विचार

हाथरस कांड पर बहस: पुरुष वर्चस्व की सामाजिक व्यवस्था से नियंत्रित होती शक्ति और सत्ता का सरकारी सन्नाटा

हाथरस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की संवेदनहीनता का इसी से पता चल जाता है जब उसने रात के अंधेरे में दलित लड़की के परिवार की मिन्नतों को अनदेखा करते हुए अंतिम संस्कार कर दिया। ऊपर से डीजीपी स्तर के अधिकारी कहते हैं कि मृतका के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं था।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

2012 के निर्भया कांड से लेकर इस साल उत्तर प्रदेश के हाथरस की दलित लड़की के कथित सामूहिक दुष्कर्म को लेकर जारी बहसों से एक बात तो साफ हो जाती है कि, लिंगभेद एक सामाजिक व्यवस्था है जो भारत में सत्ता और शक्ति को विभाजित करती है। पुरुषों ने किसी भी परिवर्तन और निर्णय लेने के लिए खुद को सशक्त कर रखा है। महिलाएं, और खासतौर से युवा दलित लड़कियां अमूर्त अधिकारों के साथ अमूर्त शख्सियत बनकर रह गई हैं।

हाथरस मामले में उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार की संवेदनहीनता का स्तर इसी से पता चल जाता है जब उसने रात के अंधेरे में इस दलित लड़की के परिवार की मिन्नत और गुजारिशों को अनदेखा करते हुए अंतिम संस्कार कर दिया और डीजीपी स्तर के अधिकारी ने बयान दिया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट से सामने आया है कि मृतका के साथ बलात्कार नहीं हुआ था।

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उत्तर प्रदेश की राज्यपाल एक महिला राज्यपाल है, जो इस मामले पर अभ तक चुप हैं, आमतौर पर खूब बोलने वाली अमेठी से बीजेपी सांसद स्मृति ईरानी भी पहले इस मामले में चुप्पी साधे रहीं और जब राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ हाथरस जाते वक्त यूपी पुलिस ने बदसुलूकी की तो उन्होंने हाथरस के उस गांव की किलेबंदी को सही ठहराया जिस गांव की वह दलित लड़की रहने वाली थी। वह कहती हैं कि कांग्रेस घटना का राजनीतिकरण करने और राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। यह बयान देते वक्त सुश्री ईरानी निश्चित ही वह वक्त भूल गईं जब वह निर्भया मामले में सड़क पर उतरी थीं और कांग्रेस सरकार से यह कहते हुए इस्तीफा मांगा था कि यह सरकार बहन-बेटियों की हिफाजत नहीं कर सकती।

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कांग्रेस को छोड़कर बाकी दल भी खामोश ही रहे। खासतौर से उत्तर प्रदेश में सरकार चला चुकीं समाजवादी पार्टी और बीएसपी की प्रतिक्रिया भी निंदनीय ही कह जाएगी। खुद को दलितों का मसीहा कहने वाली और 5 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं भी काफी देर से इस मुद्दे पर जागीं। चूंकि वे एक दलित नेता और महिला हैं इसलिए उनकी प्रतिक्रिया अधिक उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त गुर्जर विधायक नंदकिशोर ने भी प्रतिक्रिया तो दी लेकिन उनका जोर जातीय समीकरणों पर ज्यादा दिखा और उन्होंने इस मामले में जल्द न्याय और रोपियों को कठोर सजा देने की मांग उठाई।

हैरानी की बात है कि उत्तर प्रदेश में कांवड़ियों पर फूल बरसाने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को बलात्कार से संबंधित कानून का पूरा ज्ञान तक नहीं है कि 2013 में जस्टिस वर्मा कमेटी ने सेक्स और लिंग के बीच के अंतर को मिटाते हुए बलात्कार से संबंधित पुराने कानून में बदलाव किया था और बलात्कार को साबित करने के लिए अनिवार्य फोरेंसिक प्रणा की बाध्यता खत्म कर दी थी।

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दरअसल महिलाओं की रक्षा के लिए बने कानूनों का अभी तक सरकार और समाज से आमना-सामना नहीं हुआ है। चूंकि कानून पुरुष बनाते हैं और उसमें महिलाओं को लेकर उनकी सोच काफी हद तक हावी रहती है, इसीलिए उत्तर प्रदेश के डीजीपी जैसे अधिकारी इन कानूनों को अपने तरीके से समझते और तर्क देते हैं। नतीजा यह होता है कि अपराधियों को सजा देने में देरी होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में बलात्कार की घटनाओं से निपटने में डीजीपी और कुछ हद तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और हाथरस के जिलाधिकारी का दोहरा दृष्टिकोण उजागर होता है। क्या पीड़िता भी उतनी ही मनुष्य है जितना कि पुरुष या फिर वह भी शक के दायरे में है कि उसने खुद ही तो अपने लिए बलात्कार नहीं मांग लिया?

