दो अंग्रजे थे। दोनों ने कहानी बुनी। एक ने हिंदू की, तो दूसरे ने गैर हिंदू की। सन 1900 के शुरू होने के बाद की बात है। एक अंग्रेज ने 1901 में धार्मिक आधार पर जनगणना कराने के बाद कहा कि आंकड़ों के अनुसार हिंदुत्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। अंग्रेज अधिकारी की बड़े जोर-शोर से कही गई बातों को 1909 में कोलकाता के यू. एन. मखुर्जी ने मान लिया और उन्होंने एक हिसाब लगा लिया कि आने वाले 420 वर्षों में हिंदुओं का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। उन्होंने बाकायदा बांग्ला में कई किस्तों में एक लेख भी लिखा। फिर हिंदू के खतरे में होने की राजनीतिक जमीन तैयार की जाने लगी। इसे पहले धार्मिक नेता स्वामी श्रद्धानंद ने प्रचारित किया और इसके लिए 1926 में एक किताब भी लिख डाली। (प्रसिद्ध जनसंख्या शोधकर्ता आर.के.भगत के लेख से साभार)
दूसरी तरफ एक अंग्रेज अधिकारी ने पूर्वी बंगाल में मुस्लिम भावनाओं को इस बात को लेकर उत्साहित किया कि उन्हें शिक्षित हिंदू समुदाय की तेजी से बढ़ती शक्ति पर नियंत्रण रखने के लिए आगे बढ़ना चाहिए। उस समय, यानी 1905 में बंगाल को दो हिस्सों में बांटने की योजना बनी। तब कलकत्ता राजनीतिक शक्ति का प्रमुख केंद्र था। मुस्लिम-बहुल पूर्वी बंगाल बनाकर ढाका को एक नए राजनीतिक केंद्र बनाने की योजना बनाई गई। कानपुर दंगा जांच समिति ने सांप्रदायिक समस्या शीर्षक से 1933 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि उस समय मुसलमान राजनीतिक रुप से शिथिल अवस्था में थे लेकिन उन्हें जबरन कार्रवाई के लिए उकसाया जा रहा था और वे निर्दयतापूर्वक हिंदुओं के खिलाफ खड़े किए जा रहे थे।
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इस तरह खुद कराई गई जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ब्रिटिश सत्ता ने सांप्रदायिक राजनीति का आधार विकसित किया। फिर इससे हिंदुत्व की राजनीति के लिए एक जमीन तैयार हुई और 120 वर्षों से मुस्लिम जनसंख्या बढ़ने और हिंदुत्व के खतरे का नारा लगता आ रहा है।
दुनिया में कोई भी राजनीति जब तथ्य और तर्क की जगह असुरक्षा की भावना, यानी किसी समुदाय के भीतर एक दूसरे समुदाय के खिलाफ आक्रमण और असुरक्षा की भावना पैदा करने में कामयाब हो जाती है तो उस डर को राजनीति के लिए सबसे ताकतवर हथियार मान लिया जाता है। इसके साथ यह भी यह प्रमाणित मनोविज्ञान है कि बहुसंख्यक के भीतर जब डर पैदा किया जाता है तो इससे उसके भीतर आक्रामकता पैदा की जा सकती है और अल्पसंख्यक अपनी सुरक्षा के इंतजाम में फंस सकता है। योजनाकार इन दोनों ही स्थितियों में अपने लिए तर्क की एक भाषा विकसित कर लेता है और खुद हिंसा के वातावरण बनाने की छूट हासिल कर लेता है।
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हकीकत
धार्मिक आधार पर जनगणना के आंकड़ों को 120 वर्ष से राजनीतिक आधार बनाने के प्रयासों के नतीजे सामने हैं। कोई तथ्य और तर्क के आधार पर यह प्रमाणित नहीं कर सकता है कि धर्म मानने वालों की संख्या बढ़ाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा बच्चे पैदा किए जाते हैं। भारत में अब तक की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर भी इस तरह के किसी भी प्रचार को खारिज किया जा सकता है। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक पुस्तक का प्रकाशन किया है जिसमें अब तक जनसंख्या से खतरे और असुरक्षा बढ़ने की अखबारों, टेलीविजन चैनलों में प्रकाशित और प्रसारित खबरों का अध्ययन किया गया है। इसमें यह स्पष्ट हुआ है कि जनसंख्या और धर्म को खास राजनीतिक मकसद से समय-समय पर उछाला जाता है, इसमें अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में शोध संस्थान के नाम पर अपने अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने के इरादे से प्रस्तुत किए जाने वाले आंकड़ों का भी पोस्टमार्टम किया गया है।
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1901 में जब अविभाजित भारत में आबादी के आंकड़े आए, तब खबरें इस तरह प्रचारित की गईं कि 1881 में 75.1 प्रतिशत हिंदुओं के मुकाबले 1901 में उनका हिस्सा घटकर 72.9 प्रतिशत रह गया है और 2011 में एक अखबार में प्रकाशित प्रचार का एक शीर्षक है - “जनगणनाः हिंदुओं की हिस्सेदारी 80 फीसदी से कम, मुस्लिमों की हिस्सेदारी बढ़ी लेकिन कम”। खबर में लिखा गया कि भारत की आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी में आजादी के बाद के दशकों में तेजी से गिरावट आई है। खबर में आगे बताया गया है कि 2001 में कुल आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 80.45 फीसदी थी। अविभाजित भारत और 1947 के बाद की आबादी के बारे में प्रचार में निहित विरोधाभासों की पहचान की जा सकती है।
