विचार

हिंदी दिवस विशेष: बेसिर पैर की मुहिम से ज्यादा जरूरी है भाषा की परंपरा और इतिहास को समझना

हिंदी या हिंदवी बोलने वालों की पट्टी का विशाल आकार देखते हुए 1854 तक बांटो और राज करो की नीति के तहत अंग्रेज़ अलग-अलग लिपियों (हिंदी के लिए नागरी, उर्दू के लिए फारसी) को सरकारी ठप्पा मार कर दिलों को हिंदू-मुसलमान के दो खित्तों में बांटने में बाकायदा जुट गये।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

हिंदी के प्रचार, प्रसार और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिये जाने के सवाल पर गैर हिंदीभाषी राज्यों और हिंदी पट्टी के बीच लगातार कड़वी बहसें और आंदोलन होते रहे हैं। और हर बार उसमें राजनैतिक दल के कूद पड़ने से एक रस्मी तौर से हर बरस हिंदी पखवाड़ा मनाना कलहमय और बेमतलब होता जा रहा है। उत्तर भारत के 11 राज्यो की विशाल हिंदी पट्टी में आम जनता द्वारा बोली जाने वाली भाषा के जितने नाम प्रचलित हैं, हिंदी उनमें सबसे पुराना है। इस नाम की रचना हिंदुओं ने नहीं की, न ही पुराने हिंदी लेखकों ने इस नाम का प्रचार किया।

मध्यकाल से 19वीं सदी तक वे तो इसे अक्सर भाषा या भाखा ही कहते रहे (भाखा भनति थोर मति मोरी-तुलसी । अमीर खुसरो के शब्दकोष खालिक बारी में (जो हिंदी-उर्दू का सबसे पुराना कोष माना जाता है) भी 12 बार हिंदी और 55 बार हिंदवी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यहां हिंद का मतलब है हिंद की भाषा और हिंदवी का मतलब है तमाम तरह के हिंदुस्तानियों की भाषा। 1750 में कविवर सौदा के उस्ताद शाह हातिम ने भी इन दोनों शब्दों का प्रयोग हिंदुस्तानियों की भाषा के रूप में किया है जिसमें तमाम तरह की जनबोलियों से सींची जाती हिंदी-उर्दू दोनों सिमटी हुईं हैं। और चूंकि हमारी गद्य-पद्य परंपरा प्राय: वाचिक ही रही है, इसलिये कथन की परंपरा में तो बोली एक ही सुनाई देती रही। पर जब लिखने या ग्रंथ के बतौर लिखवाये जाने की बारी आई तो यदि लिखनेवाला मुंशी दरबार से जुड़ा और फारसी का जानकार था (इस श्रेणी में कायस्थ और खत्री हिंदू भी बड़ी तादाद में रहे), तो ग्रंथ फारसी हरुफों में और अगर नागरी का जानकार हुआ तो नागरी में लिखे जाते रहे। ‘मीर’ कहते हैं :

क्या जानूं लोग कहते हैं किसको सरूर-ए-कल्ब (ह्रदय का उन्माद)

आया नहीं है लफ्ज़ य हिंदी ज़ुबां के बीच

ज़ाहिर है मीर के तईं भी हिंदी ज़ुबान का मतलब है बोलचाल की वह भाषा जिसमें वे शायरी करते थे। मद्रास के बाकर आगा साहिब ने तो अपने उर्दू दीवान का नाम दीवान-ए-हिंदी रखा है, यानी कि उर्दू, दकनी, हिंदी, हिंदवी - ये लफ्ज़ एक ही ज़ुबान के मुख्तलिफ नाम थे। उर्दू के पद्य के लिये रेख्ता नाम इसी बीच तजवीज हुआ, जिसका मतलब है ईंट, पत्थर और चूने की पक्की इमारत।

इसके बाद इसी ज़ुबान को मिला नाम हिंदुस्तानी, पुर्तगालियों की देन है। उसका मूल आशय था दोआबे और उत्तर भारत के रहनेवालों की ज़ुबान। और साहिब गोरों के दिये इस नाम पर सरकारी सनद की भी बाकायदा छाप लगा दी गई जब 1803 में कलकत्ते के फोर्ट विलियम में डॉ गिलक्राइस्ट की निगरानी में अंग्रेज़ मुलाज़िमों को सहज हिंदी सिखाने की नीयत से एक महकमा कायम किया गया। यहां हिंदू-मुसलमान लेखकों से उस भाषा में पाठ्य पुस्तकें लिखवाई गईं जो जनसामान्य की भाषा थी, न पंडितों की संस्कृतनिष्ठ भाषा, न ही मौलवियाना उर्दू-ए-मुअल्ला। खुद गिलक्राइस्ट साहिब ने अंग्रेज़ी-हिंदुस्तानी डिक्शनरी और हिंदुस्तानी भाषा के व्याकरण पर दो किताबें लिखीं। इस तरह भाषा के बतौर हिंदुस्तानी सरकारी भाषा बन बैठी।

