विचार

आकार पटेल का लेख: हिंदुत्व और बीजेपी की नीतियों का सार

बीजेपी की विचारधारा आरएसएस के मूल से आती है और इसे पार्टी के प्रबल समर्थकों तक ने ठीक से नहीं समझा है। और ऐसा जानबूझकर किया गया है।

अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत
अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत 

बीजेपी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है, लेकिन इसकी असली विचारधारा को सही तरीके से नहीं समझा गया है। वंशवाद का विरोध, आर्थिक विकास का वादा आदि तो इसकी विचारधारा के कुछ स्पष्ट पहलू हैं, हालांकि पूरी तरह इनका खुद पालन नहीं करती है। इसकी विचारधारा का जो मुख्य अंश है वह है हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद और वह काफी हद तक अस्पष्ट है। इसका क्या अर्थ है और इसका उद्देश्य क्या हासिल करना है?

कर्नाटक के एक प्रसिद्ध लेखक देवनूर महादेव ने बीजेपी के पितृ संगठन पर अपने काम में इसी को समझने का प्रयास किया है। उनकी किताब ‘आरएसएस – द लॉन्ग एंड शॉर्ट ऑफ इट’ में महादेव ने हिंदुत्व के प्राथमिक ग्रंथों के माध्यम से यह समझने की कोशिश की है कि आरएसएस है क्या और वह क्या चाहता है? इनमें वी डी सावरकर का लेखन और एम एस गोलवलकर की बंच ऑफ थॉट्स प्रमुख हैं।

लेखक ने एक दृष्टान्त के जरिए अपनी प्रेरणा का जिक्र किया है। इसमें एक ऐसे जादूगर की कहानी है जिसने उत्पात मचा रखा था, लेकिन कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था क्योंकि उसकी जान एक तोते में थी जो दूर कहीं किसी गुफा में बंद था। इस तरह वह अपने ही लोगों पर जुल्म करने के बावजूद बच जाता था। उसे काबू में करने का एक ही तरीका था कि किसी तरह उस तोते तक पहुंचा जाए जिसमें उसकी जान छिपी थी। महादेव इसी तलाश में आगे बढ़ते हैं यह जानने के लिए कि आखिर हिंदुत्व के पीछे है क्या।

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गोलवलकर को समझने की कोशिश में महादेव पाते हैं कि आरएसएस प्रमुख जातियों की पूजा करते थे और हम सब से भी ऐसा करने की अपेक्षा रखते थे। बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर कहते हैं कि हिंदू  देवता है और यह देवता जाति के माध्यम से प्रकट होते हैं। यानी मनु ने जिस प्रकार हिंदू समाज के संगठन वर्णन किया है उसी प्रकास से (ब्राह्मण सिर है, क्षत्रिय भुजाएं है, वैश्य जांघें है और शूद्र पैर है) उसकी पूजा हो सकती है।

1960 में, गोलवलकर ने कहा कि जाति का उपयोग क्रॉस ब्रीडिंग के जरिए श्रेष्ठ मनुष्यों के जन्म के लिए किया जा सकता है, बिल्कुल उसी तरह जैसा कि जानवरों में किया जाता है। ऐसा पूर्व में हिंदुओं द्वारा किया जाता था जब उच्चा जाति के पुरुष किसी भी अन्य पुरुष के साथ विवाह करने वाली महिला के पहले बच्चे के पिता बनते थे।

पाठकों को शायद यह रुचिकर लगेगा कि यूरोप के साम्यवादी युग में भी कुछ-कुछ ऐसी ही व्यवस्था थी जिसे ड्रोइट डू सेन्योर यानी मालिक का अधिकार के तौर पर जाना जाता था। इस व्यवस्था में जमींदारों को अपने मातहतों की पत्नियों के साथ उनकी शादी की रात ही शारीरिक संबंध बनाने का अधिकार था। लेकिन गोलवलकर के दिमाग में यह बात नहीं आई कि यह प्रथा तो सीधे तौर पर कमजोर लोगों का शोषण है न कि कोई नेकी का काम।

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आज अगर आरएसएस या बीजेपी इसे क्रियान्वित करने पर जोर नहीं देते हैं क्योंकि इस वर्णन को इन किताबों से हटा गिया है, बल्कि इसलिए नहीं जोर देते क्योंकि उन्हें भरोसा है कि कुछ लोग तो मूल ग्रंथों को तो पढ़ेंगे ही जैसा कि लेखक ने किया है। क्या ही अच्छा हो कि इस विषय पर एक टीवी डिबेट किया जाए कि संघ जैसा चाहता था उस तरह से क्या जाति प्रथा की पूजा की जानी चाहिए।

