी जाएगी। अभी तक सरकार निर्यातकों को ड्यूटी क्रेडिट देने की जो स्कीम चला रही थी, वह डब्ल्यूटीओ की शर्तों को नहीं पूरा करती थी तो उसकी जगह 1 जनवरी, 2020 से नई स्कीम शुरू की जा रही है।

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निर्यातकों को दूसरी सहूलियत यह दी गई है कि एक्सपोर्ट क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (ईसीजीसी) अब बैंकों द्वारा निर्यातकों को दिए जाने वाले कार्यशील पूंजी ऋण पर ज्यादा बीमा कवर देगा। इससे निर्यात में लगे छोटे और मध्यम (एमएसएमई) उद्यमों का बीमा प्रीमियम घट सकता है और सरकार पर सालाना लगभग 1700 करोड़ रुपये का बोझ बढ़ जाएगा। निर्यातकों को सस्ता-सहज ऋण मिल जाए, इसके लिए बैंकों द्वारा निर्यातकों को दिए गए ऋण को रिजर्व बैंक से बात करने के बाद प्राथमिकता क्षेत्र के ऋण के तहत लाया जाएगा। इससे हो सकता है कि निर्यात के लिए 36,000 से 68,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त ऋण मिल जाए।

निर्यात को सुगम बनाने के तीसरे उपाय के बारे में वित्तमंत्री का कहना था कि इस समय अमेरिका का बोस्टन बंदरगाह निर्यात को 0.55 दिन और चीन का शांघाई बंदरगाह 0.83 दिन में प्रोसेस कर देता है, जबकि हमारा सबसे अच्छा कोच्चि बंदरगाह इसमें 1.10 दिन लगा देता है। हम इसे बेहतर टेक्नोलॉजी के दम पर विश्व के समकक्ष ले आएंगे।

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इन तीन उपायों से निश्चित रूप से निर्यातकों को राहत मिलेगी। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इससे दुनिया में हमारे निर्यात की मांग बढ़ पाएगी? हमने पांच साल पहले ‘मेक इन इंडिया’ स्कीम चलाकर भारत में उत्पादन कर दुनिया को निर्यात करने का इरादा किया था, उसका क्या हुआ? इसके विरोध में तभी कहा गया था कि सिकुड़ती विश्व अर्थव्यवस्था के दौर में ‘मेक फॉर इंडिया’ ज्यादा सार्थक स्कीम होगी। क्या आज देश में मांग को बढ़ाने और उसे पूरा करते हुए उत्पादन करने की जरूरत नहीं है?

वित्तमंत्री ने हाउसिंग क्षेत्र को प्रोत्साहन दिए जाने के नाम पर भी इसी तरह सिर में लगी चोटके लिए पैर पर मरहम लगाने जैसा काम किया है। उन्होंने 20,000 करोड़ रुपये का पैकेज घोषित किया। इसमें से 10,000 करोड़ रुपये सरकार देगी जबकि बाकी 10,000 करोड़ रुपये एलआईसी, विदेशी वेल्थ फंड, वित्तीय संस्थाएं, निजी क्षेत्र और अन्य निवेशक लगाएंगे। इससे धन के अभाव में अटके उन हाउसिंग प्रोजेक्ट की मदद की जाएगी जो अभी तक बैंकों का ऋण समय पर चुकाते रहे हैं और एनपीए नहीं बने हैं। आर्थिक मामलों के सचिव अतनु चक्रवर्ती कहते हैं कि इससे देश भर में अधूरे पड़े 3.5 लाख मकानों को पूरा करने में मदद मिलेगी। वहीं, उद्योग के जानकार बताते हैं कि इससे उन प्रोजेक्टको फायदा होगा जो 25 प्रतिशत तक पूरे हो चुके हैं और इनमें अटके मकानों की संख्या बमुश्किल 50,000-60,000 होगी।

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सरकार और उद्योग के अलग-अलग दावे दिखाते हैं कि अफोर्डेबल हाउसिंग के नाम पर किन प्रोजेक्ट को इस पैकेज का लाभ दिया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। आखिर, कैसे इन्हें चुना जाएगा क्योंकि बिल्डरों ने सैकड़ों प्रोजेक्ट खड़े कर रखे हैं जिनमें घर खरीदने वालों के हजारों करोड़ रुपये फंसे हुए हैं? साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि इस समय देश में अनबिके मकानों का अंबार लगा हुआ है। रियल एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म लायसेज फोरास के मुताबिक, देश के 30 शीर्ष शहरों में इस समय 12.76 लाख मकान अनबिके पड़े हैं। कोच्चि में 80 महीने, जयपुर में 59 महीने, लखनऊ में 55 महीने और चेन्नई में 72 महीने की इन्वेंटरी पड़ी है, जिसे निकालने में बिल्डरों को पांच से सात साल लग जाएंगे। सवाल उठता है कि जब पहले से इतने सारे मकान अनबिके पड़े हों, तब उनकी संख्या और बढ़ा देने से कैसे समस्या सुलझ सकती है?

इस तरह निर्यात और हाउसिंग क्षेत्र के प्रोत्साहन उपाय तो स्पष्ट रूप से बेअसर होते नजर आ रहे हैं। लेकिन निर्मला सीतारमण का तीसरा आइडिया बड़ा जगमगाता दिख रहा है। उन्होंने तय किया है कि मार्च, 2020 से देश के चार शहरों में दुबई, हांगकांग व सिंगापुर जैसे सालाना शॉपिंग फेस्टिवल आयोजित किए जाएंगे। इसमें भारत के रत्न-आभूषण और टेक्सटाइल-लेदर सामान खासतौर पर बेचे जाएंगे। उनको जरूर लगता होगा कि इससे भारत जैसे विशाल देश में छाई आर्थिक सुस्ती को तोड़ा जा सकता है। हम उनकी सोच की बलिहारी जाते हैं !

असल में जिस वित्तमंत्री को देश की अर्थव्यवस्था में 7.5 प्रतिशत और मैन्यूफैक्चरिंग में 49 प्रतिशत योगदान करने वाले ऑटो उद्योग की समस्या युवा पीढ़ी के ओला-उबर की तरफ झुकने में नजर आती हो, जिस सरकार के मुखिया का सारा का सारा विकास मॉडल केवल दूसरों के काम का श्रेय लेने पर टिका हो, जिसने गुजरात में साढ़े बारह साल तक छह करोड़ गुजरातियों की उद्यमशीलता को भुनाने का ही उद्यम किया हो, उससे हम इसी तरह छिछली खिलाने की उम्मीद कर सकते हैं, समस्याओं के सार्थक समाधान की नहीं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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