जिस सूबे में महिलाओं की सामाजिक दशा के सूचकांक देश में सबसे निराशाजनक हों, निरक्षरता दर औसत से ज्यादा हो, जहां 2020 में भी सामाजिक आचार-व्यवहार और औसत ब्याह जातीय आधारों पर तय होते हों, जहां माननीय प्रधानमंत्री जी के चुनाव क्षेत्र सहित तकरीबन सभी विश्वविद्यालयीन हॉस्टल वार्डन छात्राओं को परिसर से परीक्षा स्थल तक हरचंद पुरुषों की छाया से बचाने पर एकमत हों, और अंधेरा होते ही महिला हॉस्टल में अघोषित कर्फ्यू तारी हो जाए, जहां सरकार ने एंटी रोमियो स्क्वॉड का गठन किया हो, वहां एक दलित लड़की के ताकतवर सवर्णों द्वारा बलात्कार पर पुलिस विपक्षी नेताओं, मीडिया और पीड़िता के परिवार पर खुली शाब्दिक, शारीरिक हिंसा और उनके पक्ष में खड़े मीडिया पर सार्वजनिक डंडा भंजाई हो, तो अचंभा कैसा?
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हाथरस कांड आज के उत्तर प्रदेश के राज-समाज के मनोविज्ञान पर चौंकाने वाली रोशनी डालता है। यह जनपद सूबे का खाता-पीता इलाका है और हादसे के शिकार परिवार के पास भी अपनी कुछेक बीघा जमीन है। लेकिन यहां के सवर्णों का विधानसभा और संसद में भारी रसूख है। जिन सवर्ण युवकों ने दलित युवती से बलात्कार किया, उनके परिवारों के पास दलितों से करीब दस गुनी जमीन है। वारदात के बाद माफी मांगने की बजाय, इलाके के पूर्व विधायक का आरोपियों के बचाव में उतरना और उनकी जाति के युवकों की भीड़ की ‘देख लेंगे, काट देंगे’ नुमा डायलॉगबाजी से इस शक की काफी पुष्टि होती है कि आरोपियों के सूबाई सरकार, अफसरशाही तथा पुलिस से गहरे जाति आधारित संपर्क हैं।
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1997 में गठित जिले हाथरस के मौजूदा पांचों विधायक बीजेपी के हैं। और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हाथरस कांड पर मुख्यमंत्री या उनके अफसरों के खिलाफ किसी का बयान नहीं आया। सूबे की महिला राज्यपाल गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल या 2012 निर्भया मामले के बाद दिल्ली की सड़कों पर मनमोहन सरकार के इस्तीफे की मांग करने वाली अमेठी की सांसद तथा केंद्रीय महिला बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी भी लंबी खामोशी के बाद इस घटनाक्रम को विपक्ष की ओछी राजनीति से प्रेरित बताने से आगे नहीं बढ़ सकी हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारों और अपराधियों को धरपकड़ की बाबत खासी दबंग छवि के बाद भी सूबे में महिला विरोधी हिंसा में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखी जा रही है। यही नहीं, कमजोर वर्ग की महिलाओं का आरोप है कि पुलिस उनके उत्पीड़न के मामले या तो दर्ज ही नहीं करती या फिर उनको धमका कर दर्ज किया मामला वापिस लेने का दबाव बनाती है। इसलिए अधिकतर मामले तो सरकारी खातों में दिखते भी नहीं। फिर भी 2018 में लगभग पौने चार लाख महिला उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए जिनमें से 21.8 फीसदी बलात्कार की कोशिशों, और 7.3 फीसदी बलात्कार तथा 17.9 फीसदी बलपूर्वक अपहरण के थे। जनगणना तालिका दिखाती है कि हाथरस जिले में महिला-पुरुष के बीच का अनुपात (1000 पुरुषों पर सिर्फ 871 महिलाएं) चिंताजनक रूप से कम है। बढ़ती युवा आबादी तथा लड़कियों की कम होती तादाद समाज शास्त्रियों के अनुसार, यौन अपराधों के लिए आग में घी का काम करती है। यही नहीं, सरकारी अपराध प्रकोष्ठ के (2019 के) डेटा के हिसाब से देश में 2019 में दलित महिलाओं के साथ जो कुल 3500 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए उनमें से एक तिहाई सिर्फ दो राज्यों- उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान से थे।
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बलात्कार के अधिकतर मामलों में बलात्कारी पुलिस हो, छोटे या वजनी राजनेता, या किसी सवर्ण जाति की दबंग वाहिनी के सदस्य, और जिलाधिकारी जिन पर न्यायिक जांच की निगरानी की जिम्मेदारी है, यह सब आज उत्तर प्रदेश में लगातार उस मध्यकालीन परंपरा की माला जपते दिखते हैं जो औरतों को लेकर आश्चर्यजनक तौर से प्रतिगामी और धर्मभीरु बनती चली गई है। हो सकता है कि कोई डीएम या एसपी रैंक का बड़ा अफसर कुछ अधिक सफेदपोश, कुछ अंग्रेजी चेंप कर बात करने वाला हो, लेकिन जिस तरह हाथरस में उनकी प्रतिक्रिया हमने देखी-सुनी, उससे जाहिर होता था कि उनके भीतर भी वही हिंदुत्व के संस्कार जड़ जमा चुके हैं जिनकी तहत यूपी के हर थाना परिसर के पास भगवती जागरण होना और परिसर के भीतर लगी मूर्तियों के आगे अगरबत्ती जलाना या समय-समयपर केवल शक की बिना पर अल्पसंख्यकों, दलितों को अपराधी बता कर हवालात ले जाना सहज स्वीकृत है। इस बार प्रियंका गांधी तथा राहुल गांधी के दौरे के बीच नोएडा, हाथरस से जंतर-मंतर तक की टीवी फुटेज से यह भी साफ हुआ कि हमारी औसत महिला पुलिस ने भी पुरुषों जैसा ही निर्मम जन विरोधी तेवर धारणकर लिया है। और सूबे के अधिकतर पुलिसकर्मी महिलाओं की रक्षा के वास्ते नहीं, बल्कि पुरुषनीत समाज के आक्रामक आतंक के प्रतीक हैं।
