भाषाएं मानव जाति की सबसे घुमंतू चिरसंगिनियां हैं। इन दिनों अधपढ़े, साहित्यिक संस्कारों से शून्य और इतिहास की अधकचरी समझ रखने वाले राजनेता हिंदी के प्रचार, प्रसार और इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने के सवाल पर गैर हिंदी भाषी राज्यों और हिंदी पट्टी के बीच लगातार कड़वी बहसें और आंदोलन पैदा कर रहे हैं। इसलिए सितंबर में हिंदी के शुद्धीकरण और प्रसार के सरकारी कोलाहल के बीच आम फहम हिंदी के विकास पर भाषा विज्ञानियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और शिक्षित समुदाय के बीच कोई सार्थक बातचीत नहीं हो पाती। यही वजह है कि एक सुंदर, सहज और ऐतिहासिक धारा में बहती आई भाषा का पखवाड़ा पुलिस पखवाड़े की तरह कलहमय और बेमतलब रस्म बनकर रह जाता है।
यह अजीब बात है कि हिंदी के नाम पर सर कटाने को तैयार लोगों में भी हिंदी की शब्द संपदा में नाना भाषाओं के शब्दों की आवक, उनके बदलते रूपों और यायावर जत्थों के साथ घूमते हुए दूसरी भाषाओं से उसमें नए शब्दों की आवाजाही को लेकर कोई उत्सुकता नहीं दिखती। हिंदी पत्रकारिता के उभार के समय अधिकतर बड़े नामी संपादक साहित्यिक पृष्ठभूमि से भाषा की एक महीन समझ लिए हुए आए थे। धर्मवीर भारती (धर्मयुग), कमलेश्वर (सारिका, गंगा), अज्ञेय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा (सभी दिनमान), मनोहर श्याम जोशी (साप्ताहिक हिंदुस्तान) आदि ऐसे कई नाम हैं। उनके अलावा जो सीधे साहित्य से नहीं जुड़े थे, जैसे राजेंद्र माथुर या प्रभाष जोशी, अभय छजलानी या गुलाब कोठारी आदि, वे भी बहुश्रुत, बहुपाठी लोग थे। भाषा, वर्तनी और शब्दों की त्रुटियों को रोकने में उनकी निर्णायक भूमिका रही। खुद भी वे राजनीति कवर करते हुए भी नए साहित्य, क्रिकेट से लेकर शास्त्रीय संगीत पर भी साधिकार लिखते रहे। इन सबने हिंदी पत्रकारिता को एक गहराई और ताजा शक्ल दी और आम फहम हिंदी को थामकर हिंदी मीडिया को अंग्रेजी से कहीं अधिक प्रचार-प्रसार का वाहक बनाया। ‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी’ के मर्म को वे समझते थे और उनकी ही प्रेरणा से जब हिंदी अखबारों ने क्षेत्रीय संस्करण निकाले तो हर इलाके की हिंदी के खास कटाव को सुरक्षित रखा गया, ताकि पाठकों को उसमें अपनत्व मिले।
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पिछले एक दशक से हिंदी मीडिया का भारी प्रसार हुआ है लेकिन संपादकों और उनकी टोलियों में भाषा को लेकर एक तरह की तटस्थता और ‘सब चलता है’ की वृत्ति घर कर गई है। हिंदी के बेहतरीन अखबार या लोकप्रिय खबरिया चैनल देख लीजिए। साफ है कि संपादकीय जत्थे और चहकती-महकती एंकरों को पाठकों को सही भाषा प्रयोगों से परिचित कराने या हिंदी के मीडिया से इतर इलाकों में बनते रूपों को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं है। यह विडंबनामय है क्योंकि हिंदी पखवाड़े में वे मालिकान को खुश करने या अपने को राजनीति के लिए अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए हिंदी की संस्कृत जड़ों और उसके शुद्धीकरण पर तोता रटंत बयान देते हैं जबकि संस्कृत के कोश, शब्द व्युत्पत्ति और विवेचना की समृद्ध परंपरा से उनकी दुआ सलाम का भी रिश्ता नहीं। यही हाल उन बड़े राजनेताओं का है जो निहायत गलत-सलत संस्कृत और हिंदी में इन भाषाओं और उसके साहित्यकारों की बाबत अपने सद्विचार मीडिया में बहाते रहते हैं।
ऐसे तमाम लोगों को जो शुद्धीकरण की दबंग मुहिम से जुड़े हुए हैं, भाषा विज्ञानियों के चरणों में बैठकर हिंदी के बनने की कथा की बाबत कुछ सीखना चाहिए। पाणिनि, राजशेखर से लेकर आचार्य किशोरी दास वाजपेयी, क्षिति मोहन सेन और भोलानाथ शास्त्री-जैसे भाषा विज्ञानी सदियों से धर्म, नस्ल या सांस्कृतिक पुनरुत्थान की टंटेबाजी से परे भाषाओं का जुड़ाव समझाते आए हैं। उनको पढ़ने से ही भ्रम जाल कटता है और पता चलता है कि किस तरह हिंदी के कोष में कितनी तरह की अरबी, फारसी, तुर्की, मंगोल, या फ्रांसीसी अंग्रेजी, पुर्तगाली-जैसी भाषाएं लगातार जुड़ती-घुलती रही हैं। और यह भी कि उन भाषाओं से मिले नए शब्दों का किस तरह जनता की बोलियों के रसायन से पिघला कर देसीकरण (लैंटर्न का लालटेन, पेंशन का पिलसन, संबुद्ध का समझ, पुलक का पुलाव) होता रहा है।
हिंदी आज भी राजभाषा से कहीं ऊपर एक जनभाषा है और इस मिली जुली आम फहम भाषा के जो सारे उत्तर भारत के 11 राज्यों की विशाल हिंदी पट्टी में आम जनता द्वारा बोली जाती है, अनेक नाम हैं जिनमें हिंदी सबसे पुराना है। मजे की बात यह कि इस नाम की रचना हिंदुओं ने नहीं की, न ही पुराने हिंदी लेखकों ने इस नाम का प्रचार किया। मध्यकाल से 19वीं सदी तक कवि लेखक, दरबारी कारकुन सब इसे अक्सर भाषा या भाखा के ही नाम से पुकारते रहे (भाखा भनति थोर मति मोरी- तुलसी)। अमीर खुसरो के शब्दकोष खालिक बारी में (जो हिंदी-उर्दू का सबसे पुराना कोष माना जाता है) इस भाषा के लिए 12 बार हिंदी और 55 बार हिंदवी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यहां हिंद का मतलब है हिंद की भाषा और हिंदवी का मतलब है तमाम तरह के हिंदुस्तानियों की भाषा।
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ये हिंदुस्तानी नाम भी हिंदुओं की रचना नहीं, यूरोप से आए पुर्तगालियों की देन है। इसका मूल आशय था दोआबे और उत्तर भारत के रहने वालों की जुबान और जब अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे तले तिजारत करने आए और मालिक बन बैठे, तब गोरों के बीच प्रचलित इसी नाम पर सरकार-ए- बरतानिया की सरकारी सनद की भी बाकायदा छाप लगा दी गई। अब बाजार तिजारत बिना लोकल भाषा जाने तो संभव नहीं होती, इसलिए 1803 में कलकत्ते के फोर्ट विलियम कॉलेज में डॉ. गिलक्राइस्ट की निगरानी में कंपनी के विलायत से आए अंग्रेज मुलाजिमों को जनभाषा सिखाने की नीयत से एक नया महकमा कायम हुआ। यहां हिंदू मुसलमान लेखकों (लल्लू लाल, मुंशी सदासुख लाल, मीर अम्मन आदि) से उर्दू और नागरी इन दो लिपियों में उस भाषा की पुस्तकें लिखवाई गईं जो जनसामान्य बोलती थी। यह न सवर्ण पंडितों की संस्कृतनिष्ठ भाषा थी, न ही शुर्फा (ईलीट) मुसलमानों और मौलवियों की फारसीनिष्ठ उर्दू-ए-मुअल्ला। खुद गिलक्राइस्ट साहिब ने अंग्रेजी-हिंदुस्तानी डिक्शनरी और हिंदुस्तानी भाषा के व्याकरण पर दो किताबें भी लिखीं।
कलाकारों के लिए मूल मसला जन-जन तक पहुंचने का होता है, लिपि-विपि का नहीं। 14वीं सदी में खुसरो खुद को तूतिये हिंद यानी हिंदुस्तान की आवाज कहते हैं। उनके बाद के 19वीं सदी के महान् शायर ‘मीर’ भी कहते हैं : ‘क्या जानूं लोग कहते हैं किसको सरूर-ए-कल्ब (ह्रदय का उन्माद) /आया नहीं है लफ्ज़ य हिंदी ज़ुबां के बीच।’ दोनों के तईं हिंदी जुबान का सीधा-सा मतलब है हिंदुस्तान की बोलचाल की वह भाषा जिसमें वे शायरी करते थे। दक्खिन में भी यही हाल रहा जहां मद्रास के बाकर आगा साहिब ने अपने उर्दू दीवान का नाम रखा दीवान-ए-हिंदी। लिहाजा संतो, मान भी लीजिए कि उर्दू, दकनी, हिंदी, हिंदवी यह लफ्ज एक ही जुबान के अलग-अलग नाम हैं।
मानक भाषा तय करवाने का सिलसिला शुरू हुआ ब्रज क्षेत्र तथा गूजरों के आधिपत्य वाले पश्चिमी संयुक्त प्रांत से। जब खड़ी बोली को ही टकसाली हिंदी बताते हुए एक लट्ठमार जत्था काशी की पंडित लॉबी से जा भिड़ा। मजा यह, कि 19वीं सदी के अंत तक हिंदी गद्य का प्रचार बढा, तो मांग हुई कि जिस भाषा में गद्य लिखा जा रहा है, उसी में पद्य भी लिखा जाए। इस मकाम पर भारतेंदु ने भी एक तालिका में स्वीकार किया कि इस समय हिंदी इलाके में बारह तरह की हिंदी प्रचलित है जिसमें रेलवई की (अंग्रेजी मिश्रित) और काशी की संस्कृत मिश्रित हिंदियां भी शामिल हैं। मामला किस कदर पेंचदार था, इसका प्रमाण यह है कि खुद खड़ी बोली का उदाहरण वे अपने जिस दोहे से देते हैं, उसमें ब्रज भाखा और उर्दू के उच्चारण की खुशबू साफ है:
भजन करो श्रीकृष्ण का मिल करके सब लोग।
सिद्ध होयगा काम सब औ छूटेगा सोग।।
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बहरहाल राजनीति तो अपनी शतरंज पर अपने ही नियमों से खेल रचती है। 1854 में फ्रांसीसी विद्वान गार्सां दतासी ने लिखा कि हिंदुस्तान की जुबान हिंदी और उर्दू दो बोलियों में तकसीम हो चुकी है और इसकी बिना (नींव) भाषा नहीं, मजहब है। उस समय भी बढ़ती कूपमंडूकता के खिलाफ काशी के राजा शिव प्रसाद सितारा-ए-हिंद ने सरकारी स्कूलों की करीब 21 पाठ्य पुस्तकें आमफहम, यानी मिलीजुली हिंदी में देवनागरी में लिखीं और यह भी लिखा कि ‘इस देश की बोली को फारसी, अरबी, तुर्की और अंग्रेजी लफ्जों से खाली करने की कोशिश वैसी ही है, जैसी कोई अंग्रेजी को यूनानी, रोमन, फ्रांसीसी वगैरह से आए परदेसी लफ्जों से खाली करा के उसे हजारों बरस पीछे की बोली बना दे।’
दरअसल हिंदी-उर्दू का सारा विवाद ही लिपि भेद से शुरू करवाया गया और कुटुंब के बंटवारे की तरह ही भाषा का यह नकली बंटवारा भी उत्तर भारत को भारी पड़ा है। गहरे कलह और ज्ञान की साझा संपत्ति की बंटवार का सबसे बुरा असर यह हुआ कि हिंदी-उर्दू लिपि के समर्थक खित्तों ने अपनी-अपनी जातीय धार्मिक पहचान गहराने के लिए उत्तर की प्राचीन सदानीरा बोलियों: ब्रज, अवधी, मैथिल, पुरबिया आदि से मुख मोड़ लिया जो खुसरो, रहीम, तुलसी, मीर, गालिब, भारतेंदु और प्रेमचंद सहित अखबारों की हिंदी को भी सींचती आई थीं। जब जबरन शास्त्रीय जड़ों की तलाश में संस्कृत फारसी के शब्द जबरन खींचकर उनकी जगह ला बिठाए गए तब भाषाओं का रिश्ता गांव देहात से तो कट ही चला, शब्दों का वह ठेठपना भी कम होने लगा जो साहित्य और पत्रकारिता की अभिव्यक्ति को एक गहरा और ऐतिहासिक दायरा सहज ही दे देता था।
