विपक्ष का कोई ऐसा नेता जिसे अभी भी ईवीएम पर कोई संदेह नहीं है? कौन है जो अभी भी सोचता है कि भारत में चुनाव कराने का ईवीएम सबसे विश्वासपूर्ण जरिया है? उपचुनावों समेत भारत में हाल के वर्षों में कोई ऐसा चुनाव नहीं हुआ जिसमें ईवीएम को लेकर शिकायतें सामने नहीं आईं। लेकिन ऐसा लगता है कि 28 को हुए उपचुनाव में ईवीएम में दिक्कतों को आई खबरों ने सभी सीमाओं को पार कर दिया। यह कोई भी देख सकता है कि मतदाताओं को 45 डिग्री से ज्यादा की तपती गर्मी में वोट देने के लिए घंटों इंतजार करते हुए क्या सहना पड़ा। क्या भारत का निर्वाचन आयोग उन लोगों से ऐसा ही व्यवहार करना चाहता है जिनसे वह हर चुनाव में काफी उत्साह के साथ वोट देने की अपील करता है?
लेकिन यह मामला उन मुश्किलों का नहीं है जिनसे एक मतदाता अपने मतप्रयोग के दौरान गुजरता है, बल्कि यह आस्था और विश्वास का सवाल है जो उन लोगों को परेशान कर रहा है जो भारतीय चुनावों के कई परिणामों से निराश और व्यथित हैं। अगर आखिरी मतदाता भी इस बात से संतुष्ट नहीं है कि जिसे उसने वोट दिया उसे वह वोट मिला ही, तो यह चुनावी लोकतंत्र की बड़ी कमी की तरफ इशारा करता है। और किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ऐसा बहुत सारे लोग सोचते हैं। पिछले कई सालों में ईवीएम को लेकर सामने आए संदेहों को दूर करने में असफल रहना चुनाव आयोग के बारे में काफी कुछ बताता है। कई लोगों को ऐसा लगता है कि यह सम्मानित संस्था अपनी तमाम शक्तियों के साथ इस जिम्मेदारी को पूरा करने की बजाय इसका त्याग कर रही है।
खराब ईवीएम के मुद्दे को बड़े पैमाने पर उठाने का श्रेय आम आदमी पार्टी को मिलना चाहिए। अन्य पार्टियों ने उस समय इसका ज्यादा शोर नहीं मचाया। उन्होंने इंतजार किया। लेकिन एक के बाद एक चुनाव परिणाम आने के बाद संदेह काफी गंभीर होते चले गए। अब देश के लगभग सारे बड़े दल इस मसले को लेकर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं या उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर चुके हैं। कांग्रेस ने हाल में संपन्न हुए अपने महाधिवेशन में प्रस्तुत एक प्रस्ताव में मत-पत्रों की तरफ लौटने की बात कही। कई राजनीतिक नेताओं ने बैठक कर इस मसले पर चर्चा की है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इसे लेकर एक सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें यह कहा गया कि हमें ईवीएम और इससे जुड़े संदेहों से छुटकारा पा लेना चाहिए।
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और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी और इसके नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और जीवीएल नरसिम्हा राव ने 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद पहली बार इस मुद्दे का उठाया था। इसलिए यह साफ है कि भारत की किसी भी राजनीतिक पार्टी का ईवीएम में पूरा विश्वास नहीं है, फिर भी हमारे यहां ईवीएम से चुनाव हो रहा है। क्यों? क्योंकि ईवीएम सुविधा का नया औजार है। जब तक आप चुनाव जीत रहे हैं, आप ईवीएम को छोड़ने के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं? लेकिन इस मामले में 2017 में दिल्ली के रजौरी गार्डन का उपचुनाव सबसे अजीब है। 2015 के चुनाव से इसकी तुलनी करते ही आपको पता चल जाएगा कि क्यों संदेह जताया जा रहा है। हाल में त्रिपूरा में एक क्रांति जैसी स्थिति पैदा हुई जब वहां के चुनाव परिणाम आए, लेकिन लेनिन की मूर्ति गिराने के लिए सिर्फ सैंकड़ों लोग जमा हुए। कम से कम उनकी तादाद हजारों में होनी चाहिए थी। इस तरह के कई और उदाहरणों को सामने रखकर यह मुद्दा उतना ही मजबूत रहेगा जितना वह अभी है। सिर्फ सूची लंबी हो जाएगी।
अभी भी कुछ समय बाकी है और विपक्ष को एकजुट होकर ईवीएम को अलविदा कह देना चाहिए, नहीं तो 2019 का लोकसभा चुनाव भी एक खोया हुआ मौका बनकर रह जाएगा। वीवीपीएटी जैसे दिखावटी उपाय ईवीएम की बीमारी को दुरुस्त नहीं कर सकते और वह भी तब जब इसे आधे-अधूरे तरीके से लागू किया जा रहा है। और, जो उदार आवाजें यह कहती हैं कि विपक्ष उसी समय ईवीएम को मसले को उठाता है जब वह हारता है, उन्हें भी एक आवाज में जवाब देना चाहिए – ईवीएम पर भरोसा नहीं किया जा सकता!
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