एक दूसरी दृष्टि से देखें कि दुनिया के एक मात्र हिंदू राष्ट्र के रूप में नेपाल की जनसंख्या की वार्षिक विकास दर 2.1 प्रतिशत रही है जबकि इस्लामिक राष्ट्र बांग्लादेश में उससे कम दो प्रतिशत है। धार्मिक कारणों से जनसंख्या में बढ़ोतरी यदि बताई जाती है तो फिर जीने की औसत उम्र के लिए भी धार्मिक कारणों को माना जा सकता है। हिंदू राष्ट्र नेपाल में जहां मात्र 57 वर्ष की औसत आयु रही है, इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान में 70 वर्ष और बांग्लादेश में 58 वर्ष है। यदि जनसंख्या की बढ़ोतरी के पीछे धर्म की भूमिका होती तो इंडोनेशिया में वार्षिक विकास दर 1.1 प्रतिशत नहीं होती और पाकिस्तान में 2.4 प्रतिशत नहीं होती। इन दो इस्लामी-बहुल आबादी में जनसंख्या के वार्षिक विकास दर में अंतर वहां का आर्थिक और सामाजिक विकास है। नेपाल में जनसंख्या की वार्षिक विकास दर 2.1 प्रतिशत है तो हिंदू-बहुल भारत में यह विकास दर दो प्रतिशत से कम 1.93 फीसदी रही है। यह उल्लेखनीय है कि नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक है। राजनीतिक विचारधारा और उस पर आधारित व्यवस्था जनसंख्या के विकास दर को नियंत्रित करने और कम करने में सहायक हो सकती है। जैसे चीन में वार्षिक विकास दर 0.7 प्रतिशत है। भारत में आदिवासी जनसंख्या 5.6 (1951) से बढ़कर 8.6 प्रतिशत (2011) हो गई तो उसके पीछे उनकी निर्धनता और उन्हें विकास में हिस्सेदारी नहीं मिलना एक वजह है।
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जनसंख्या का प्रचार
जनसंख्या को लेकर एक सौ बीस वर्षों से ज्यादा समय से जो प्रचार चल रहा है, उसने लोगों के भीतर तर्क और तथ्य की चेतना को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसका लाभ जिस तरह से अंग्रेज शासक लेने की कोशिश करते रहे, ठीक उसी तर्ज पर आजादी के पूर्व से ही भाऱतीय राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली शक्तियां भी अपने आंतरिक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए उसका इस्तेमाल करती रहती हैं। सरसरी निगाह से भी यह देखा जा सकता है कि पिछले 120 वर्षों में जनसंख्या को धर्म के आधार पर बांटकर बड़ी आबादी को लगातार गरीबी और बदतर हालात में पहुंचा दिया गया है। चंद अमीरों के हाथों में देश की आधी से भी ज्यादा संपत्ति पहुंच गई है।
भारत में चुनाव के पूर्व सांप्रदायिक माहौल बनाए रखने के लिए तरह-तरह की घटनाएं प्रमुखता से प्रचारित की जाती हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार को भी यह पता है कि जनसंख्या नियंत्रण कोई प्रादेशिक या राज्य स्तरीय नीति नहीं हो सकती है लेकिन इससे अपने राजनीतिक हिसाब वाला माहौल बनाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश की संवैधानिक व्यवस्था को चलाने वाले भाजपा के योगी आदित्यनाथ का यह दावा है कि प्रदेश में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए हैं। दरअसल किसी भी संगठन को दंगों से सांप्रदायिक माहौल बनाने में मदद मिलती है। लेकिन जब रोज-ब-रोज माहौल बनाने की विधि खोज ली जाती है तो फिर दंगों की जरूरत ही क्यों हो सकती है। असम के साथ उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण पर प्रचार से सांप्रदायिक माहौल बन सकता है, यह एक राजनीतिक आकलन किया गया है। लेकिन सच यह है कि देश में पिछड़े, दलित, आदिवासी जिस तरह के आर्थिक हालात में हैं उन्हें नियंत्रित करने के एक औजार के रूप में जनसंख्या नियंत्रण के कानूनों का दुरुपयोग जरूर किया जा सकता है। प्रचारित जरूर है कि मुस्लिम आबादी पर नियंत्रण करना है लेकिन निशाना पिछड़ा वर्ग, दलित और आदिवासी हैं क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि सर्वाधिक संख्या वाले पिछड़े, दलित और आदिवासी गरीब परिवारों में कई वजहों से बच्चों की संख्या ज्यादा है। इस तरह के काननूों से उनसे सबसे ज्यादा उनके राजनीतिक और दूसरे नागरिक अधिकारों को छीना जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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