रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल में उन कश्मीरी परिवारों से मुलाकात की जिनकी हिरासत में मौत हुई थी। उन्होंने परिवारों को इंसाफ दिलाने का आश्वासन दिया। उन्होंने कहा (जैसाकि खबरों में आया) कि ‘जो लोग चले गए उन्हें तो कोई वापस नहीं ला सकता, लेकिन इंसाफ जरूर मिलेगा।’ मानवीय दृष्टिकोण से यह एक अच्छा बयान है और हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इंसाफ मिलेगा। फिर भी, हमें भारत सरकार (इनमें पिछली सरकारें भी शामिल हैं) के पिछले रिकॉर्ड को तो देखना ही चाहिए कि हमारी सेना की गलती के मामलों में कितने लोगों को इंसाफ मिला।
ज्यादातर ध्यान सैन्य बल विशेष बल अधिनियम (AFSPA) पर केंद्रित है। यह ऐसा कानून है जिससे सशस्त्र बलों को भारत में किसी भी कथित डिस्टर्ब एरिया में कुछ भी करने के बाद बच निकलने की छूट मिली हुई है। 2015 में इस बात को रेखांकित किया गया था कि डिस्टर्ब एरिया एक्ट कश्मीर में 1998 में ही अपनी मीयाद पूरी कर चुका है, लेकिन AFSPA अभी भी वहां लागू है, संभवत: बिन अनुमति के, लेकिन इसे हमेशा नजरंदाज किया जाता रहा है।
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आफ्सपा के मुख्य प्रावधानों के तहत पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों को किसी भी व्यक्ति पर गोली चलाने का अधिकार मिल जाता है ‘अगर उन्हें लगे कि कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना जरूरी है।’ सशस्त्र बल इस हद तक बल प्रयोग कर सकते हैं, भले ही उसमें किसी की मृत्यु क्यों न हो जाए और उस मामले में भी उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, सिवाए केंद्र सरकार की अनुमति मिलने के बाद।
वे किसी भी जगह को यह मानकर तबाह कर सकते हैं कि यह ऐसी जगह है जहां हमलावर छिपे हो सकते हैं, उन्होंने पनाह ली हुई हो सकती है या वहां से मोर्चा संभाल रखा हो सकता है और वहां से हमला कर सकते हैं। वे किसी को भी बा किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकते हैं, हिरासत में ले सकते हैं, और गिरफ्तारी के लिए बल का प्रयोग कर सकते हैं। अगर आप हथियारबंद फौजियों को ऐसी छूट देंगे, वह भी ऐसी जगह जिसे पहले से ही सरकार ने दुश्मन घोषित कर रखा हो, तो उसका नतीजा क्यो होगा, उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है।
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राज्यसभा में पहली जनवरी 2018 को सरकार ने बताया कि रक्षा मंत्रालय को 26 साल में जम्मू-कश्मीर सरकार से 50 आवेदन मिले हैं जिनमें आफ्सपा के तहत फौजियों पर मुकदमा चलाने का आग्रह किया गया था। लेकिन केंद्र सरकार ने एक भी मामले में इसकी इजाजत नहीं दी। इनमें 2001 से 2016 के बीच सैनिकों द्वारा गैरकानूनी हत्याएं, प्रताड़ना और बलात्कार तक के मामले शामिल थे।
एम्नेस्टी इंडिया की 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में ऐसे ही 100 से अधिक मामलों की पड़ताल की गई और करीब 58 परिवारों से बातचीत की गई। इसमें सामने आया कि 1990 से कश्मीर सरकार ने ऐसे किसी भी अपराध के लिए कभी भी मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी। आरोपपत्र वह होता है जो आमतौर पर एफआईआर दर्ज होने के बाद होने वाली जांच के आधार पर तैयार होता है, यानी उसमें बताया जाता है कि पुलिस ने अपराध के सबूत बरामद किए हैं। लेकिन केंद्र सरकार ने इंसाफ के लिए राज्य की ऐसी किसी भी दरख्वास्त को मंजूर नहीं किया।
सेना की अपनी ही अलग न्याय व्यवस्था होती है, जिसे कोर्ट मार्शल कहते हैं। यह एक धुंधली यानी बिना पारदर्शिता वाली प्रक्रिया होती है जिसमें पीड़ित की कोई पहुंच नहीं होती है और सेना के अनुशासन से इतर अपराधों में इसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। लेकिन समानांतर न्यायिक व्यवस्था के तहत सैनिकों को अपने ही साथी सैनिकों को नागरिकों के खिलाफ किए गए अपराधों का मुकदमा चलाने की अनुमति है।
