विचार

उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन समझदारी भरा कदम

हाल के उपचुनावों में बीजेपी ने जिस विपरीत लहर का सामना किया, यह उसके लिए अच्छी खबर नहीं है। यह लहर यूपी के मतदाताओं का रुख उस गठबंधन की ओर मोड़ सकता है, जो चुनाव में जीत हासिल कर सकती हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 2019 में सपा, बीएसपी और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ तो बीजेपी हार सकती है

अगर अगले लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस ने राज्य में सीटों पर समझौता कर लिया तो उत्तर प्रदेश (यूपी) के चुनावी अखाड़े में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को करारी हार का सामना करना पड़ सकता है।

उदाहरण के तौर पर, अगर यूपी के मतदाताओं ने 2014 की तरह ही अपने वोट डाले, तो बीजेपी गठबंधन की सीटों में काफी कमी आएगी और वर्तमान की 73 सीटों की जगह वह घटकर 24 सीटों तक सिमट जाएगी। गठबंधन की स्थिति में सपा को 26 सीटें, बीएसपी को 25 सीटें और कांग्रेस को 5 सीटें मिलेंगी। वर्तमान में बन रहे राजनीतिक समीकरणों को देखें तो इससे आने वाले चुनाव में, यूपी और देश में होने वाली राजनीतिक घटनाओं के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं।

गोरखपुर और फूलपुर में होने वाले उपचुनावों में जहां बसपा ने सपा को समर्थन देने का फैसला किया है। ऐसी संभावना है कि बीजेपी को अपने ही चुनावी गढ़ में कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, सपा के लिए यह अभी भी एक चुनौती भरा काम है।

1998 से बीजेपी गोरखपुर में कभी नहीं हारी है और अब यह सीट बीजेपी का गढ़ बन गई है। यहां के नेता योगी आदित्यनाथ अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। 2014 में सपा, बीएसपी और कांग्रेस के संयुक्त वोट बीजेपी के वोट से 90,662 कम थे।

इसी तरह फूलपुर, जो कभी कांग्रेस के शीर्ष नेता और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का चुनावी-क्षेत्र था, वहां 2014 में सपा, बीएसपी और कांग्रेस के संयुक्त वोट बीजेपी के वोट से 86,471 वोट कम थे। यहां से केशव प्रसाद मौर्य जीते थे और वे अब उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री हैं।

गोरखपुर में बीजेपी को हराने के लिए विपक्षी उम्मीदवार को अपने पक्ष में 7 फीसदी अधिक वोट हासिल करने की जरूरत होगी। वहीं फूलपुर में भी विपक्षी उम्मीदवार को जीत हासिल करने के लिए इतने ही ज्यादा वोटों की जरूरत होगी।

पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी के वोटों की संख्या 2014 के आम चुनावों से 2.96 फीसदी कम हो गई, जो जाहिर तौर पर उसे हराने के लिए अपर्याप्त है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि उपचुनाव के आंकड़े क्या आते हैं। इससे यह पता चलेगा कि मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी अपनी पकड़ बरकरार रखती है या समर्थन खोती है।

कम वोटों के अंतर से जीत बीजेपी के लिए चिंता का विषय रहेगा। एक भी सीट पर हार बीजेपी के लिए दुभाग्यपूर्ण हो सकता है।

आगामी लोकसभा चुनावों में अगर 2014 के मतों के आकड़े नहीं बदलते हैं, तो वास्तव में बीजेपी के लिए इतनी सीटें बरकरार रखना बेहद मुश्किल होगा। नरेंद्र मोदी वाराणसी में अपनी सीट बरकरार रख पाएंगे। इसी तरह लखनऊ में राजनाथ सिंह, मथुरा में हेमा मालिनी, पीलीभीत में मेनका गांधी, कानपुर में मुरली मनोहर जोशी और देवरिया में कलराज मिश्रा भी अपनी सीट बरकरार रख लेंगे। लेकिन, झांसी में उमा भारती, सुल्तानपुर में संजय गांधी के पुत्र वरूण गांधी समेत कई मजबूत उम्मीदवार अपनी सीटें खो सकते हैं। ऐसी स्थिति में जगदम्बिका पाल, जो पिछले आम चुनावों से पहले कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए थे, उन्हें भी डुमरियागंज में हार का सामना करना पड़ सकता है।

