विचार

शिक्षा-विज्ञान को नहीं मिला होता इंदिरा गांधी के समय प्रोत्साहन तो कई दशक पहले ही हो गया होता कट्टरपंथ का बोलबाला

आज श्रीमति इंदिरा गांधी की जयंती है। उनके शासन के समय को याद करते हुए यह जानना जरूरी है कि अगर उनके दौर में शिक्षा और विज्ञान आधारित विकास को प्रोत्साहन नहीं मिला होता तो देश न जाने कब का उस कट्टरपंथ का शिकार हो जाता, जिसकी धमक इन दिनों सुनाई देती है।

Getty Images
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नवंबर की 14 और 19 तारीखें खास हैं। मजबूत भारत की नींव रखने वाली दो शख्सियतों की जयंती इन पांच दिनों के अंतराल में पड़ती हैं। 14 नवंबर को प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की तो 19 नवंबर को इंदिरा गांधी की। ये मौका है इन हस्तियों के योगदान को याद करने का और निस्संदेह ऐसा करने वाले तमाम लोग होंगे। लेकिन इस संदर्भ में नेशनल हेरल्ड ग्रुप के प्रधान संपादक ज़फ़र आग़ा का लेख (बदली परिस्थितियों में कांग्रेस को नई सामाजिक दृष्टि की जरूरत; खास है। इस आलेख ने लगभग एक सदी से भारतीय जन-मानस में रचे-बसे नेहरू-गांधी परिवार को ताजा कर दिया है।

वैसे तो जवाहरलाल नेहरू की महात्मा गांधी से मुलाकात दिसंबर, 1916 में लखनऊ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठक में हुई लेकिन कहानी 7 दिसंबर, 1921 को तब शुरू हुई जब मोतीलाल नेहरू को प्रिंस ऑफ वेल्स (बाद में किंग एडवर्ड VIII) की इलाहाबाद यात्रा का विरोध करने पर नैनी जेल में मुकदमे का सामना करना पड़ा था। उस वक्त चार साल की इंदिरा अपने दादा के साथ कोर्ट रूम में मौजूद सारा नजारा देख रही थीं। यह सार्वजनिक जीवन में उनकी शायद पहली दीक्षा थी।

नेहरू-गांधी परिवार ने भारत को तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए हैं। ऐसा दूसरा उदाहरण दुनिया में कहीं नहीं मिलता है। इस परिवार ने राष्ट्र की सेवा में जो बलिदान दिया है, वह भी अतुलनीय है। इंदिरा गांधी और उनके बेटे राजीव गांधी- दोनों हत्यारों के हाथों शहीद हुए थे।

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शहरी माहौल में पले-बढ़े और आभिजात्य वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नेहरू ने एक आजाद मुल्क के तौर पर भारत के बेहतरीन इतिहास की राह दिखाई। उनके नेतृत्व में केन्द्र तथा राज्यों में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में पार्टी की सरकार बनी और करीब 17 साल तक पूरे देश में कांग्रेस का राज रहा। उनके तीन साल बाद 1967 में पश्चिम बंगाल में यूएफ और केरल में कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में आई।

एक लोकतांत्रिक व्यक्ति के रूप में नेहरू की ख्याति हमेशा उनके साथ रही। भारत की आजादी से सात साल पहले प्रकाशित आत्मकथा टुवर्ड फ्रीडम के अमेरिकी संस्करण की प्रस्तावना में रिचर्ड जे. वॉल्श ने लिखा: ‘नेहरू आज दुनिया के महान लोकतांत्रिक हैं। जनाकांक्षा से बनने वाली सरकार और वैयक्तिक निष्ठा के प्रति जितने दृढ़ नेहरू थे, उतने न चर्चिल, न रूजवेल्ट, न च्यांग काई-शेक भी नहीं। वह नाजीवाद और फासीवाद को खारिज करते हैं’।

नेहरू कम्युनिस्ट नहीं थे। वह इसकी वजह भी बताते हैं, 'मुख्यतः क्योंकि मैं साम्यवाद को एक पवित्र सिद्धांत के रूप में मानने की कम्युनिस्ट प्रवृत्ति का विरोध करता हूं। मुझे यह भी लगता है कि अत्यधिक हिंसा साम्यवादी तरीकों से जुड़ी हुई है।' भारत का लक्ष्य जैसा कि उन्होंने कहा, 'एक ऐसा संगठित लोकतांत्रिक देश बनना है जो लोकतांत्रिक राष्ट्रों वाली दुनिया से निकटता के साथ जुड़ा हो।' मोटे तौर पर यही नेहरू की राजनीतिक दृष्टि का सार है। 1949 में जब नेहरू पहली बार अमेरिका गए तो हॉलीवुड निर्देशकों और फिल्म सितारों में उनका बड़ा आकर्षण था और अमेरिका के बड़े कारोबारी भी उनसे प्रभावित थे लेकिन नेहरू ने अमेरिका की चकाचौंध और उसकी दौलत को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।

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डॉम मोरेस ने इंदिरा गांधी की जीवनी में एक दिलचस्प किस्से का जिक्र किया हैः 'नेहरू न्यूयॉर्क की यात्रा के दौरान वॉल स्ट्रीट में दोपहर के भोजन में सम्मानित अतिथि थे। वहां अमेरिका के सर्वाधिक अमीर हस्तियां मौजूद थीं। उनके मेजबान ने कहा, ‘जरा सोचिए श्रीमान प्रधानमंत्री, इस वक्त आप ऐसे लोगों के साथ भोजन कर रहे हैं जिनके पास 40 बिलियन डॉलर से भी अधिक की संपत्ति है’। ऐसे वक्त नेहरू के सहयोगियों के लिए उन्हें अपना नैपकिन नीचे फेंककर भोज छोड़कर निकलने से रोकना स्पष्टतः बड़ा मुश्किल काम था!' डॉम ने इंदिरा से इस कहानी का जिक्र किया और पूछा कि क्या वह वहां थीं और वहां ऐसा ही कुछ हुआ था तो इंदिरा मुस्कुराईं लेकिन सीधे-सीधे जवाब नहीं दिया। उन्होंने बस इतना कहा, 'अमेरिकियों ने मेरे पिता को खिन्न किया लेकिन वह उनकी ब्रिटिश शिक्षा के कारण था'। (डॉम मोरेस, इंदिरा गांधी, पृष्ठ 133-134)

