विचार

वक्त बेवक्तः संघ का आदर्श तो हिटलर का आखिरी निपटारे का सिद्धांत है

गांधी की हत्या के बाद संघ से आम तौर पर जो विरक्ति या वितृष्णा उत्पन्न हुई थी वह दो दशकों में ही विलीन हो गई। लोहिया और जयप्रकाश ने संघ को जो औचित्य प्रदान किया, उसने आगे सबके लिए संघ के साथ को, जनतंत्र बचाने के लिए अनिवार्य बताने का तर्क मुहैया करा दिया।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से विचारों के आदान प्रदान का अवसर आ गया है, यह मानने का क्या कारण हो सकता है? मीडिया में इसे लेकर कुछ उत्साह देखा जा रहा है। कुछ लोग इसे जनतंत्र का तकाजा बता रहे हैं और कह रहे हैं कि आरएसएस से विचार विमर्श शुरू किया जाए।

आखिर आरएसएस में यह आत्मविश्वास कैसे और क्यों आया कि उसे अब सम्मानजनक तरीके से सुना जा सकता है? यह कोई एकबारगी नहीं हुआ है। राम मनोहर लोहिया कांग्रेस के प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए शैतान से भी हाथ मिलाने को तैयार थे। इस तरह संघ की राजनीतिक क्षेत्र में सम्मानजनक स्वीकृति हुई। इसके मुश्किल से दस साल भी नहीं बीते कि राजनीति से दशकों तक संन्यास लिए हुए जयप्रकाश ने वापसी के लिए संघ का हाथ थामा। लोहिया से कहीं आगे बढ़ कर, संघ से आत्मीयता दिखाते हुए उन्होंने कहा कि अगर संघ फासिस्ट है तो वे भी फासिस्ट हैं।

संघ की विचारधारा का प्रभाव पहले भी व्यापक था। इंदिरा गांधी ने 1947 के अंत में लखनऊ से अपने पिता को खत में लिखा था कि कांग्रेस के अंदर बड़ी संख्या में उसके विचारों का असर है और हर स्तर के सरकारी अधिकारियों पर भी। विडंबना यह है कि अपने आरंभिक जीवन में संघ के विचार को शैतानी मानने वाली इंदिरा गांधी ने उत्तरार्द्ध में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए उसके कुछ अंशों से समझौते को राजनीतिक रणनीति के तौर पर स्वीकार कर लिया।

गांधी की हत्या के बाद संघ से आम तौर पर जो विरक्ति या वितृष्णा उत्पन्न हुई थी वह दो दशकों में ही विलीन हो गई। लोहिया और जयप्रकाश ने संघ को जो औचित्य प्रदान किया, उसने आगे निरपवाद रूप से सबके लिए तर्क मुहैया करा दिया था, जिसके सहारे वे संघ के साथ को जनतंत्र बचाने के लिए अनिवार्य बताते। कांग्रेस को छोड़ कर प्रायः हर दल ने संघ का साथ लिया।

संघ का इरादा शुरू से ही भारतीय समाज के जीवन के हर क्षेत्र पर कब्जे का रहा है। इसके लिए कानूनी, गैरकानूनी, हर तरीका जायज माना जाता रहा है। संघ कभी भी औपचारिक तौर पर लिखकर अपने किसी अभियान की घोषणा नहीं करता। यहां तक कि तकनीकी तौर पर वह किसी अभियान में शामिल भी नहीं होता। वह चाहे गांधी की हत्या हो या 1966 का गौरक्षा आंदोलन, जिसमें संसद पर हमला बोला गया था, या राम शिला पूजन अभियान या बाबरी मस्जिद ध्वंस की मुहिम, संघ की संलिप्तता को कहीं भी साबित करना प्रायः असंभव है। इसने अपने संगठनों और सदस्यों को दिलचस्प स्वायत्तता दे रखी है। यहां तक कि जिन्हें इसका मुखपत्र माना जाता है, ऑर्गनाइजर और पांचजन्य, उनके बारे में भी इसका कहना है कि वे इससे स्वतंत्र है। इस तरह आपराधिक कृत्यों में अपनी भागीदारी की सजा से यह हमेशा ही बच निकलता है।

झूठ, अर्धसत्य से इसे कोई परहेज नहीं। वादाखिलाफी से भी नहीं। मसलन, गांधी की हत्या का खुला प्रचार करने के बाद गोलवलकर के नेतृत्व में ही उन्हें प्रातः स्मरणीय बना लिया गया। यह करने के बाद गांधी के प्रति संघ के स्वयंसेवकों के नजरिये में कोई तब्दीली नहीं आई। वे अभी भी कहते हैं कि भले ही गांधी ने देश की सेवा की हो, लेकिन उनका और जीवित रहना देश के लिए खतरनाक था, इसलिए गोडसे ने उनका ‘वध’ करके उन्हें और पाप करने से बचा लिया।

