क्रांतियों का इतिहास है कि क्रांतिकारी परंपरागत राहों पर नहीं चलते बल्कि जहां वे चलते हैं, वहां खुद ब खुद राहें बन जाती हैं। 14 जून 1928 में जन्म लेने वाले अर्जेंटीनियाई क्रांतिकारी, डॉक्टर, लेखक, सामरिक सिद्धांतकार, कूटनीतिज्ञ और विलक्षण गुरिल्ला नेता अर्नैस्तो चे ग्वेरा क्रांति के ऐसे जीवंत हस्ताक्षर थे-जहां चले राहें बनतीं गईं। भारतीय उपमहाद्वीप में जो मुकाम शहीद भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद को हासिल है, ठीक वैसा ही क्यूबा में चे ग्वेरा को। वहां क्रांति का दूसरा नाम ग्वेरा हैं। वह पेशे से डॉक्टर थे और अपनी चिकित्सीय शिक्षा तथा प्रशिक्षण के दौरान पूरे लातिनी अमेरिका में घूमे।
महाद्वीप में व्याप्त आर्थिक विषमताओं और घोर गरीबी ने उन्हें भीतर से झकझोर दिया। तभी उनके भीतर के क्रांतिकारी ने जन्म और आकार लिया। चे ग्वेरा पूरी तरह मार्क्सवादी हो गए और उसी दर्शन ने उनकी इस सोच को गढ़ा और पुख्ता किया कि एकाधिकार पूंजीवाद, नव उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद आर्थिक विषमता और गरीबी के मूलाधार हैं। सशस्त्र क्रांति के बगैर इनसे मुक्ति हरगिज संभव नहीं। डॉक्टरी की आरामदेह नौकरी छोड़ कर उन्होंने गुरिल्ला बाना पहन लिया और जंगलों को अपना घर बना लिया। पचास से साठ के दशक में उन्होंने अमेरिका को ऐसी चुनौती दी जो बेमिसाल है। इतिहास ने फिर किसी को महाशक्ति से लोकहित में टकराने का ऐसा मौका नहीं दिया।
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1955 में ग्वेरा उम्र के 27 वें वसंत में थे जब उनकी मुलाकात महान क्रांतिकारियों की अव्वल श्रेणी में आने वाले फिदेल कास्त्रो से हुई। दोनों के हाथ मिले, दिल और दिमाग भी मिले। समूचे क्यूबा ने चे को कास्त्रो की मानिंद हाथों-हाथ लिया और एक सच्चे-सशक्त क्रांतिकारी के बतौर उन्हें मान्यता दी। 31 साल की उम्र में ग्वेरा क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष बने और उसके बाद उद्योग मंत्री। 1964 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में क्यूबा का प्रतिनिधित्व किया था और तब दुनिया भर के नेता इस 36 वर्षीय क्रांतिकारी के विचार सुनने को बेतहाशा बेताब थे।
भगत सिंह से उनकी समानता इसलिए भी जायज है कि दोनों वैचारिक क्रांतिकारी थे। चे ग्वेरा की अप्रीतम जनप्रियता का अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि दुनिया भर के करोड़ों लोगों के घरों में उनकी तस्वीर क्रांति के प्रतीक पुरुष के तौर पर लगी हुई है। क्यूबा के तो एक-एक घर में। ठेठ मार्क्सवादी चे का देवत्व में कतई कोई यकीन नहीं था लेकिन वहां उन्हें आज भी देवता की तरह पूजा जाता है। चंडीगढ़-दिल्ली-मुंबई से लेकर सुदूर यूरोपियन देशों तक सन 2020 के कोरोना काल में युवाओं और उनके आगे की पीढ़ी के लोगों को चे ग्वेरा की तस्वीर वाली टीशर्ट पहने हुए बखूबी देखा जा सकता है। दुनिया के लगभग हर देश के प्रत्येक शहर की किसी न किसी दुकान में 'ग्वेरा छाप' टीशर्ट अथवा कैप जरूर मिलेंगीं।
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यह पूंजीवाद का अपना कोई खेल हो सकता है जो (इस प्रसंग में) साठ के दशक से चला आ रहा है। लेकिन यह एक महान क्रांतिकारी व्यक्तित्व का जानदार-जोरदार संक्रमण भी है। गोया अवाम उन्हें सीने से लगाकर रखता है और कितने ही लोग एहतराम करते हुए ग्वेरा को सिर पर सजाते हैं/जगह देते हैं! वह सिर्फ टी-शर्ट और कैप पर ही नहीं बल्कि कॉफी मग, बैनर, पोस्टर, कॉलेज बैग, बॉक्सर और शॉर्ट्स पर भी मिलेंगे। आखिर उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद को ऐसी धमाकेदार चुनौती दी थी जिसने उसकी नींव हिला दी। ग्वेरा ने साम्राज्यवाद को ऐसे सबक दिए कि शताब्दियों तक उसे याद रहने वाले हैं और फिलवक्त तो हैं ही। उन्होंने महज 100 गुरिल्ला लड़ाकों के साथ मिलकर महाशक्ति के दांत खट्टे किए थे।