महादेव कई मौलिक टिप्पणियां करते हैं।  वे कहते हैं कि संघ ने भारत से निकलने वाले धर्मों को बदनाम किया है, लेकिन जिस जाति की वह पूजा कराना चाहते थे, उसे खारिज कर दिया है। "आरएसएस जैन, बौद्ध, सिख, लिंगायत और अन्य धर्मों कों पंगु बनाने की कोशिश करता है जोकि भारत में पैदा धर्म हैं, और चतुर्वर्ण व्यवस्था को खारिज करता है। " इन मतों को सिर्फ हिंदू आस्था कहना इन्हें हिंदू धर्म में मिलाने की प्रयास भर है।

वे लिखते हैं कि अंदरूनी तौर पर इस सबका कोई प्रतिरोध नहीं है क्योंकि आरएसएस सोचने को प्रोत्साहित करता ही नहीं है। बंच ऑफ थॉट्स शीर्षक खुद ही कहता है कि इसमें कोई विशेष विचार या सोच नहीं है, सिर्फ “अनायास और गुजरे वक्त की खतरनाक सोच” शामिल है। विविधता के बजाए संघ में आदेश पर जोर देकर सोचने को हतोत्साहित किया जाता है। आरएसएस अपने स्वंयसेवकों को दबाकर रखता है और महादेव इस बारे में गोलवलकर के वक्तव्यों को उद्धत करते हुए लिखते हैं कि ‘उन्हें जैसा कहा जाए वैसा करना चाहिए....अगर कबड्डी खेलने को कहा जाए तो कबड्डी खेलें, सभा करने को कहा जाए तो सभा करें....उनकी अपनी सोच और विचार की जरूरत नहीं है।’

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एक और बात जो स्वंयसेवकों को समझाई जाती है वह यह कि संविधान त्रुटिपूर्ण है। राज्यों का विचार ही उनके लिए व्यर्थ है क्योंकि सिर्फ एक ही भारत माता हो सकती है और कर्नाटक, गुजरात या बंगाल जैसे राज्यों का अस्तित्व ही गलत है। महादेव लिखते हैं कि, नामकरण जैसी चीज़ों में विविधता से अधिक एकरूपता पर जोर दिया गया है। आरएसएस और बीजेपी आदिवासियों को 'वनवासी' कहते हैं, इससे उनकी स्वदेशी पहचान खत्म हो रही है।

महादेव ने हिंदुत्व को गाय के चेहरे वाले टाइगर की संज्ञा दी है, एक ऐसी शक्ल जो भारतीय समाज को अंदर ही अंदर खा रही है। वे कहते हैं कि प्रधानमंत्री लोकप्रिय हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि वे सिर्फ एक ‘उत्सव मूर्ति’ हैं और एक मुखौटा हैं जिसे जुलूस में आगे रखा जाता है। "असली देवता नागपुर में, आरएसएस मंदिर के अंदर विराजमान हैं।" उत्सव मूर्ति के लिए आवश्यक एकमात्र योग्यता शो प्रस्तुत करने और लोगों को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता है। महादेव पूछते हैं "क्या आज हमें यह सब नहीं दिख रहा?"

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वे इस सबका क्या समाधान सामने रखते हैं? इसके लिए वे एक ऐसे गांव का उदाहरण पेश करते हैं जिसे चोरों ने कब्जा लिया है।

“सबसे पहली बात तो यह कि पूरा गांव जागता है। रात में युवा बारी-बारी से मुहल्लों की चौकीदारी करते हैं। महिलाएँ मिर्च पाउडर अपने साथ लेकर चलती हैं। इस किस्म की जागरुकता और होशियारी की हमें जरूरत है। क्योंकि ये चोर किसी भी भेष में कुछ भी कर सकते हैं, ये मंदिर के रखरखाव के नाम पर सामने आ सकते हैं। फेक न्यूज फैलाई जा सकती है। मंत्रोच्चारण का आयोजन हो सकता है। इससे बचने का एकमात्र तरीका इसका पर्दाफाश करना है। इसके लिए सतर्क रहने की जरूरत है। इसके अलावा कम से कम आज बिखर चुकी समझदार आवाजों को जो गलत हो रहा है उसके खिलाफ बोलना होगा। प्रेम, सहिष्णुता, न्याय जैसे शब्दों की गूंज समाज में फिर से स्थापित करने की जरूरत है।”

किसी भी किताब की बौद्धिक सामग्री का आकलन कभी-कभी इस बात पर होता है कि वह कितनी लंबी है। महादेव खुद अपनी किताब को बुकलेट या पुस्तिका कहते हैं। और इस परिभाषा से पाठकों को भ्रमित नहीं होना चाहिए। यह एक शानदार काम है जोकि हमारे समय में बौद्धिकता पर हो रहे हमलों को उजागर करता है और इस कारण से यह लोकप्रिय भी हो गया है।

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