पटेल से यह वादा करने में इसे हिचक नहीं हुई कि यह राजनीति से दूर रहेगा और संविधान से प्रतिबद्ध रहेगा। ऐसा करना खुद पर लगी पाबंदी को खत्म करने के लिए जरूरी था। इसका मतलब यह कतई नहीं था कि वह इस वादे पर कायम रहेगा।

संघ के संरक्षण में अनेक संगठन बनते और पलते हैं। बाहरी दुनिया को वे स्वतंत्र नजर आते हैं। लेकिन संघ के व्यापक कार्यक्रम के दायरे से बाहर निकल कर कभी ये काम नहीं करते। व्यक्ति भी हमेशा स्वयंसेवक बना रहता है। स्वयंसेवक अगर सरकारी पद पर हो तो भी वह संविधान की जगह संघ से प्रेरित होता है। संघ अपने संगठनों और स्वयंसेवकों के किये का जिम्मा नहीं लेता। वे भी कभी यह नहीं करते। इस तरह यह हमेशा कानून की पकड़ से बचा रहता है।

संघ को जानने वाले मानते हैं कि इसका कोई लेना-देना हिंदू धर्म से नहीं है। हिंदू धर्म का गुणगान करने के अलावा इसके किसी बौद्धिक ने न तो कोई नई व्याख्या की है न कोई गहरा विश्लेषण ही किया है। हिंदूपन वह अदेखा सूत्र है जिससे इस देश की बहुसंख्यक आबादी खुद को बंधा महसूस कर सकती है। हिंदूपन का यही उपयोग संघ के लिए है। मुसलमानों और ईसाईयों से नफरत संघ का अस्तित्व तर्क है। ब्रिटिश भारत का बंटवारा एक मौका था कि भारत को मुस्लिम विहीन किया जा सकता था। लेकिन वह नहीं हो सका। इसके लिए संघ गांधी और नेहरू को जिम्मेदार मानता है।

संघ का आदर्श तो हिटलर का आखिरी निपटारे का सिद्धांत है, लेकिन बदली परिस्थिति में इसने वर्चस्व या दबदबे का मॉडल अपनाया है। इसकी समझ है कि नए अंतरराष्ट्रीय माहौल में जन संहार संभव नहीं है। लेकिन एक राष्ट्र, एक जन का निर्माण किया जाना है। इसमें पहले तो विविधता का नाम जप कर हिंदू धर्म को सेमेटिक धर्मों से श्रेष्ठ घोषित करके इसे भारतीयता के समतुल्य बताया जाता है। फिर अन्य मतावलंबियों को शर्मिंदा किया जाता है कि वे इस गुण से वंचित हैं। उन्हें अपनी हीनावस्था से उबरने के लिए हिंदूपन अपनाने को कहा जाता है। इसे आप अन्य मतावलंबियों को पालतू बनाने का अभियान भी कह सकते हैं। इसी कारण राष्ट्रीय मुस्लिम मंच जैसे संगठन बनाए जाते हैं। इसके जरिये हिंदुओं को संतोष दिया जाता है कि मुसलमान उनके पालतू होने को तैयार हैं। अब उसने खुद को मुस्लिम औरतों का संरक्षक घोषित कर दिया है जो उन्हें उनके जालिम और पिछड़े मर्दों से बचाएगा।

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संघ उदारतापूर्वक यह कहता है कि इस भूमि पर बसने वाले सभी हिंदू हैं। लेकिन कुछ में यह चेतना बाह्य प्रदूषण के कारण दब गई है, तो उनकी भलाई के लिए ही जरूरी है कि इस सुप्त बोध को जाग्रत किया जाए। अचेत हिंदुओं को सचेत रूप से हिंदू बनाना इस प्रकार संघ का कर्तव्य है। उसमें कई बार कठोरता करनी पड़ती है। लेकिन वह अभिभावक या पिता वाली बाध्यता है। यही बात अभी मोहन भागवत ने दुहराई जब उन्होंने कहा कि “हैं तो सब हिंदू लेकिन कई खुद को हिंदू कहलाने में हिचकते हैं। संघ का पवित्र दायित्व इस हिचक को समाप्त करने का है।”

सभ्य समाज में ऐसा विचार असह्य है। लेकिन भारत में इस पर चर्चा को जनतांत्रिक होने की शर्त बना दिया गया है।

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