संसद के शीतकालीन सत्र में जो कुछ हुआ, वह बताता है कि भारतीय लोकतंत्र की दिशा क्या है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बयान की विपक्ष की मांग को जिस अहंकारी भाव से ठुकरा दिया गया और 146 सांसदों- लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 46 सदस्यों, को निलंबित कर दिया गया, उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। संसद की सुरक्षा में सेंध से संबंधित मसले पर शाह ने संसद में नहीं, मीडिया से बात की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लगातार तीन दिनों तक संसद में न आकर संसद से बाहर ‘अधिक महत्वपूर्ण’ कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। इससे संसद की प्रतिष्ठा तो नहीं ही बढ़ी है।
बेरोजगारी और मणिपुर को लेकर प्रधानमंत्री की चुप्पी के खिलाफ 13 दिसंबर को दो युवक दर्शक दीर्घा से संसद में कूद गए थे और उन लोगों ने ऐसा कनस्तर फेंका जिससे नुकसान न पहुंचाने वाली ‘पीली गैस’ निकली। यह या तो अवज्ञा की कार्रवाई या उन बातों की ओर ध्यान दिलाने का निराशा में उठाया कदम था जिन पर उनका यकीन था।
Published: undefined
न तो प्रधानमंत्री और न ही गृह मंत्री ने संसद की बैठकों में हिस्सा लिया। जब उन लोगों ने चुप्पी तोड़ी भी, तो उन्होंने परंपरा और संसदीय शिष्टाचार- दोनों को धता बताते हुए संसद से ही बाहर बोलना उचित समझा। जब संसद का सत्र चल रहा हो, सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर ‘लोकतंत्र के मंदिर’ को विश्वास में लेने की परंपरा रही है; लेकिन गृह मंत्री शाह ने एक टीवी चैनल पर अपनी चुप्पी तोड़ी जबकि प्रधानमंत्री ने एक अखबार से बात की।
विपक्ष के पास अर्थनीति और आर्थिक नीतियों, बेरोजगारी की उच्च दर-संबंधी मुद्दों और नए संसद भवन में कमियों को लेकर मुद्दों को उठाने का अवसर हो सकता था। निस्संदेह, विपक्ष असहमति पर सरकार द्वारा कड़ाई के साथ निबटने और लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के सभी रास्ते बंद कर देने के सवाल उठा सकता था और संभव है, इस वजह से ही इन युवकों ने साहसी लेकिन नाटकीय और अनाड़ी प्रतिरोध का रास्ता अख्तियार किया। विपक्ष के नजरिये से, बहस और सवालों के जवाब की मांग न तो अनुचित, न अभूतपूर्व थी।
Published: undefined
13 दिसंबर, 2001 को जब संसद पर हमला हुआ था, तो यह निश्चित तौर पर अभी 13 दिसंबर को हुई घटना से अधिक गंभीर थी। तुलनात्मक तौर पर कम गंभीर घटना पर विचार-विमर्श के लिए अनुमति न देने की कोई वजह नहीं हो सकती। हालांकि उस समय भी ऐसा हुआ था लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने बयान तो दिए ही थे। संसद से इसी तरह काम करने और सरकार से विपक्ष की बातें सुनने की अपेक्षा होती भी है।
बोलने और सवाल उठाने के विपक्ष के अधिकार से इस आधार पर इनकार कि अध्यक्ष इस मुद्दे पर बोल चुके हैं, एफआईआर दर्ज हो चुकी है और छह लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है, महज थोथा, धोखा भरा, अविश्वसनीय और अस्वीकार्य तर्क है। शीत सत्र के धुल जाने का खतरा मोल लेने की जगह अगर संसद ने इस पर बहस की होती, तो कोई पहाड़ नहीं गिर पड़ता। इस किस्म से संसद की सुरक्षा में दरार पर सरकार के असंगत रुख को भी उठाना अपेक्षित है।
Published: undefined
एक तरफ तो अध्यक्ष और गृह मंत्री ने संसद की सुरक्षा में दरार को मामूली, क्षति न पहुंचाने वाली घटना बताकर खारिज किया जिसका उनके अनुसार, राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए और उसे जरूरत से ज्यादा नहीं उछाला जाना चाहिए; दूसरी ओर, सरकार ने छह आरोपी युवकों को आतंकी आरोपों में गिरफ्तार किया और उन पर यूएपीए के तहत कार्रवाई कर रही है। अगर यह घटना सचमुच षड्यंत्र का हिस्सा थी जैसा कि सत्तारूढ़ गठबंधन ने जोर देकर कहा है, तब तो यह संसद में बहस के लिए ज्यादा मजबूत मुद्दा है।
146 सांसदों और वे भी सभी विपक्ष से, के संसद के दोनों सदनों से निलंबन में यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि इनमें एक ऐसे भी सदस्य हैं जो जब निलंबन हुआ, संसद में नहीं, सुदूर तमिलनाडु में थे। न, इसने संसद या आसन की प्रतिष्ठा को आघात नहीं पहुंचाया और इस मसले को ध्यान दिलाने के बाद हंगामा मचने पर संबंधित सदस्य का निलंबन वापस ले लिया गया। अगर अन्यत्र ‘व्यस्त’ प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने आधा घंटे का वक्त निकाल लिया होता और अपने कार्यालयों द्वारा तैयार बयान ही पढ़ दिए होते, तो विपक्षी सांसदों को खड़े होने, वेल में जाने या तख्तियां-पोस्टर लहराने की जरूरत ही नहीं होती।
Published: undefined
पिछले कुछेक सालों में दोनों सदनों में पक्ष और चेहरे देखकर कार्रवाइयां होती रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने खुद भी अपने पूर्ववर्ती डॉ. मनमोहन सिंह और राज्यसभा के पूर्व सभापति तथा उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पर व्यंग्य बाण छोड़े हैं लेकिन लगता है, उन्होंने सदन या उनलोगों के पद की अवमानना नहीं की है। सत्ता पक्ष के सांसद भी सदन की कार्यवाही में व्यवधान करते रहे हैं, खुद भी वेल में जाते रहे हैं, अपशब्द तक का उपयोग करते रहे हैं लेकिन उन पर कुछ भी नहीं होता है।
2009 से 2014 के बीच बीजेपी विपक्ष में थी, तब वह अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में यह कहते हुए संसद ठप कर देती थी कि व्यवधान डालना जायज संसदीय तरीका है। स्वराज ने तब कहा था कि संसद को काम न करने देना भी किसी अन्य तरीके की तरह लोकतंत्र का तरीका है। जेटली ने तो यह तक कहा था कि ‘कई ऐसे अवसर होते हैं जब संसद में व्यवधान पैदा करने से देश को बेहतर लाभ मिलता है।’
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार संसद का इको चैंबर की तरह उपयोग करने लगी है- संसद से बाहर राजनीतिक रैलियों के विस्तार की तरह। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इन सबकी अनदेखी हो रही है। वी-डेम-जैसे अंतरराष्ट्रीय रिसर्च संस्थान ने भारतीय लोकतंत्र को ‘चुनावी निरंकुशता’ बताया है। संसद को इस तरह महज चीयरलीडर्स की जगह बना देना संसद और भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बढ़ाना तो कतई नहीं ही है!
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined