भारत और नेपाल के रिश्ते आजादी से, अंग्रेजी शासन से भी बहुत पहले से मां जाये भाइयों की तरह बार-बार बने और बिगड़े हैं। आज कम ही लोग जानते हैं कि गुरु गोरखनाथ द्वारा नेपाल की लड़ाका जाति को गोरखपंथ की दीक्षा देने से उसका नाम गुरखा पड़ा। कालांतर में जब कई कबीलों को एक करके 18वीं सदी में राजा पृथ्वीनाथ शाह ने नेपाल को एकीकृत किया, तभी आज का नेपाल बना। आज के उत्तराखंड में जो तब कुमाऊं कहलाता था, भितरघातों और धड़ेबाजी का फायदा उठा कर 1790 से सुगौली की संधि (1815) तक गोरखाओं का शासन कायम रहा। यह शासन फौजी और बहुत कठोर था। हर साम्राज्यवादी ताकत अपनी सीमा फैलाने के लिए बहुत तरह के अनाचार, राजनीतिक दुराचार और अत्याचार करती है, गुरखे भी उसका अपवाद न थे। अंग्रेजों ने जब इस क्षेत्र से तिब्बत, चीन और मध्य एशिया को तिजारती माल की भारी आवाजाही का महत्व समझा तो नेपाल को अपने हाथ में लेने की ठानली। उनकी जीत सेना के मुखिया कर्नल गार्डनर की वीरता से कम स्थानीय लोगों के गुर्ख्याली राज के प्रति गुस्से और भाग्य की वजह से हुई। लेकिन अंग्रेजों ने जब इलाके में अपना राज कायम किया तो उन्होंने गुरखाओं की नमक हलाली, और वीरता की सराहना की और उनकी एक टुकड़ी को खुद अपनी सेना में शामिल किया। जो आज भी कायम है।
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नेपाल वापिस जाकर गुरखाओं ने अपने सेना कमांडर बमशाह की संधि का विरोध किया। अंतत: तराई तो उनसे छीनी गई किंतु सुगौली की संधि के अनुसार, काली नदी के पार की जमीन उनकी मानकर नक्शा बना जिस पर आज नेपाल संसद के दोनों सदनों ने आपत्ति जताकर नया नक्शा पारित कर लिया है, जिसमें काली नदी के उद्गम को अपने इलाके में बताकर भारत के पिथौरागढ़ क्षेत्र की सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण जमीन का बड़ा भूभाग और लिपुलेख दर्रा नेपाल का माना गया है।
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आजादी के बाद गंगा, जमुना, बागमती और काली नदी में बहुत पानी बह गया, पुराने मनोमालिन्य काफी मिट गए। जब 1962 में भारत पर चीनी हमला हुआ तो नेपाल नरेश ने भारत द्वारा लिपुलेख का वह इलाका अपने सैन्य बंदोबस्त के लिए इस्तेमाल करने पर कोई आपत्ति नहीं जताई और इस बीच दोनों देशों के बीच धार्मिक पर्यटन, नेपाली राजवंश और भारत के रजवाड़ों के बीच रोटी-बेटी के रिश्ते भी कायम रहे। कोई आधी सदी पहले (24 जून, 1969 में) ‘राइजिंग नेपाल’ नामक नेपाल के एक अंग्रेजी अखबार में वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री कीर्तिनिधि बिष्ट का एक तनिक विचलित करने वाला इंटरव्यू छपा। उसमें उन्होंने वह कहा जो तब से नेपाल ने कई बार द्विपक्षीय रिश्तों के बुरे दौर में दोहराया है: भारत नेपाल की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को नहीं पहचानता है। दोनों देशों के बीच कोई खास रिश्ता होता तो फिर भारत ने अपने वैदेशिक मामलों में कभी हमसे सलाह-मशवरा क्यों नहीं किया? उन्होंने मांग की कि भारतीय सीमा पर चौकियों से भारतीय सिपाहियों को तुरंत वापिस भेजा जाए। जबकि सच यह था कितब वहां सिर्फ 18 चौकियां थीं जिनपर नेपाली सिपाही ही तैनात थे। और राजधानी में सैनिक संपर्क मिशन में भारत के कुल छह अफसर और तकरीबन दर्जनभर लोग थे।
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सवाल उठता है कि इस तरह का हो-हल्ला1969 में क्यों उठाया गया जबकि तत्कालीन राजा महेंद्र विक्रम शाह भारतीय अफसरों को काठमांडू में अलंकृत कर रहे थे और (तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री के विश्वस्त) राजा दिनेश सिंह को अपने साथ शिकार खेलने का न्योता दे रहे थे? दरअसल भारत की तरफ एक तरफ मुस्करा कर पलक पांवड़े बिछाने और दूसरी तरफ सीमा को लेकर सार्वजनिक तौर से उसे भौहें दिखाने की दोहरी नीति नेपाल के लिए नई नहीं है। और भारत द्वारा भी उसका सबसे बड़ा विदेशी दूतावास काठमांडू में होते हुए भी नेपाली शासन और जनता की भावनाओं को कई बार अनजाने या जाने आहत किया गया। बहुत पहले स्व. राजेन्द्र माथुर ने लिखा था कि नेपाल की सार्वभौमता भारत के लिए एक प्रिवी पर्स की तरह है जिसका चुकाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद की खींची सीमा की लकीरों की वजह से भारत के हिस्से में आज भी पड़ता है। 