इस साल 3 अप्रैल को योजना राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने राज्यसभा में कहा कि सरकार के पास गरीबी का अनुमान लगाने के लिए 2011-12 के बाद का कोई डेटा नहीं है और इसलिए उसे पता नहीं है कि उसके बाद कितने लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया है।
हालांकि 18 जुलाई को यूएनडीपी ने घोषणा की कि 2005 और 2019 के बीच भारत ने 41.5 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है; बेशक इसमें महामारी के बाद की अवधि की जानकारी नहीं थी लेकिन महामारी से पहले की अवधि के लिए इसने जो कहा, उस पर खूब चर्चा हुई। हालांकि इस प्रचार में जो बात रह गई, वह यह थी कि न केवल यूएनडीपी की गरीबी की अवधारणा आम तौर पर इस शब्द से निकलने वाले अर्थ से काफी अलग थी बल्कि यह भी कि यूएनडीपी की अवधारणा न तो सैद्धांतिक रूप से मजबूत है और न ही सांख्यिकीय रूप से स्थापित। यानी इसको लेकर उत्साहित होने का कोई कारण नहीं।
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बेशक भारत का आधिकारिक गरीबी अनुमान अब सीधे तौर पर पोषण संबंधी अभाव पर आधारित नहीं है, फिर भी यह पोषण को एक अहम कारक मानता है; और एनएसएस उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण इन अनुमानों के लिए सांख्यिकीय आधार प्रदान करते हैं। 2011-12 के बाद के वर्षों के लिए गरीबी का अनुमान नहीं लगाया जा सका क्योंकि 2017-18 के लिए अगले सर्वेक्षण के नतीजे केंद्र सरकार ने दबा दिए और तब से कोई सर्वेक्षण हुआ ही नहीं।
इसके उलट, यूएनडीपी किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए कई संकेतकों पर विचार करता है और उन्हें विशिष्ट महत्व देता है। इन संकेतकों में हैं: क्या बॉडी-मास इंडेक्स (बीएमआई) 18.5 से नीचे है; क्या पिछले पांच वर्षों में परिवार में 18 वर्ष से कम आयु के किसी बच्चे की मृत्यु हुई है; क्या घर के किसी सदस्य ने जिसकी उम्र स्कूल में दाखिले की उम्र से कम-से-कम छह वर्ष अधिक हो, ने छह वर्ष की स्कूली शिक्षा पूरी कर ली हो; क्या कोई बच्चा आठवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी कर लेने की उम्र तक स्कूल नहीं जा रहा है; वगैरह।
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किसी भी आधुनिक हो रहे समाज में कुछ सूचकांकों में सुधार की उम्मीद की जाती है: अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में गिरावट; बच्चों को स्कूल भेजने की दर में इजाफा; कम-से-कम छह साल की स्कूली शिक्षा पूरी करना, बेशक बच्चे बाद में स्कूल छोड़ दें; वगैरह। लेकिन ये सब उन स्थितियों में भी देखी जा सकती हैं जब परिवार की आय घट रही हो। दूसरे शब्दों में, जब परिवारों की हालत बदतर हो रही हो और देश में गरीबी बढ़ रही हो, तब भी यूएनडीपी का माप गरीबी में गिरावट दिखा सकता है।
अलग ढंग से कहें तो, यूएनडीपी के शब्दों में वह ‘बहुआयामी गरीबी’ को मापता है जिसमें आधुनिकीकरण का सीधा मतलब होता है गरीबी में गिरावट। हालांकि वास्तविक गरीबी का संबंध केवल ‘आधुनिकीकरण’ से नहीं बल्कि इससे है कि आधुनिकीकरण पर होने वाला खर्च कौन उठा रहा है- कामकाजी लोग या अमीर। और यूएनडीपी के माप में इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता।
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यह सच है कि भारत में ‘आधुनिकीकरण’ तेजी से हो रहा है, और काफी हद तक सरकारी पहल से। यही तथ्य यूएनडीपी माप में दिखता है। किसी परिवार की स्थिति कैसी है, यह उसके खाने से पता चलता है।
इसी कारण गरीबी के आकलन के लिए पोषण एक बुनियादी मानदंड होता है। ऐसा नहीं है कि पोषण ही सब कुछ है लेकिन पोषण की कमी एक लिटमस टेस्ट जरूर है। बेशक, यूएनडीपी अधिकारी तर्क देंगे कि अपर्याप्त पोषण की वे अनदेखी नहीं कर रहे हैं; आखिरकार वे जो सूचकांक तैयार करते हैं, उसमें छठा हिस्सा पोषण का होता है। लेकिन पोषण की कमी से उनका तात्पर्य कुछ अलग है। उनका मतलब कैलोरी या प्रोटीन सेवन में गिरावट नहीं है बल्कि किसी व्यक्ति के बीएमआई का 18.5 से नीचे गिरना है। (बॉडी मास इंडेक्स जो बताता है कि शरीर का वजन हाईट, यानी लंबाई के अनुसार ठीक है या नहीं।)
