इसी महीने 10 से 12 सितंबर तक एक ऑनलाइन वैश्विक संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसका विषय था 'डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिन्दुत्व' (वैश्विक हिन्दुत्व का विनिष्टीकरण)। इस संगोष्ठी को दुनिया भर के ऐसे 15 कार्यकर्ताओं और अध्येताओं ने संबोधित किया जो अपने-अपने देशों में हिन्दू राष्ट्रवाद के विभिन्न पहलुओं और उससे उपजी असहिष्णु राजनीति के विरूद्ध संघर्षरत हैं। इस संगोष्ठी के आयोजन में अमेरिका के 52 विश्वविद्यालयों के 70 से अधिक विभागों ने भागीदारी की। पन्द्रह हजार से ज्यादा लोगों ने इस ऑनलाइन संगोष्ठी को देखने के लिए अपना पंजीकरण करवाया। जहां मुख्यधारा के भारतीय मीडिया ने इस बड़े कार्यक्रम का संज्ञान ही नहीं लिया, वहीं सोशल मीडिया पर इसकी खूब चर्चा हुई।
संगोष्ठी के आयोजन की घोषणा होते ही हिन्दू राष्ट्रवादियों के अमरीकी संगठनों ने आयोजकों पर हल्ला बोल दिया। उनकी पूरी कोशिश थी कि यह आयोजन हो ही न सके। आयोजकों में शामिल अमेरिकी विश्वविद्यालयों को हजारों ईमेल भेजे गए। यहां तक कि ईमेल की इस बाढ़ के कारण एक विश्वविद्यालय का सर्वर ही ठप हो गया। इस संगोष्ठी के वक्ताओं की जमकर ट्रॉलिंग भी हुई। महिला वक्ताओं को यौन हमले की धमकियां दी गईं। यहां यह महत्वपूर्ण है कि अमेरिका में विश्व हिन्दू परिषद ऑफ अमेरिका सहित अनेक ऐसी संस्थाएं हैं जो आरएसएस से जुड़ी हुई हैं और जिनका वहां खासा प्रभाव है। संगोष्ठी के विरोधियों का तर्क था कि यह आयोजन हिन्दुओं पर हमला है।
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संगोष्ठी का असली ध्येय क्या है इस पर प्रकाश डालते हुए प्रतिष्ठित कवयित्री और लेखिका मीना कंडासामी ने कहा, "यह संगोष्ठी हमें यह समझने में मदद करने के लिए आयोजित की गई है कि किस तरह हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म से अलग है और उसके लिए ही एक बड़ा खतरा है और कैसे इस कारण भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में बन रही है, जहां अप्रजातांत्रिक और असहिष्णु शक्तियों का बोलबाला है। हिन्दुत्व आज भारतीय राज्य की आधिकारिक विचारधारा बन गया है और इसके महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों और असहमति के अधिकार के लिए गंभीर निहितार्थ हैं।" संगोष्ठी के अधिकांश वक्ता विभिन्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों से थे। भारत से जाने-माने फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन और दलित कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी ने कार्यक्रम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
जो लोग इस कार्यक्रम पर हमलावर थे, उनका मुख्य तर्क यह था कि इसका उद्देश्य हिन्दुओं का दानवीकरण करना है। बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग अमेरिका में बस गए हैं और अलग-अलग प्रकार की नौकरियां और व्यापार-व्यवसाय कर रहे हैं। अमेरिका में रह रहे हिन्दुओं का एक बड़ा तबका अलगाव के भाव से ग्रस्त है और इसी के चलते वह अपनी हिन्दू पहचान का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन करना चाहता है। अप्रवासी भारतीयों के बीच संघ और उससे जुड़े संगठन अतिसक्रिय हैं। इन भारतीयों में से अनेक न केवल संघ की विचारधारा के जबरदस्त समर्थक हैं, बल्कि वे इन संगठनों को भारी धनराशि दान में देते हैं।
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एनआरआई का यही तबका हाउडी मोदी जैसे आयोजनों के पीछे था। उनकी आपत्ति यह थी कि इस संगोष्ठी के जरिए हिन्दुओं को निशाना बनाया जा रहा है। यह साफ है कि इस संगोष्ठी का आयोजन हिन्दू धर्म का विरोध करने के लिए नहीं बल्कि हिन्दुत्व की राजनीति की समालोचना और विवेचना करने के लिए किया गया था। हिन्दुत्व एक राजनैतिक शब्द और अवधारणा है, जिसका हिन्दू धर्म से कोई संबंध नही है। हिन्दुत्व शब्द को सन् 1890 के दशक में चन्द्रनाथ बसु ने गढ़ा था और इसे सबसे पहले चर्चा में लाने वाले थे वी डी सावरकर, जिन्होंने अपनी पुस्तक 'हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू' में इसकी विवेचना की थी।
सन् 1890 में इस शब्द के पहली बार प्रयोग किए जाने से हमें यह पता चलता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद ने इसी काल में अंगड़ाई लेना शुरू किया था। यह वह काल था जब सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के चलते दलितों और महिलाओं ने सार्वजनिक जीवन में आना प्रारंभ किया था। इन दोनों तबकों की शिक्षा तक पहुंच बनने से समाज की सोच में परिवर्तन आने शुरू हुए। तब तक भारतीय समाज में सामंतवादी मूल्यों का बोलबाला था और महिलाओं और दलितों के बारे में तरह-तरह के जातिगत और लैंगिक पूर्वाग्रह व्याप्त थे। जैसे-जैसे सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया आगे बढ़ती गई वैसे-वैसे इन वर्गों का प्रभाव भी बढ़ता गया और अंततः इसी प्रक्रिया के नतीजे में सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अस्तित्व में आई। कांग्रेस, उदयीमान भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती थी।
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तेजी से हो रहे सामाजिक परिवर्तनों के कारण जिन वर्गों के रूतबे और शक्तियों में कमी आ रही थी उन्होंने धर्म के नाम पर राजनीति शुरू कर दी, ताकि अपने धर्म के गौरव के बहाने वे उस पुराने सामाजिक ढांचे को पुनर्स्थापित कर सकें, जिसमें उनका बोलबाला था। यही वह समय था जब भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद की विचारधाराओं ने जड़ पकड़ना शुरू किया। समय के साथ उनकी ताकत और प्रभाव में बढ़ोतरी होने लगी।
वी डी सावरकर, जिन्होंने हिन्दुत्व शब्द को लोकप्रिय बनाया, काफी हद तक उहापोह के शिकार थे। एक ओर वे समाज में समानता स्थापित करने वाले आंदोलनों के खिलाफ थे तो दूसरी ओर वे मुसलमानों के प्रति भी बैर भाव रखते थे। इन दोनों पूर्वाग्रहों के संश्लेषण से हिन्दुत्व की विचारधारा जन्मी जिसे सावरकर ने आर्य नस्ल, ब्राम्हणवादी संस्कृति और भारत भूमि से जोड़ा।
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इसके कुछ समय बाद भारत के राजनैतिक क्षितिज पर महात्मा गांधी का उदय हुआ। गांधी अपने समय के महानतम हिन्दू थे। परंतु वे हिन्दू धर्म में सुधार की आवश्यकता से परिचित थे और उन्हें भारत के बहुधार्मिक चरित्र के कारण होने वाली समस्याओं का अंदाजा था। हिन्दू धर्म को परिभाषित करना कठिन है क्योंकि इसका न तो कोई पैगंबर है और ना ही कोई एक किताब। इसके पुरोहित वर्ग का कोई सुस्थापित ढांचा भी नहीं है। हिन्दू धर्म में अनेक विविधताएं हैं और अनेकानेक पंथ हैं जिनमें से कुछ हैं ब्राम्हणवाद, नाथ, तंत्र, भक्ति, शैव और सिद्धांत।
हिन्दुत्व मुख्यतः ब्राम्हणवादी मानदंडों को बनाए रखना चाहता है। परंतु उसके साहित्य में वह जानबूझकर इनकी चर्चा नहीं करता। हिन्दू राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रवाद की खिलाफत में उभरा था। गांधी, नेहरू और पटेल के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवाद हिन्दू धर्म की विविधता को स्वीकार करता था और देश को औपनिवेशिक दासता से मुक्त करवाना चाहता था। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति, हिन्दुत्व, ने स्वाधीनता संग्राम से दूरी बनाए रखी। वह दलितों और महिलाओं के सशक्तिकरण और उनकी समानता के खिलाफ था।
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पिछले तीन दशकों में इस संकीर्ण राष्ट्रवाद ने हिन्दुत्व शब्द को लोकप्रिय और स्वीकार्य बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अब तो इसके पैरोकार कहते हैं कि हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व एक ही हैं। हिन्दुत्व के नाम पर लोगों की पीट-पीटकर हत्या की जा रही है। आनंद पटवर्धन ने हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व की अत्यंत सहज और उपयुक्त तुलना करते हुए कहा कि "अगर हिन्दू धर्म हिन्दुत्व है तो कू क्लक्स क्लेन ईसाई धर्म है"।
मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था, जिसमें हिन्दू रीति-रिवाजों का पालन होता था और हिन्दू त्यौहार मनाए जाते थे। परंतु अपने बचपन में मैंने हिन्दुत्व का नाम कभी नहीं सुना। इन दावों कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था और यह कि हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म में कोई अंतर नहीं है, का प्रचार-प्रसार पिछले कुछ दशकों में हुआ है। हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म के बीच के अंतर को मैं इस तरह परिभाषित करना चाहूंगा कि जहां गांधी हिन्दू थे वहीं गोडसे हिन्दुत्ववादी था।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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