1970 में भी तल्खी का आलम यह था कि खुद राजा ने भी अपने बेटे त्रिभुवन शाह की शादी के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय अतिथियों (जिनमें चीन के प्रतिनिधिभी थे) के सामने भरी सभा में कह दिया कि व्यापार और यातायात की सारी सहूलियतें भारत नेपाल को नहीं देता। अगर भारत नेपाल का दोस्त है, तो खरे दोस्तों के बीच सारी बातें खरी होनी चाहिए। खैर। राजकुल के नृशंस समूल अंत के साथ वह अध्याय बंद ही हो गया, जिसमें निजी गर्माहट और भारतीय पारिवारिक रिश्तों के शिकायती सुर मिले-जुले रहते थे। फिर भी शासकों की समझदारी से प्रेम का धागा बरकरार ही रहा।
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राजशाही के अंत के बाद से चीन का नेपाल पर बढ़ता असर सबकी जानकारी में था। नेपाल आज ईस्ट इंडिया कंपनी के बाद जो ब्रिटिश सरकार से उसका करार हुआ था, उसका और चीन से हुए ताजा करार का हवाला देकर 1954 में भारत-तिब्बत के व्यापारिक समझौते को जो लिपुलेख दर्रे को भारत का भाग मानता है, अमान्य बता रहा है। दरअसल, राजनय में रिश्तों में मौसमी बदलाव होते रहते हैं। इसीलिए कूटनीति का तकाजा है कि इन बदलावों की आहट सुनकर समय रहते बातचीत से बिगड़ते द्विपक्षीय मामले सुलझा लिए जाएं ताकि लद्दाख में पंजे गड़ाते चीन और उसके जिगरी और भारत के चिरविरोधी पाकिस्तान-जैसों को कूद पड़ने का मौका न मिल जाए। यह हमारी कमजोरी नहीं, सयानेपन का प्रतीक होता कि भारत लिपुलेख के करीब से गुजरने वाली कैलाश मानसरोवर सड़क का निर्माण शुरू करते हुए नेपाल को पुराने रिश्तों के हवाले से सबसे पहले भरोसे में लेकर आश्वस्त करता कि उसका साम्राज्यवादी विस्तार का कोई इरादा नहीं है। पुराने हिंदुत्व बिरादरी और रोटी-बेटी के रिश्तों के हवाले या चंदन चर्चित महानेताओं के पशुपतिनाथ मंदिर से दिखाए जाते पूजा-अर्चना के विजुअल आज बेतरह उलझे हुए राजनय में हमको बहुत दूर नहीं ले जा सकते। अमेरिका बार-बार कहता है कि चीन इलाके में हस्तक्षेप बंद करे। लेकिन चीन को लेकर खुद उसके रिश्ते बहुत पेचीदा हैं और फिलहाल वहां चुनाव सर पर हैं, जिनमें मौजूदा निजाम की हालत शिकस्त नजर आती है। जरूरत पड़ी तो वह अपने ब्रह्मास्त्र हमको उधार देने से रहा।
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हालिया घटनाएं आगाह करती हैं कि यह भारत के लिए खरी-खरी बातें करने का समय है। अगर चीन के लगातार अधिक करीब होते जा रहे नेपाल के लिए वह तराई सीमा को खुला रखता है, तो फिर वह पहले गारंटी मांगे कि नेपाल ने भी अपनी तिब्बत-लद्दाख से सटी 100-150 किलोमीटर की हिमालयी सीमा ठीक से बंद की है। खरी बात यह भी है कि अपनी सार्वभौमता के नाम पर नेपाल को तराई की मार्फत हमसे तमाम लाभ मिलते रहे हैं और लाखों पर्यटक और रोजगार भी। हमारी सार्वभौमता की सुरक्षा के लिए खुद अपनी उत्तरी सीमा सील करने की तकलीफ न उठाए, उल्टे नया नक्शा जारी कर भारत के उत्तराखंड में काली पार की जमीन अपने हिस्से में दिखाए, यह भारत को भी अपनी नेपाल नीति में उस देश के लिए कुछ पीड़ाकारी बदलाव लेने को मजबूर कर सकता है जो दोनों ही पड़ोसी नहीं चाहेंगे। नेपाल के ही राजा महेंद्र ने कहा था कि मित्रों के बीच बात एकदम खरी-खरी होनी चाहिए। चीन जो अनुच्छेद 370 को जोड़ते हुए जैसी किलेबंदी लद्दाख में कर रहा है, उसका जवाब हमें एक हद तक क्या नेपाल की मार्फत नहीं देना चाहिए? भारत अब मीडिया प्रचार की मार्फत इलाकाई राजनय में महान नहीं होगा। उसे महानता कमानी पड़ेगी। अब तक की उसकी कथित कमाई बहुत खरी नहीं साबित हो रही है।
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