उत्तर प्रदेश में बलात्कार के मामले हमेशा से ज्यादा रहे हैं। 2019 के एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, प्रत्येक दिन बलात्कार के 87 मामले सामने आए। 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के 3,78,236 मामले दर्ज किए गए, उनमें से 32, 033 बलात्कार के मामले थे। ध्यान रहे कि बलात्कार का मामला ऐसा है जो असली घटनाओं से कहीं कम रिपोर्ट किया जाता है क्योंकि इसके साथ सामाजिक कलंक जुड़ा हुआ है।

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2019 में कुल 3500 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। इनमें से एक तिहाई मामले अकेले दो राज्यों उत्तर प्रदेश और राजस्थान के थे। पश्चिमी यूपी के ज्यादातर इलाकों में पारंपरिक रूप से उच्च जाति के पुरुषों का भूमि और आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पर नियंत्रण है। इसके चलते इलाके में कमजोर तबके को दबाने और उन पर अन्याय करने की लालसा बढ़ी है। इस सबके परिणामस्वरूप गांव की गरीब और निचली जातियों की युवतियों को सामूहिक बलात्कार का सामना करना पड़ता है। यह कोई संयोग मात्र नहीं है कि हाथरस की घटना के तुरंत बाद दो दिनों के भीतर ही आसपास के जिलों बलरामपुर, आजमगढ़ और बुलंदशहर से नाबालिगों के साथ बलात्कार के मामले सामने आए।

हाथरस को जिले का जर्जा हाल ही में मिला है। 1997 में इसे अपने आप में एक हालिया इकाई है। यह 1997 में आगरा, अलीगढ़ और मथुरा जिलों की तहसीलों से अलग कर हाथरस को जिला बनाया गया था। इस जिले में महिला-पुरुष का औसत प्रति 1000 पुरुष पर 871 है, जो देश में संभवत: सबसे कम है।

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थॉमस कुह्न ने लिखा है, "राजनीतिक क्रांतियों का उद्देश्य राजनीतिक संस्थानों को कई तरीकों में बदलना है।" उन्होंने लिखा है, "उन तरीकों में जिन्हें इन संस्थानों ने खुद ही प्रतिबंधित किया होता है।" इस तरह उदारवादी वैधता एक समाज और उसकी अभिजात्य शक्ति का एक उत्पाद है। और, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, महिला सांसदों और विधायकों की प्रतिक्रियाओं या प्रतिक्रिया न होने से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश को कौन सभी बीमारी घुन की तरह चाट रही है जिसमें पुलिस की ज्यादतियां और न्यायिक व्यवस्था में पुरुष वर्चस्व को वैध मान लिया गया है।

देश की प्रतिष्ठित कानूनविद् स्वर्गीय न्यायमूर्ति लीला सेठ ने लिखा है, "सारे ऐतिहासिक बोझे को छोते हुए भी सही समानता को समझना और सराहना मुश्किल है। ...इसके कोई निश्चित मानदंड नहीं हैं। एक सदी पहले महिलाओं से बरताव के तौर-तरीके आज न्यायिक नहीं लग सकते।”(टॉकिंग ऑफ जस्टिस, पृष्ठ 24)

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ऐसे में आज हाथरस के उस गांव में प्रवेश करने या समलैंगिक समुदाय या अन्य संबंधों के अपराधीकरण के खिलाफ बने कानून से छुटकारा मिलने की रफ्तार तेज होने क संभावना नहीं दिखती और न ही वास्तविक समानता हासिल करने का काम हो सकता है। इसके साथ ही भारत में कहीं भी हर मिनट होने वाले बलात्कारों की संख्या भी कम नहीं होने वाली है। हां, इतना भर जरूर हो सकता है कि इस घटना से उन महिलाओं को कानून और समाज के बीच की दीवार में पैदा हुई एक दरार के माध्यम से एक न्यायिक अवसर जरूर दिखता है, जो अभी तक एक घुटन में जी रही थीं।

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