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यूं हमारे समाज में महिलाओं के खिलाफ अनेक तरह की हिंसा कई स्रोतों से होती है। उन वारदातों की दर भी बहुत ऊंची है। 2016-17 के प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, दहेज उत्पीड़न (2280 से 2407), बलात्कार (2247), शारीरिक बदसलूकी (7667 से 9386), अपहरण (9535 से 11,577) तथा अन्य तरह के संगीन उत्पीड़न (10, 263 से 11,979) की तादाद और बढ़त की रफ्तार छेड़छाड़ के केसों की तादाद तथा बढ़त (582 से 609) से कहीं अधिक है, जिनकी घटनास्थली पारिवारिक घर थे। मनोवैज्ञानिकों, डॉक्टरों तथा महिला हित से जुड़ी गैर-सरकारी संस्थाओं- सबका कहना है कि सड़क नहीं बल्कि अपने ही घर की चारदीवारी के भीतर परिवारजनों के हाथों बरपा की जाने वाली हिंसा हमारी महिलाओं की शारीरिक तथा मानसिक असुरक्षा और टूटन का सबसे बड़ा स्रोत है। कोविड के बाद जब परिवार के परिवार बाड़े में बंद जानवरों की तरह छटपटा रहे हैं, समाज में बढ़ रहे गहरे अवसाद, नर्वस ब्रेकडाउन, आत्महत्या के मामले तालाबंदी खुलने पर मनोवैज्ञानिक रोगियों की तादाद में और भारी उछाल होगी। यह खतरनाक है। हमारे पुरुषनीत राज-समाज से (जिसमें पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के सदस्य और जनप्रतिनिधि सभी शामिल हैं) परंपरा के नाम पर सांस्कृतिक स्वीकृति प्राप्त है। अत: उस माहौल में पले-बढ़े अधिकतर लड़के ही नहीं, लड़कियों तक को पुरुषों का गुस्से में या नशे में गाली-गलौज करना और कभी-कभार हाथ छोड़ना पौरुष का प्रतीक, उसे चुपचाप सहलेना ही पारंपरिक नारीत्व माना जा रहा है। बलिया के एक विधायक तो इन दिनों परिवारों द्वारा बलात्कार निरोध के लिए लड़कियों को ‘सही संस्कार’ देने के पैरोकार बने हुए हैं। यानी जब तक उनके साथ मारपीट लगभग जानलेवा न हो, परिवारजन सभी लड़कियों को चुपचाप स्थिति से तालमेल बिठाने की नेक सलाह दें।
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घटना भले ही गांव में घटी हो, पर औरतों का अनुभव गवाह है कि गांवों से उपजी यह कबीलाई सोच हर पड़ोसी को अंकल-आंटी या भाई साहब-भाभी जी कहने वाले महानगरीय मध्यवर्ग के मन में भी गहराई से पैठा हुआ है। कबीले में औरत इज्जत के लायक तभी बनती है जब मां-बहिन-बेटी सरीखे किसी रिश्ते के दायरे में आती हो। जो इससे बाहर हैं, खासकर अवर्ण महिलाएं, वे एक अजनबी और शक की स्वाभाविक पात्र मानली जाती हैं। जो नेता भावुक होकर हमें मंच से माताओं- बहिनों के सशक्तीकरण के लिए काम करने का उपदेश दे रहे हैं, वे हमको बताएं कि जिन औरतों को भारतीय पुरुष पारिवारिक खांचों में नहीं रख सकते या रखना नहीं चाहते, वे उनके लिए क्या हों?
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परिवार बड़ों के लिए सामाजिकता की बुनियादी इकाई है तो बच्चों के लिए भी बड़ों से सामाजिकता का पाठ सीखने की पाठशाला। हमारे शहरी घरों में कई महिलाएं पढ़ी-लिखी कमासुत हों तब भी बचपन से ही घर के लोगों का बेटे के जन्म, फिर लड़कों को खान-पान से लेकर शिक्षा तक में लड़कियों से कहीं अधिक महत्व देने वाले घरों में पली हैं। अदालती जिरहों से लेकर कॉरपोरेट बोर्ड की बैठकों तथा संसदीय बहसों तक से साफ है कि काफी ऊंचे पदों पर आसीन पुरुष भी अपनी जमात का वर्चस्व और मानसिक- शारीरिक क्रम में महिला को कमतर मानने की मानसिकता से पीड़ित हैं। इस तर्क की तहत ताकतवर के हाथ कमतर जीव का यदाकदा पिटना और अपमानित किया जाना सामान्य सामाजिक व्यवहार है। उम्मीद है अब तक देश के नेतृत्व को न सही, पर इस लेख के पाठकों को कुछ-कुछ समझ आने लगा होगा, कि भारत में आपराधिक उत्पीड़न का सवाल कोई ऐसी सरल सचाई नहीं जिसका कोई इकतरफा डंडा मार हल हो।
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