हमास के लड़ाकों द्वारा निर्दोष इजरायली नागरिकों की हत्या और उसके खिलाफ इजरायल का अंधाधुंध प्रतिशोध- दोनों अक्षम्य हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों के संघर्ष को लेकर जो रुख अख्तियार किया, वह यकीनन गलत है और इसका एक पहलू यह भी है कि यह कश्मीर, गिलगित और बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान के कब्जे के सवाल पर भारत के रुख को कमजोर करता है।
पाकिस्तान ने इस जमीन को खाली करने का कोई संकेत तो नहीं दिया है। उसने अप्रैल, 1948 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 47 को मानने से भी इनकार कर दिया है जिसके तहत उसे अपने सशस्त्र बलों और हथियारबंद लोगों को जम्मू-कश्मीर से बाहर निकलना था। यह भी गौर करने वाली बात है कि जम्मू-कश्मीर ने अक्टूबर, 1947 में भारत में शामिल होने के विलय-पत्र पर दस्तखत तक कर रखे थे।
अंग्रेजों ने भारत की आजादी के साथ-साथ मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए एक अलग मातृभूमि की मांग के आधार पर पाकिस्तान बनाया। यह काम संवैधानिक तरीके से सत्ता के हस्तांतरण से हुआ और इसके लिए ब्रिटिश संसद ने 1935 में इंडिया इंडिपेन्डेंस एक्ट पारित किया था।
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इस अधिनियम ने न तो भारत और न ही पाकिस्तान को इसके प्रावधानों को चुनने का अधिकार दिया, बल्कि इस अधिनियम के सभी प्रावधान उन्हें मानने पड़े। अंग्रेज अधिकारियों के साथ बातचीत में शामिल रहे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड लुईस माउंटबेटन द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव को स्वीकार किया। इस अधिनियम ने राजा-रजवाड़ों, नवाबों वगैरह द्वारा शासित रियासतों को विवेकाधिकार दिया कि वे चाहें तो भारत में शामिल हों- चाहें तो पाकिस्तान में या दोनों में से किसी में नहीं। इस स्थिति में जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने संकेत दिया कि उन्हें अपने फैसले पर विचार करने के लिए समय चाहिए। उन्होंने भारत और पाकिस्तान को स्टैंडस्टिल समझौते की पेशकश की जिस पर पाकिस्तान ने दस्तखत कर दिया।
हालांकि अक्तूबर, 1947 के शुरू में पाकिस्तान ने संधि का उल्लंघन कर दिया। उसके सशस्त्र घुसपैठियों ने जम्मू और कश्मीर में प्रवेश किया और इसके पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्रों के काफी बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। हमलावर तो राजधानी श्रीनगर पर कब्जे की फिराक में थे। ऐसे समय महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। भारत सरकार हस्तक्षेप करने के लिए सहमत हुई लेकिन केवल एक वैध संधि के आधार पर। इन स्थितियों में महाराजा ने विलय पत्र पर दस्तखत किया और जम्मू-कश्मीर भारत में शामिल हो गया।
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तो फिर, मोदी का इजरायल को बिना शर्त समर्थन कश्मीर, गिलगित और बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान के कब्जे पर भारत के रुख के साथ-साथ भारत के हितों के लिए हानिकारक क्यों है? इजरायल एक देश के तौर पर फिलिस्तीन की धरती पर उग आया है जो यूरोप, एशिया और अफ्रीका के ऊपर भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच स्थित है। 1917 में ओटोमन राजशाही से ऐतिहासिक शहर यरुशलम जो यहूदी धर्म और ईसाई धर्म का जन्मस्थान है, को जीत लेने के एक माह बाद उस समय की बड़ी औपनिवेशिक ताकत ब्रिटेन ने इस देश में यहूदियों के लिए एक मातृभूमि बनाने का प्रस्ताव रखा। 1922 में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व संस्करण ‘लीग ऑफ नेशंस’ ने औपचारिक रूप से ब्रिटेन के फिलिस्तीन पर अधिकार को मान्यता दे दी।
1930 के दशक में नाजी जर्मनी के अत्याचारों से आजिज आकर बड़ी संख्या में यहूदियों के फिलिस्तीन में आने और वहां की अलोकप्रिय ब्रिटिश सरकार की वजह से अरब बहुसंख्यकों वाले फिलिस्तीन में विद्रोह भड़क उठा। उसी दौरान जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर द्वारा यहूदियों के बर्बर नरसंहार ने यहूदियों के लिए हमदर्दी पैदा की और इस तरह विश्व जनमत फिलिस्तीन में एक यहूदी देश की स्थापना के पक्ष में आ गया। तब तक लीग ऑफ नेशंस की जगह संयुक्त राष्ट्र अस्तित्व में आ चुका था और 1947 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने फिलिस्तीन को दो स्वतंत्र देशों में बांटने के पक्ष में मतदान किया।
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अरबों ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया जबकि इजरायली इस मुद्दे पर विभाजित थे। कट्टर इजरायली इस बात से नाराज थे कि पूरा फिलिस्तीन यहूदियों को नहीं दिया गया। फिर भी, वे संयुक्त राष्ट्र महासभा के बहुमत के फैसले के साथ गए और इस तरह मई, 1948 में इजरायल के जन्म की घोषणा हो गई और यहूदियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा आवंटित इलाके से कहीं अधिक क्षेत्र पर जबरन कब्जा कर लिया। पड़ोसी अरब देशों ने फौरन इजरायल पर हमला कर दिया लेकिन गतिरोध बना रहा।
