अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से एक दिन पहले बंगाल सियासत के सुपर संडे का गवाह बना। साथ ही गवाह बना इस बात का कैसे सड़क पर आंदोलन करने वाली एक महिला ने राज्य की सियासत को प्रधानमंत्री बनाम मुख्यमंत्री का मुकाबला बना दिया। मैं कोई राजनीतिक विश्लेषक नहीं हूं और राजनीति को लेकर मेरी समझ बहुत ही सीमित है। लेकिन एक कम्यूनिकेशन प्रोफेशनल और स्टोरीटेलर के तौर पर संदेश और संदेशवाहक का दंगल देखना काफी रोचक रहा।
चलिए पहले बात करते हैं संदेशों की। प्रधानमंत्री सुपर संडे की रैली में एक संदेश देना बुरी तरह भूल गए कि आखिर पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था को कैसे सुधारा जाएगा। हां उन्होंने राज्य के हालात, जो उनके मुताबिक बहुत ही बदतर हैं, उनका जिक्र जरूर किया, लेकिन इसका विकल्प क्या है, यह बताना वे भूल गए।
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इसके बरअक्स मुख्यमंत्री ने लगातार बढ़ती तेल कीमतें, रसोई गैस के बढ़ते दाम और इन सबको काबू करने में प्रधानमंत्री की नाकामी जैसे आज के ज्वलंत मुद्दों को सामने रखा। वह सड़क की राजनीतिक करने में माहिर हैं, इसलिए उन्होंने उंगली वहीं रखी जहां मध्यवर्गीय परिवार को तकलीफें हो रही हैं।
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री कुछ थके हुए से लगे, उनमें पहले जैसी ऊर्जा नहीं दिखी और जबरन वसूली और सिंडिकेट चलाने जैसे पुराने आरोपों को ही दोहराते रहे। वे न सिर्फ राज्य को उबारने का कोई विकल्प देने में नाकाम रहे बल्कि यह भी नहीं बता पाए कि आखिर बंगाल में अगर सत्ता परिवर्तन होता है तो कमान किसके हाथ होगी। बस इतना जरूर किया कि वे मंच पर उन लोगों की परेड कराने में कामयाब रहे जिन्हें वे पहले ही अपनी पार्टी में शामिल कराने के लिए रिझा चुके थे। अभी कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री इन्हीं लोगों वसूली भाई कहते नहीं थकते थे लेकिन आज इन्हीं में उन्हें सुर्खाब के पर लगे हुए दिख रहे हैं। तेल की कीमतों का भूलकर भी प्रधानमंत्री ने नाम नहीं लिया।
लेकिन सिलिगुड़ी में तस्वीर अलग थी। मुख्यमंत्री तेज कदमों से चलते हुए जनसागर के सामने थीं। उनमें ऊर्जा साफ नजर आ रही थी। रैली में रसोई गैस का खूब बड़ा सा कटआउट लगाया गया था जो रैली में आए लोगों के साथ ही कैमरों के भी आकर्षण का केंद्र बना रहा, जिसे बढ़ते दामों के प्रतीक के तौर पर पेश किया गया था।
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यूं तो ब्रिगेड ग्राउंड इतना विशाल है कि इसमें 3 लाख लोग आराम से आ सकते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री की रैली में भीड़ छितरी हुई दिखी और वर्षों राजनीतिक रैलियों में भीड़ का अनुमान लगाने वाले लोगों का कहना है कि इसमें अधिकतम डेढ़ लाख लोग रहे होंगे। वैसे कितने लोग आए थे, इसकी पुष्टि तो पुलिस ही कर सकती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह रही कि मंच से जो नारे लगाए जा रहे थे, रैली में मौजूद लोग उनका साथ नहीं दे रहे थे। काफी हद तक वे प्रतिक्रियाविहीन नजर आ रहे थे।
टीवी स्क्रीन की बात करें तो, जो मोटे तौर पर प्रधानमंत्री की रैली की तस्वीरों से 100 फीसदी भरी होनी चाहिए थी, लेकिन वह आधी-आधी पीएम और मुख्यमंत्री की रैली की तस्वीरें दिखा रही थी। लाल रंग का रसोई गैस सिलंडर का कटआउट बार-बार स्क्रीन पर दिख रहा था। वैसे भी लाल रंग ऐसा होता है जो अपनी तरफ आकर्षित करता है। ऐन उस वक्त रैली करना जब पीएम भी रैली कर रहे हों, यह एक शानदार राजनीतिक रणनीति नजर आई और प्रधानमंत्री की रैली का स्क्रीन पर कब्जा आधा हो गया।
अब संदेशवाहकों की बात। प्रधानमंत्री की टीम में शामिल संदेशवाहक फ्लॉप ही दिखे। वैसे शो स्टॉपर के तौर पर मिथुन चक्रवर्ती को पेश किया गया था। प्रधानमंत्री की टीम को ध्यान रखना चाहिए था कि कोरोना महामारी के दौर में लोगों की फिल्म देखने की रुचि में जबरदस्त बदलाव आया है। यहां तक कि नंबर एक स्टार शाहरुख खान और सलमान खान भी इस दौर में पंकज त्रिपाठी और मनोज वाजपेयी के सामने फीके पड़ गए हैं। ऐसे में एक बूढ़े फिल्म स्टार को पेश करना जो अपनी चमक बहुत पहले खो चुक है, किसी काम नहीं आने वाला।
इतना ही नहीं पुराने दौर की ऐसी फिल्मों के डायलॉग दोहराना जिसे आज की पीढ़ी ने देखा-सुना तक नहीं है, क्या आकर्षण पैदा कर सकता है। इससे भी ज्यादा तो वह नया नारा था जो इतना भद्दा था कि देखते-देखते सोशल मीडिया पर उसके मीम और चुटकुले नजर आने लगे।
बहरला सियासत के इस सुपर संडे के मैटिनी शो को मेरी समझ से महिला मुख्यमंत्री ने एक छोटे राज्य के सीएम बनाम हैवीवेट पीएम बना दिया। मुझे कतई अनुमान नहीं है कि नतीजा क्या होगा, लेकिन पहले सेट का पहला गेम अगर लॉन टेनिस के स्कोर के हिसाब से देखें तो 40-0 ममता बनर्जी के पक्ष में है।
(लेख कोलकाता स्थित एक कम्यूनिकेशन एक्सपर्ट हैं। इस लेख में विचार उनके निजी हैं)
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