यह जानकारी आमफहम नहीं है कि महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा ने क्यूबा सरकार में रहते हुए भारत यात्रा की थी। बीबीसी की एक रिपोर्ट में इसका पुख्ता विवरण मिलता है। बीबीसी के मुताबिक चे ने भारत यात्रा के बाद 1959 में बकायदा 'भारत रिपोर्ट' लिखी और उसे फिदेल कास्त्रो को सौंपा। इस रिपोर्ट में उन्होंने लिखा था, "काहिरा से हमने भारत के लिए सीधी उड़ान भरी। 39 करोड़ आबादी और 30 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल। हमारी इस यात्रा में सभी उच्च स्तरीय राजनीतिज्ञों से मुलाकातें शामिल थीं। नेहरू ने न सिर्फ दादा की आत्मीयता के साथ हमारा स्वागत किया बल्कि क्यूबा की जनता के समर्पण और उसके संघर्ष में भी अपनी पूरी रुचि दिखाई। हमें नेहरू ने बेशकीमती मशवरे दिए और हमारे उद्देश्य की पूर्ति में बिना शर्त अपनी चिंता का प्रदर्शन भी किया। भारत यात्रा में हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं। सबसे महत्वपूर्ण बात हमने यह जाने की एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर होता है और इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थानों का निर्माण बहुत जरूरी है-मुख्य रूप से दवाइयों, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान और कृषि के क्षेत्र में। जब हम भारत से लौट रहे थे तो स्कूली बच्चों ने हमें जिस नारे के साथ विदाई दी, उसका तर्जुमा कुछ इस तरह है-क्यूबा और भारत भाई-भाई। सचमुच, क्यूबा और भारत भाई-भाई हैं।"
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वरिष्ठ पत्रकार (दिवंगत) कुलदीप नैयर ने लिखा है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और चे ग्वेरा एक-दूसरे के प्रशंसक थे और कद्रदान भी। प्रखर वैज्ञानिक सोच भी उन्हें आपस में जोड़ती थी। जॉन एंडरसन की लिखी जीवनी को चे ग्वेरा की सबसे प्रमाणित जीवनी कहा जाता है। वह लिखते हैं, "वे क्यूबा और लातिनी अमेरिका ही नहीं दुनिया के कई देशों के लोगों के लिए बड़े प्रेरणा स्रोत हैं। मैंने चे की तस्वीर को पाकिस्तान में ट्रक-लारियों के पीछे देखा है। जापान में बच्चों के, युवाओं के स्नो बोर्ड पर देखा है। चे ने क्यूबा को सोवियत संघ के करीब ला खड़ा किया। क्यूबा उस रास्ते पर कई दशक से चल रहा है। चे ने ही ताकतवर अमेरिका के खिलाफ एक-दो नहीं कई वियतनाम खड़े किए। चे एक प्रतीक हैं व्यवस्था के खिलाफ युवाओं के गुस्से का, आदर्शै की लड़ाई का।"
37 साल की उम्र में चे ग्वेरा क्यूबा के सबसे ताकतवर युवा क्रांतिकारी थे और उन्होंने क्रांति का प्रसार अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में फैलाने की ठानी। कांगो में उन्होंने विद्रोहियों को गुरिल्ला लड़ाई की पूरी पद्धति सिखाई। फिर बोलीविया में बागियों को प्रशिक्षित किया। अमेरिकी खुफिया जासूस अथवा एजेंट शुरू से ही उनके पीछे थे। आखिरकार बोलीविया की फौज के जरिए उन्हें पकड़ लिया गया और मार डाला गया। 9 अक्टूबर 1967 के दिन हुई इस हत्या के दिन क्रांतिकारी चे ग्वेरा की उम्र 39 साल थी। उनकी जीवन प्रक्रिया ही उन्हें अमरत्व दे गई। प्रसंगवश, फिर कोई ऐसा मार्क्सवादी महानायक भी नहीं हुआ। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि जनप्रभाव के पैमाने पर ग्वेरा मार्क्स से भी आगे हैं! इसलिए भी कि मार्क्सवाद को जिस तरह उन्होंने आमूल-चूक बदलाव के लिए व्यवहारिक रूप में बखूबी लागू किया, यह काम बहुत लोगों से संभव नहीं हो पाया। पहले भी और चे ग्वेरा के बाद भी! दुनिया के किसी भी खित्ते में लफ्ज़ 'क्रांति' के साथ उनका नाम अपरिहार्य तौर पर वाबस्ता होगा ही होगा।
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