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कम कैलोरी या प्रोटीन सेवन के संदर्भ में पोषण की कमी के कई प्रभाव होते हैं: यह काम करने की क्षमता को कम कर देता है; यह व्यक्ति को बीमारियों आदि का शिकार बना देता है। बीएमआई में कमी ऐसा ही एक प्रभाव हो सकता है। इसलिए यूएनडीपी पोषण की कमी की बात को तभी मानता है जब इसका बीएमआई 18.5 से नीचे आ जाए।
वास्तव में, बीएमआई में कमी का मतलब यह नहीं है कि यह 18.5 से नीचे ही गिर जाए। बीएमआई के निर्दिष्ट सीमा से नीचे आए बिना, पोषण की कमी काफी समय तक रह सकती है। उदाहरण के लिए, 5 फीट 8 इंच लंबे व्यक्ति का बीएमआई 25 से घटकर 18.5 तभी हो सकेगा जब उसका वजन 18.8 किलोग्राम घट जाए, और यह तभी हो सकता है जब लंबे समय तक पर्याप्त भोजन न मिले। संक्षेप में, पोषण की कमी यूएनडीपी की नजर में आए बिना किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है; और यह इस तथ्य के अलावा है कि इसे केवल 1/6 का भार दिया गया है।
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यूएनडीपी के अनुमान और एनएसएस के व्यापक नमूना सर्वेक्षण से जो पता चला है, उसके बीच का अंतर इस तरह साफ होता है। यूएनडीपी का अनुमान है कि 2005-06 में भारत में 64.5 करोड़ लोग ‘बहुआयामी’ गरीबी के दायरे में थे और 2015-16 तक यह संख्या गिरकर 37 करोड़ हो गई थी। इसका मतलब है कि इन दो तारीखों के बीच 27.5 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया था। इसके अलावा और 14 करोड़ लोग 2015-16 और 2019-20 के बीच गरीबी से बाहर निकले।
इसके विपरीत, 2017-18 में एनएसएस सर्वेक्षण के 75वें दौर में बताया गया कि 2011-12 और 2017-18 के बीच ग्रामीण भारत में वस्तुओं और सेवाओं पर प्रति व्यक्ति वास्तविक खर्च में 9 प्रतिशत की गिरावट आई। यह ऐसी चौंकाने वाली जानकारी थी कि केंद्र सरकार ने डेटा जारी करने के चंद घंटों के भीतर ही इसे सार्वजनिक डोमेन से हटा लिया। (लेकिन उस रिपोर्ट को हटाए जाने से पहले कुछ लोग इसे डाउनलोड करने में कामयाब रहे और इसी वजह से तब कुछ अखबारों में इसकी चर्चा भी हो सकी।)
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2011-12 में गांवों में 68 फीसद ऐसे लोग थे जो रोजाना 2200 कैलोरी नहीं ले रहे थे। कैलोरी के इस स्तर को बेंच मार्क बनाया था योजना आयोग ने। 1993-94 में ऐसे लोगों का प्रतिशत 58 था और 2017-18 तक यह आंकड़ा बढ़कर 77 फीसदी तक पहुंच गया। इस तरह, कम-से-कम उस अवधि के दौरान जब यूएनडीपी का अनुमान है कि लाखों लोगों को ‘बहुआयामी’ गरीबी से बाहर निकाला गया था, वास्तविकता यह थी कि ग्रामीण गरीबी में इतनी तेज वृद्धि हुई थी कि भारत सरकार ने आनन-फानन डेटा को दबा देने का फैसला किया।
अब तक हमने ग्रामीण गरीबी की बात की है। महामारी के समय भारत में बेरोजगारी दर 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी जिससे यह अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं कि इस दौरान गरीबी के कम होने का तो सवाल ही नहीं उठता। यूएनडीपी जो तस्वीर पेश कर रहा था, उसके उलट शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में तेजी ही आई होगी, यह आम समझ की बात है।
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गरीबी भारत में एक गरमागरम बहस का मुद्दा है। यूएनडीपी गरीबी हटाने की गुलाबी तस्वीर के साथ इस बहस में कूद पड़ी है लेकिन वह ‘गरीबी’ शब्द का इस्तेमाल इस बहस में सब से बिल्कुल अलग अर्थ में कर रही है। जब तक कोई इस अंतर को ध्यान में नहीं रखेगा, यह समझना और किसी को भी समझाना मुश्किल होगा कि जो देश 2022 में विश्व भूख सूचकांक में 121 देशों में 107वें स्थान पर खिसक गया है, उसने अचानक करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर कैसे निकाल दिया?
(प्रभात पटनायक अर्थशास्त्री हैं। यह लेख सबसे पहले पीपुल्स डेमोक्रेसी में 30 जुलाई, 2023 को प्रकाशित हुआ था)
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