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इकोनॉमिक टाइम्स में 27 जनवरी 2014 को प्रकाशित एक संपादकीय (पत्थरबल फेक एंकाउंटर केस: आरोपी सैनिकों को दोषमुक्त करार देना भारतीय लोकतंत्र पर धब्बा) में बताया गया था कि इन कोर्ट मार्शल में क्या हुआ था। मामला मार्च 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के दौरान का था। सेना का दावा था कि उसने एक झोपड़ी पर धावा बोलकर वहां छिपे लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों को खत्म किया था जिन्होंने क्लिंटर की यात्रा से पहले चट्टीसिंहपुरा में सिखों का नरसंहार किया था।
इस मामले की जांच के बाद सीबीआई ने 11 मई 2006 में 7, राष्ट्रीय राइफल की इकाई में तैनात और सेवारत पांच लोगों पर हत्या का आरोप लगाते हुए श्रीनगर के सीजेएम (चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट) की अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया था। सीबीआई का तर्क था कि यह सोची समझी हत्या थी और इसे कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए किया गया कृत्य नहीं कहा जा सकता, ऐसे में आरोपियों को कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन भारतीय सेना ने आफ्सपा के सेक्शन 7 का हवाला देते हुए इस मुकदमे में अड़चन लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने भी सेना के कदम को सही ठहराते हुए उससे पूछा कि वही तय करे कि वह इन पांचों सैनिकों का कोर्ट मार्शल करना चाहती है या नहीं।
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सितंबर 2012 में पत्थरबल के पांच नागरिकों की हत्या के करीब 12 साल बाद सेना ने इस मामले को सैन्य न्यायिक व्यवस्था के सामने पेश किया और जनरल कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया शुरु की। भारतीय सेना ने 24 जनवरी 2014 को कहा कि वह सभी पांचों सैनिकों के खिलाफ लगाए गए आरोपों को खारिज करती है क्योंकि आरोप सिद्ध करने के लिए सबूत नहीं हैं। श्रीनगर के सीजेएम कोर्ट में दाखिल क्लोजर रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय सेना ने कोई मुकदमा नहीं चलाया, बजाए इसके इसने मुकदमें से पहले की प्रक्रिया में ही आरोपों को खारिज कर दिया। इस प्रक्रिया को आर्मी रूल 1954 के नियम 24 के तहत समरी ऑफ एविडेंस यानी सबूतों का संक्षिप्तीकरण कहा जाता है।
द इकोनॉमिक टाइम्स के संपादकीय में कहा गया था कि ‘सेना द्वारा पत्थरबल के आरोपियों को अपने ही तौर पर बरी करना उस निरंतरता का साक्ष्य है जिसके तहत जम्मू-कश्मरी और पूर्वोत्तर के इलाकों में सेना मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों को दबाती रही है। इन दोनों ही क्षेत्रों में सेना को अपने ही तौर पर हालात से निपटने की खुली छूट मिली हुई है। यही हमारे लोकतंत्र पर एक धब्बा है।’
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एक अन्य मामले को भी अखबार ने 11 जुलाई 2018 को प्रकाशित किया (माछिल मुठभेड़ – 5 सैनिकों की उम्रकैद स्थगित)। इस मामले में सैनिकों को तीन नागरिकों की हत्या का दोषी पाया गया था, लेकिन फिर भी उन्हें सैन्य प्राधिकरण ने बिना कोई तर्क दिए बरी कर दिया।
दो साल पहले, 4 दिसंबर 2021 को सेना की 21 पैरा स्पेशल फोर्सेस के सैनिकों ने नगालैंड के मॉन जिले में 6 कोयला खनन मजदूरों को गोली मार दी। इन हत्याओं से उस इलाके में फौजियों और स्थानीय गांववालों के बीच झड़पे हुईं जिसमें 7 और नागरिक और एक फौजी की मौत हुई। एक दिन बाद ही जब गांव वालों ने सैना के कैंप पर हमला किया तो एक और नागरिक की मौत हो गई।
जून 2022 में नगालैंड पुलिस ने एसआईटी जांच की जिसमें पाया गया कि सैना ने बिना सोचे ही गलत पहचान के आधार पर कार्रवाई की थी। इस मामले में पुलिस ने 30 सैनिकों के खिलाफ आरोप दाखिल किए, जिनमें एक मेजर भी था। आरोप पत्र में कहा गया कि खनन मजदूरों पर गोली जान लेने की नीयत से चलाई गई थी। लेकिन 14 अप्रैल 2023 को भारत सरकार ने इन सैनिकों के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया।
कुल मिलाकर यही पृष्ठभूमि है और इसी के आधार पर हमें यह आकलन करना चाहिए कि राजनाथ सिंह ने कश्मीर की घटनाओं के बारे में क्या कहा है।
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