विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: भारत में मांस खाने के लंबे इतिहास को समझना जरूरी

शाकाहार समेत कई चीजों के राजनीतिकरण और सिकुड़े नजरिये से प्रभावित आज की राजनीतिक सत्ता के लिए बेहतर होगा कि वह सच्ची भारतीय संस्कृति पर नजर डाले, जो उनके उन्मादी हिस्सों की समझ से बाहर है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया भारत में मांस खाने का लंबा इतिहास

गोरखनाथ के गुरु और उत्तर भारत में नाथ संप्रदाय की नींव रखने वाले मत्स्येन्द्र नाथ अपने मूल-प्रबंध अकुलवीर तंत्र (78-87) में कहते हैं कि शिशु मानस वाले लोग लगातार यह कानून बनाते रहते हैं कि क्या धर्म है और क्या सच्चा रास्ता है और क्या पवित्र है और क्या अपवित्र। यह हम नहीं जानते कि उनके आज के अनुयायी यूपी के मुख्यमंत्री इससे सहमत होंगे या नहीं, लेकिन गुरू मत्स्येन्द्र नाथ के अनुसार, धर्म के नाम पर प्रचारित व्याख्याओं और क्षुद्र नियमों से ऊपर उठकर ही सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। कौलपनिषद, कौल सिद्धांत (हां, कश्मीरी उपनाम यहीं से आया है) का संक्षिप्त लेकिन अत्यंत गहरा प्रबंध, एक कदम और आगे जाता है और कहता है कि एक ही चीज वर्जित है वह है लोकनिंदा। सच्चे आत्मज्ञान, अध्यात्म का मतलब होता है किसी उपवास, भोज या उससे जुड़े नियमों का पालन न करना और किसी संप्रदाय को शुरू करने की इच्छा न रखना। सबको समान रूप से बनाया गया है और जो यह समझ लेता है, वही सच में मुक्त हो पाता है।

शाकाहार समेत कई चीजों के राजनीतिकरण और सिकुड़े नजरिये से प्रभावित आज की राजनीतिक सत्ता के लिए बेहतर होगा कि वह सच्ची भारतीय संस्कृति पर नजर डाले, जो उनके उन्मादी हिस्सों की समझ से बाहर है और जिसे वे आत्मसात करने में अक्षम हैं। मेरी मां के शिक्षक महान अध्येता हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इतिहास की सही समझ के लिए शाक्त तंत्र से एक बार एक कमाल का पारिभाषिक शब्द इस्तेमाल किया था। उन्होंने इसे शव साधना कहा था। एक तांत्रिक साधक ने इस पारिभाषिक शब्द का इस्तेमाल उन्हें यह समझाने के लिए किया था कि कैसे सच्चा ज्ञान (सिद्धि) प्राप्त करें, मसान (अंत्येष्टि स्थल जहां हर शरीर राख में बदल जाता है) पर एक मृत शरीर को ढूढ़ने के बाद उसके सामने पांव फैलाकर बैठना और फिर अपने इर्द-गिर्द की हर चीज को भूलकर ध्यान लगाना। यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है जिसके दौरान दुष्ट शक्तियां आधी सच्चाई से भरे जिज्ञासु का ध्यान भटकाने की हरसंभव कोशिश करती हैं, लेकिन वह फिर भी अनासक्त और ध्यानमग्न बना रहे, किसी क्षण में शव का माथा पूरी तरह घूम जाता है और निरंतर साधना में लगे साधक से उसका सामना होता है, उसके बाद साधक की सारी जिज्ञासाओं को शांत करते हुए वह सर्वोत्कृष्ट ज्ञान की व्याख्या करता है।

इस तस्वीर के बारे में सोचें: पवित्र ज्ञान निष्क्रिय विधि के जरिये दिया जा रहा है जिसमें 360 डिग्री की धुरी पर माथा है और जो न तो नए या न पुराने, जीवन के परंपरागत या अभ्यस्त रूप के प्रति अपना जुड़ाव प्रकट करता है।

इसी लंबे दार्शनिक संदर्भ में भारत में मांस खाने के लंबे इतिहास के अत्यंत फसादी विषय को ठीक से समझा जा सकता है।

अब तक इस बात को लेकर काफी ऐतिहासिक तथ्य सामने आ चुके हैं कि सिंधु घाटी के समय से मांस और मुर्गीपालन से बने खान-पान का भारतीय लोग सेवन करते रहे हैं: मवेशी, भेड़, बकरा, कछुआ, घड़ियाल, मछली, पक्षी आदि। वेदों में 250 जानवरों के बारे में बताया गया है जिनमें 50 को बलि देने और खाने के लिए उचित पाया गया। बाजार में अलग-अलग तरह का मांस बेचने वालों की दुकानें थीं: गोगातक (मवेशी), अरबिका (भेड़), शूकारिका (सुअर), नागरिका (हिरण), शाकुंतिका ( पक्षी)। घड़ियाल और कछुए (गिद्दाबुद्दका) के मांस की अलग दुकानें होती थीं। ऋग्वेद में घोड़ा, भैंस, भेड़ और बकरे को बलि देने योग्य जानवरों के तौर पर बताया गया। ऋग्वेद के 162वें श्लोक में शासकों द्वारा दी जाने वाली घोड़े की बलि का विवरण दिया गया है। अलग-अलग वैदिक देवताओं की अलग-अलग जानवरों के मांस में दिलचस्पी थी। अग्नि को बैल और बांझ गाय अच्छे लगते थे, रूद्र को लाल गाय, विष्णु को नाटे बैल, इन्द्र को माथे पर निशान और लटकते सींग वाले बैल पसंद थे, जबकि पुशान को काली गाय पसंद थी। बाद में संग्रहीत ब्राह्म्ण ग्रंथ में बताया गया कि विशेष अतिथियों के लिए मोटे बैलों या बकरों की बलि देना जरूरी है। तैत्तरीय उपनिषद में ऋषि अगस्त्य द्वारा सैकड़ों बैलों की बलि देने की प्रशंसा की गई है। और व्याकरणविद् पाणिनी ने अतिथियों के सम्मान के लिए एक नए विशेषण गोघना (गाय की हत्या) की रचना ही कर दी थी।

Published: 26 Apr 2018, 8:14 AM IST

ग्राफिक: सुब्रत धर

हमें पता चलता है कि मांस को सींक में भूना जाता था या कुंड में उबाला जाता था। बृहदअरण्य उपनिषद में मांस को चावल के साथ पकाने का संदर्भ है, रामायण में भी दंडकारण्य वनों की यात्रा के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता द्वारा ऐसे चावल (मांस और सब्जी के साथ) के आनंद उठाने का विवरण है। इसे ममसंभूतदाना कहा जाता था। अयोध्या के महल में राजा दशरथ द्वारा दी जाने वाली बलि के दौरान काफी अनोखे व्यंजनों का वर्णन है जिनमें फल के रसों के साथ बकरे, सुअर, मुर्गे और मोर के मीट को पकाया जाता था। कई व्यंजनों में लौंग, काला जीरा और मसूर दाल को भी डाला जाता था। महाभारत में मांस के कीमे (पिस्तादाना) के साथ चावल पकाने का संदर्भ है और वनभोज में कई तरह के पक्षियों को भूनकर परोसा जाता था। भैंस के मांस को सेंधा नमक, काली मिर्च के साथ फल के रस, हींग, काला जीरा डालकर घी में तला जाता था और ऊपर से मूली, अनार, नींबू डालकर सजाया जाता था।