अभी हाल में जानी-मानी भाषाविद पेगी मोहन की एक बहुत रोचक किताब वांडरर्स, किंग्स, मरचेंट्स आई है। पेगी खुद कैरिबियन मूल की बहुभाषा भाषी महिला हैं जो लंबे समय तक भारत में शिक्षा तथा भारतीय भाषाओं पर काम करती रही हैं। निजी और भाषा के क्षेत्र में वह मिलेजुले भारतीय तथा यूरोपीय गुणसूत्रों की सार्थकता का साकार स्वरूप हैं। पेगी की मूल स्थापना है कि हिंदी ही नहीं, संस्कृत में भी सदियों से घुलनशीलता और भाषाओं की साथ सहज सुसंगति बना सकने के गुण से निरंतर नए शब्द आए, पुरानों ने नया अर्थ पाया। और इस तरह उस मिली-जुली परतदार संस्कृति और विशाल भाषायी संकरण से बने शब्द भंडार का निर्माण हुआ जिसका जिक्र नेहरू भी डिस्कवरी ऑफ इंडिया में करते हैं।
पाणिनि के उद्बोधन से वह बात शुरू करती हैं: इति वर्ण विदा:, प्रहूर्णि पूर्णंतं निबोधता (भाषा विज्ञानी जो कह गए हैं, उसे पूरे मन से समझो)। पेगी का दृढ़ विचार है कि हिंदी की स्पर्धा भारतीय भाषाओं से नहीं, असली स्पर्धा उस अंग्रेजी से है जो बहुत तेजी से एक तकनीकी कल्कि अवतार में सारी दुनिया के ज्ञान का इकहरा कोष बना रही है। भाषाई इकरंगी अंग्रेजी की यह दुनिया खरपतवार की तरह हमारी इलाकाई भाषाओं, खासकर हिंदी को जड़ों से कुतर रही है। यही कारण है कि बोलियां तेजी से लुप्त हो रही हैं और संचार माध्यमों का सारा तकनीकी काम अंग्रेजी की जानकारी तक सीमित होता जा रहा है।
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ईमान से कहें तो आज राजनीति से प्रेरित भाषा विषयक हठधर्मिता हमारी सरकार की एक बड़ी कमजोरी बन रही है। सरकार क्षेत्रीय तौर से हिंदी के नए दुश्मन ही नहीं बना रही, खुद हिंदी को भी उथला कर ही है। इसी कारण आजादी के संग्राम से सहज जनभाषा के पुल की बतौर देश भर में स्वीकार्य हिंदी आज सबकी निगाहों में, खुद अपनी भी, संदिग्ध बन गई है। सरकार और दिल्ली को मुंबई के फिल्म जगत से शिक्षा लेनी चाहिए जो मिलीजुली जनभाषा को सहजता से अपनाकर हिंदी फिल्में रचता रहा जिन्होंने तमाम सरकारी फिल्म दृश्य श्रव्य विभाग की रसहीन फिल्मों और वृत्तचित्रों के उलट हिंदी विरोध या हिंदुस्तान से उत्कट नफरत को पलीता लगाकर दुनिया भर में संगीतमय हिंदी की धूम मचा दी। यहां तक कि अफगानिस्तान के खौफनाक तालिबान भी उनके शैदाई हैं। बेहतर हो कि सरकार हिंदी के जबरन शुद्धीकरण की बजाय मिलीजुली आमफहम हिंदी का महत्व स्वीकार करे और शिक्षाविदों को उसे आधुनिक विषयों की सार्थक पालकी बनाने को बढ़ावा दे। उसे सिर्फ मनोरंजन या दल विशेष के राजनैतिक सोच की ही वाहक न समझती रहे।
ज्ञान के विशाल इलाके में जब तक नए साहित्य, नए विचार और जमीनी शोध को पैदा करने की नौकरियां नहीं बनतीं, सरकार हिंदी पखवाड़े मनाती रहे, अनुभवी माता-पिता अंग्रेजी माध्यम के स्वर्ण-मृग का ही पीछा करते रहेंगे।
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