इंदिरा गांधी की शहादत के बाद नॉर्मन कजिन्स ने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था, ‘इंडिया: कैरिंग ऑन दि नेहरू ट्रैडीशन्स’ । इसमें उन्होंने लिखा कि नेहरू के निधन के बाद घरेलू मोर्चे पर बड़ा शून्य आ गया और देश को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत थी जिसे लोग उम्मीद की नजर से देख सकें। जवाहरलाल नेहरू को महात्मा गांधी की विरासत मिली थी; नेहरू के बाद उसी निरंतरता को बरकरार रखने के लिए नेहरू नाम के साथ जुड़ी वही प्रतीक ताकत जरूरी थी और इंदिरा के पास यह प्रतीकवाद था। (दि क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर, 14 नवंबर, 1984)।

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कुछ इसी तरह के विचार वी.एस. नायपॉल ने दि डेली मेल में लिखे लेख में नेहरू और इंदिरा- दोनों की प्रशंसा करते हुए प्रतिध्वनित किए जिसे इंदिरा की मृत्यु के तीन दिन बाद 3 नवंबर, 1984 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने पुनः प्रकाशित किया। नोबेल पुरस्कार विजेता ने लिखा: इंदिरा ने भारत को स्थिरता दी; उनके बिना ऐसा नहीं हो पाता। देश बौद्धिक और औद्योगिक तौर पर विकसित हुआ है और लंबे समय से विवेक, विचारधारा और कट्टरपंथ के बीच एक संतुलन बना हुआ है। नायपॉल ने आगे लिखा, 'भारत खुशकिस्मत है कि उसके पास नेहरू परिवार रहा। नेहरू हालिया विश्व इतिहास में अद्वितीय थे: औपनिवेशिक विरोधी व्यक्ति, एक लोकनायक जिसे कट्टरता जरा भी नहीं सुहाती थी और जो तर्कशील थे। नेहरू विज्ञान, धार्मिक सहिष्णुता, कानून के शासन और मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्ध थे। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने भी इसी नजरिये को अपनाया।’

नायपॉल ने आपातकाल घोषित करने के इंदिरा के फैसले का बचाव किया। उन्होंने उसी लेख में लिखा कि इमरजेंसी के लिए इंदिरा को दोषी ठहरा देना बड़ा आसान है लेकिन सिक्के के एक ही पहलू को देखना सही नहीं। यह भी देखना चाहिए कि दूसरा पहलू क्या था। 1975 में कुछ विपक्षी दल चाहते थे कि भारत औद्योगीकरण से पहले के ग्रामीण जीवन में वापस पहुंच जाए। 1971 के चुनाव में एक रेगिस्तानी निर्वाचन क्षेत्र में एक उम्मीदवार ने गांवों में पाइप से पानी लाने का यह कहते हुए कड़ा विरोध किया था कि ऐसा करना गांधीवाद, भारतीयता के खिलाफ और महिलाओं की नैतिकता को नुकसान पहुंचाने वाला है। नायपॉल लिखते हैं कि तब तरह-तरह के पंथ थे और मैं उनके पक्ष में था, इसलिए कि इंदिरा के रहते शिक्षा और विज्ञान को बढ़ावा मिलते रहने की संभावना थी।

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इसी लेख के एक और हिस्से पर गौर कीजिएः 'नेहरुओं की उपलब्धि शानदार रही है। उनके सत्ता में रहते हुए भारत को औद्योगिक क्रांति मिली और उसके साथ बौद्धिक क्रांति भी आई। श्रीमती गांधी ने अपने पिता का अनुसरण करते हुए जिस तरह का स्थायित्व दिया, उसके लिए भारतीय जितना समझते हैं, देश उससे कहीं ज्यादा उनका आभारी है। तीन-चार पीढ़ियां फली-फूलीं तो यह उसी संतुलन की देन है।’

हार्वर्ड की तुलना में ‘हार्ड वर्क’ को ज्यादा अहम बताना, यह अजीबो-गरीब दावा करना कि गायके गोबर को जलाने से निकलने वाले धुएं से कोविड संक्रमण ठीक हो सकता है और पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के पक्ष में नारेबाजी करने पर लोगों को गिरफ्तार कर लेना क्या इस बात का प्रतीक नहीं है कि विचारधारा और कट्टरपंथ के बीच का जो संतुलन है, वह कट्टरपंथ की ओर झुक रहा है?

मुझे इंदिरा गांधी की दुखद हत्या के बाद इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में वी.एस. नायपॉल द्वारा लिखे गए पूरे पन्ने के उस लेख की याद आती है। उसमें नायपॉल ने तीन पीढ़ियों तक देश सेवा करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के करिश्मे की बात की और कहा किनेहरू-गांधी परिवार के आगे तो केनेडी परिवार भी फीका पड़ जाता है। उस लेख के बीच में इंदिरा की जलती चिता के साथ 12 साल की प्रियंका की तस्वीर छपी थी। लेखक जिस बात को कहना चाहते थे, वह पूरी तरह से स्पष्ट थी।

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