उसके बाद बौद्ध जातक और बृहतसंहिता में भी कई मांसाहारी व्यंजनों की सूची है। सब मिलाकर ऐसा लगता है कि उस समय तक मांस को पौष्टिक आहार माना जाता था। प्रसिद्ध चिकित्सक चरक ने भी दुबले-पतले, मेहनत करने वाले और लंबी बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए ऐसे खान-पान की अनुशंसा की है। जैन धर्म को मानने वाले लोगों में जीव हत्या को लेकर मनाही थी, लेकिन बौद्धों ने मांस खाना नहीं छोड़ा था अगर बौद्ध भिक्षुओं को दान में मिला हो बशर्ते जीव हत्या संन्यासी की उपस्थिति में न हुई हो। इसे सुनिश्चित करना दान देने वाले व्यक्ति की जिम्मेदारी थी।

दक्षिण में मांस और मछली खाने के प्रति हिचक अपवाद है। 300 ई. में खान-पान पर लिखे गए शुरुआती लेखन में, मांस बनाने के लिए काली मिर्च (कारी) का मुख्य मसाले के तौर पर वर्णन किया गया है। तले हुए मांस के तीन नाम थे और टमाटर और काली मिर्च के साथ उबले हुए मांस को पुलिंगरी कहा जाता था। संगम काल के प्रसिद्ध ब्राह्मण पुजारी कपिलार ने मांस और मदिरा के उपभोग के आनंद की चर्चा की है। पुराने तमिल में बीफ के लिए चार पारिभाषिक शब्द हैं: वल्लुरम, शुशियम, शुत्तिराची और पदीथिरम। सुअर के मांस के लिए 15 नाम हैं। हमें पता चलता है कि तटीय क्षेत्र के व्यापारियों की पत्नियों के बीच इसे पसंद किया जाता था। शिकारी कुत्तों द्वारा जंगली सुअरों, खरगोशों और हिरण के शिकार का भी संदर्भ है। पकड़े गए जंगली सुअरों के मांस को स्वादिष्ट बनाने के लिए चावल के आटे से स्थूल किया जाता था और महिलाओं से दूर रखा जाता था। सबसे अनोखे मांस में साही (कुरूवर के पसंदीदा), और घोंघा (मल्लारों के पसंदीदा) थे। दक्षिण में घरेलू पक्षियों (कोझी) को खाना भी वर्जित नहीं था। पूरे तटीय क्षेत्र में मछलियों और झींगा मछली का काफी आनंद उठाया जाता था और यह इस कदर था कि मछलियों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द ‘मीन’ संस्कृत के शब्दकोश में शामिल हो गया और उत्तर भारत के लोगों ने भी समुद्र के इस आहार का आनंद उठाना शुरू किया।

मौजूदा मान्यताओं के विपरीत, आयुर्वेदाचार्यों ने मांस खाने की मनाही नहीं की थी। चिकित्सक मनीषी सुश्रुत द्वारा संग्रहीत सुश्रुत संहिता में आठ तरह के मांस की सूची दी गई है। 13वीं सदी के राजा सोमेश्वरा द्वारा रचित बताए गए प्रबंध ‘मनासोल्ला’ में खान-पान पर अन्नभोग शीर्षक से एक अध्याय दिया गया है और उसमें भी इस तरह का वर्णन है। इसमें तले और भूने हुए कलेजी के टुकड़े का संदर्भ है जिसे दही या काले सरसों के झोल के साथ परोसा जाता था। इसके अलावा समूचे सुअर को सेंधा नमक, काली मिर्च और नींबू के साथ भूने जाने का भी संदर्भ है जिसे खजूर के पत्तों जैसी चीज में परोसा जाता था।

हिंदी में कम से कम तीन महान किताबें हैं जो इस सदी के नारकीय नजरिये को प्रस्तुत करती हैं: यशपाल का झूठा सच, राही मासूम रजा का आधा गांव और भीष्म साहनी की तमस। योगी राज को बस उसकी नकल करनी थी जो कल्पित कथाओं में पहले ही आ चुका है।

Published: 26 Apr 2018, 8:14 AM IST

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Published: 26 Apr 2018, 8:14 AM IST