1940 के दशक के अंत और 1950 के दशक के शुरू में लगभग दस लाख फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से विस्थापित कर दिया गया और उनकी जगह अरब देशों से समान संख्या में यहूदियों ने ले ली। इस तरह फिलिस्तीन के केवल कुछ हिस्से ही फिलिस्तीनियों के पास रह गए- पश्चिमी तट, पूर्वी यरुशलम और गाजा पट्टी।
1965 में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) का गठन हुआ और यासिर अराफात के नेतृत्व में 1993 में इजरायली सरकार के साथ शांति समझौता हुआ। इसने फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण (पीएनए) को संघर्ष के अंतिम समाधान तक गाजा और वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों का प्रशासन करने के लिए अधिकृत कर दिया। 2012 में, पीएनए को संयुक्त राष्ट्र द्वारा गैर-सदस्य पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया जिसने इसे महासभा की बहस में भाग लेने में सक्षम बनाया।
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हमास का अपेक्षाकृत उदारवादी पीएनए के साथ मतभेद रहा और उसने लगातार इजरायल के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध किया है। जवाब में इजरायली सेना और अर्ध-सैन्य बलों ने निहत्थे फिलिस्तीनियों के साथ हिंसक व्यवहार किया। इसके अलावा, इसने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की इच्छाओं के मुताबिक दो-देश समाधान को तिरस्कारपूर्वक अस्वीकार कर दिया और आक्रामकता अपनाते हुए फिलिस्तीनी क्षेत्र पर बस्तियां बना लीं और अवैध रूप से उसका विस्तार करता चला गया।
जब 1948 में यूएनजीए ने दो देशों के लिए मतदान किया, तो भारत ने फिलिस्तीन के विभाजन का विरोध करते हुए सुझाव दिया कि वहां एक संघीय प्रकृति का देश बनना चाहिए जिसके भीतर दो स्वायत्त क्षेत्र हों। कह सकते हैं कि धर्मनिरपेक्ष भारत को धार्मिक आधार पर अलग देश बनाए जाने से चिढ़ थी क्योंकि ऐसे ही बने पाकिस्तान का उसका अनुभव कड़वा रहा था। इसके बाद 1949 में भी भारत ने इजरायल को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनाए जाने के खिलाफ मतदान इसलिए किया था कि इजरायल बल के प्रयोग से अस्तित्व में आया था। हालांकि अगले साल प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पूर्ण राजनयिक दर्जा दिए बिना इजरायल को मान्यता दे दी।
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इजरायल भारत के साथ बेहतर रिश्ते बनाने को लालायित रहा; लेकिन इजरायल के न्यायेतर आचरण ने भारत को असहज कर दिया। हालांकि अहम सहयोगी सोवियत संघ के विघटन के बाद प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने 1992 में नेहरू की सैद्धांतिक मान्यता को व्यवहार में बदल दिया। जवाब में इजरायल ने कश्मीर पर भारत के रुख का उत्साहपूर्वक समर्थन किया कि पाकिस्तान को जम्मू और कश्मीर का वह हिस्सा खाली कर देना चाहिए जो उसके पास है। फिर भी, 2003 में जब इजरायली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन ने भारत का दौरा किया, तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उनकी मुलाकात के बाद जारी किए गए संयुक्त बयान में नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार द्वारा अपनाए गए रुख को दोहराया नहीं गया। ऐसा माना जाता है कि इजरायल ने अपना रुख नरम कर लिया क्योंकि उसे लगा कि बीजेपी तेल अवीव के साथ गहरे ताल्लुकात को लेकर खासी चिंतित है।
हालांकि तब इजरायल ने इस बात से इनकार किया कि उसने कश्मीर पर अपनी नीति बदल दी है लेकिन ब्रिटिश खुफिया ने जानकारी दी कि इजरायल ने पाकिस्तान वायु सेना को एफ-16 लड़ाकू विमानों के लिए कल-पुर्जों की सप्लाई की। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2004-2014 के दौरान भारत सरकार ने तेल अवीव के साथ रचनात्मक संबंध बनाए रखा लेकिन सावधानी के साथ।
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इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के शासन के दौरान फिलिस्तीन के प्रति अपनाए गए आक्रामक विस्तारवादी रवैये की एक वजह अपने ऊपर लगे आपराधिक आरोपों से ध्यान भटकाना था। वैसे, इजरायल की इस विस्तारवादी रवैये की दुनिया भर में निंदा की गई। भारत के नजरिये से इजरायल के लगातार गैरकानूनी अतिक्रमणों को नरेंद्र मोदी द्वारा नजरअंदाज किया जाना अनैतिक है। यह जम्मू-कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर पाकिस्तान के जबरन और अवैध कब्जे पर भारत के तर्क को भी कमजोर करता है।
1973 में मिस्र के हमले से अवाक रह गए इजरायल ने उसके बाद अरब देशों के गठबंधन के खिलाफ युद्ध जीत लिया था। प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर को एक साल बाद इस्तीफा देकर अपनी सरकार की खुफिया विफलता की कीमत चुकानी पड़ी। नेतन्याहू के लिए तलवार पहले ही म्यान से निकल चुके हैं क्योंकि हमला शुरू करने से पहले उनके शासन को हमास के इरादों के बारे में पूरी जानकारी थी ही नहीं। उनके राजनीतिक विरोधियों की संख्या गोल्डा मेयर की तुलना में कहीं अधिक है। नेतन्याहू अब फिलिस्तीनी की जमीन पर धावा बोलकर उस पर कब्जा कर सकते हैं। लेकिन क्या वह बहुत समय तक पद पर बने रह सकेंगे?
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