अगला नाम जो चल निकला वह था खड़ी बोली। हिंदी कवि और संगीत की बंदिशें रचनेवाले उस्ताद लोग तब तक अधिकतर ब्रज भाषा में ही कविता लिखते थे जिसे उनके शागिर्द अधिकतर उर्दू और कभी-कभी नागरी लिपि में लिख लिया करते थे। पर 19वीं सदी के अंत तक गद्य का प्रचार होने लगा तो मांग हुई कि जिस भाषा में गद्य लिखा जा रहा है, उसी में पद्य भी लिखा जाये। इस मकाम पर हिंदी के नगडबाबा भारतेंदु ने खड़ी बोली का उत्स पश्चिमोत्तर का अग्रवाल समुदाय को बताया है। पर मज़े की बात यह कि खुद खड़ी बोली का उदाहरण वे जिस दोहे से देते हैं, उसमें ब्रजभाखा और उर्दू के उच्चारण की खुशबू है :

भजन करो श्रीकृष्ण का मिल करके सब लोग ।

सिद्ध होयगा काम सब औ छूटेगा सोग ।।

सो हिंदी या हिंदवी बोलने वालों की पट्टी का विशाल आकार देखते हुए 1854 तक बांटो और राज करो की नीति के तहत अंग्रेज़ अलग-अलग लिपियों (हिंदी के लिए नागरी, उर्दू के लिए फारसी) को सरकारी ठप्पा मार कर दिलों को हिंदू-मुसलमान के दो खित्तों में बांटने में बाकायदा जुट गये। कलकत्ते में चार हिंदू-मुस्लिम भाखा मुंशी तैनात किये गये जिनको हिंदुओं के लिये नागरी लिपि और मुसलमानों के लिये उर्दू लिपि के मानकीकरण का काम सौंपा गया। 1854 में फ्रांसीसी विद्वान गार्सां द तासी ने लिखा कि हिंदुस्तान की ज़ुबान हिंदी और उर्दू दो बोलियों में तकसीम हो चुकी है और इसकी बिना (नींव) पर मज़हब बन गया है।

काशी के राजा शिव प्रसाद सितारा-ए-हिंद जिन्होंने सरकारी स्कूलों की करीब 21 पाट्यपुस्तकें लिखीं, उन्होंने लिखा कि ‘इस देश की बोली को फारसी, अरबी, तुर्की और अंग्रेज़ी लफ्ज़ों से खाली करने की कोशिश वैसी ही है, जैसी कोई अंग्रेज़ी को यूनानी, रोमन, फरांसीसी वगैरा से आये परदेसी लफ्ज़ों से खाली करा के उसे हज़ारों बरस पीछे की बोली बना दे’। यह लिखकर वे शुद्धतावादियों के कोपभाजन बने जो लिपि को धर्म के चश्मे से देखने पर तुले हुए थे। और चाहते थे कि हिंदी से तमाम उर्दू, फारसी और विदेशी शब्दों की जगह संस्कृत के तत्सम शब्द ला रखे जाएं।

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दरअसल हिंदी-उर्दू का सारा विवाद ही लिपिभेद से शुरू करवाया गया,और फिर बंटवारे के बाद जब भाषावार प्रांत बने तो एक सनातन विरोध का महल उस पर बन गया। कुटुंब के बंटवारे की तरह ही भाषा का यह नकली बंटवारा भी उत्तर भारत को भारी पड़ा है। हिंदी-उर्दू के साहित्य और वैचारिक लेखन के बीच क्रमश: गहरे कलह और ज्ञान की साझा संपत्ति का विनाश और भी तेज़ हो चला जब हिंदी-उर्दू लिपि के समर्थक खित्तों ने अपनी-अपनी जातीय धार्मिक पहचान गहराने के लिये उत्तर की प्राचीन सदानीरा बोलियों : ब्रज, अवधी, मैथिल, पुरबिया आदि से मुख मोड़ लिया। यह बोलियां ही खुसरो, रहीम, तुलसी, मीर, गालिब, और भारतेंदु की हिंदी-उर्दू को सदियों से सींचती आई थीं। और जब जबरन शास्त्रीय जड़ों की तलाश में संस्कृत-फारसी के शब्द जबरन खींच कर उनकी जगह ला बिठाये जाने लगे तो दोनो भाषाओं का रिश्ता गांव-देहात से तो कट ही चला, शब्दों का वह ठेठपना भी कम होने लगा जो कलेजों को चौड़ा बनाता था।

शुद्धीकृत हो रही हिंदी-उर्दू ने साहित्य में नव ब्राह्मणवाद, नव शेखवाद को आगे बढ़ाया जिसकी गांठ कस कर सरकारी राजनैतिक वर्चस्व से जुड़ी हुई थी। न पाकिस्तान में उर्दू सहज किनारे काट सकी, न ही हिंदी अकादमियों और प्रचारिणी समितियों में कैंद हिंदी। यह हमारे समय की एक बड़ी अनकही त्रासदी ही तो है। हिंदी पखवाड़ा मनाना एक तरह से तलाक के बाद शादी की सालगिरह मनाना है जो ‘स्व’ की टकराहट से टूटी घरों को और उजाड़ गई। आज के हिंदी उर्दू साहित्यकार और पुरानी संगीतिक बंदिशों के संकलनकर्ता एक टूटे घर के लैपालक बच्चे हैं ।

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