लेकिन, कांग्रेस के पीएल पुनिया, जो गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के लिए सपा-बीएसपी के गठबंधन से नाखुश हैं, वे बाराबंकी में पार्टी के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं, बशर्ते कि उन्हें वहां से खड़ा किया जाए।

2009 के मुकाबले बीजेपी ने 2014 में उत्तर प्रदेश में असाधारण चुनावी जीत हासिल की थी।2009 में बीजेपी ने महज 17.5 फीसदी वोट प्राप्त किए थे (जो कांग्रेस के 18.25 फीसदी वोटों से भी कम थे)।

2014 में बीजेपी ने अप्रत्याशित रूप से 42.63 प्रतिशत मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया। कहा जाए तो पहले से ढाई गुना ज्यादा वोट प्राप्त किए।

उन्होंने राज्य में हुए सांप्रदायिक दंगों से संबंधित मुद्दों को उठाते हुए हिंदु वोटों को संगठित कर यह जीत हासिल की। इसके अलावा बीजेपी ने बीएसपी और सपा द्वारा नजरअंदाज किए गए या उनसे नाखुश अनूसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को चालाकी से अपनी ओर आकर्षित किया। इसके बावजूद, उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में एक अस्थिरता नजर आती है, जो किसी भी पार्टी के लिए चिंताजनक है। दूसरे ढंग से देखें तो 2014 और 2017 में राज्य के मतदाताओं ने बीजेपी के प्रति जो विश्वास दिखाया था, उससे यह नहीं माना जा सकता कि आगे की स्थिति भी यही रहेगी।

गोरखपुर और फूलपुर की सीटोंं पर सपा और बीएसपी अपने पुराने द्वेष को ताक पर रख कर एकजुट हो गए हैं, लेकिन बीजेपी अपने अपार धन-बल, सरकारी मशीनरी और राज्य में काम कर रहे पार्टी कार्यकर्ताओं के बल पर इन सीटों पर अपनी पकड़ बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी।

यह प्रतिष्ठा और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण लड़ाई है। हिंदी भाषी क्षेत्र, विशेष रूप से यूपी में बीजेपी के जबरदस्त प्रदर्शन के चलते 2014 में वह केन्द्र में सरकार बना पाई। यह अप्रत्याशित था और उसे दोहराना अब लगभग असंभव सा लगता है। हाल में हुए मध्य प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों से यह दिखता है कि मतदाता बीजेपी से अलग होने लगे हैं। तो सवाल यह उठता है कि सपा, बीएसपी और कांग्रेस का गठबंधन होता है तो बीजेपी के लिए यह कितना नुकसानदायक साबित होगा?

कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी दो चुनाव एक समान नहीं होते हैं। आगामी चुनाव में मत विभाजन के आंकड़े स्पष्ट रूप से 2014 के चुनाव के समान नहीं होंगे।

मतों का घटना और बढ़ना अनेक कारणों पर निर्भर करेगा। कई अनिश्चितताएं और अप्रत्याशित घटनाएं छोटे-बड़े स्तरों पर पैदा होती हैं। ऐसी बातों का अनुमान तब तक नहीं लगाया जा सकता है जब तक ऐसी घटनाएं घट नहीं जातीं।

बीजेपी के सबसे बड़े गढ़ गुजरात के 2017 के विधानसभा चुनाव और 2018 के स्थानीय निकाय चुनावों ने यह दिखा दिया है कि जहां शहरी मतदाताओं को बीजेपी पर अभी भी भरोसा है, वहीं ग्रामीण मतदाता इनसे व्यथित नजर आ रहे हैं।

यह अाश्चर्य की बात नहीं होगी कि बीजेपी अपने किए गए वादों को पूरा न कर पाने की स्थिति में कट्टर हिदुत्व का सहारा लेगी। इस संदर्भ में अयोध्या मसला दोबारा उठ सकता है। हो सकता है कि पार्टी उन वर्गों को डराने के लिए साम्प्रदायिक भेदभाव का सहारा ले, जो आम तौर पर उन्हें वोट नहीं देते हैं।

इसे भी नकारा नहीं जा सकता कि मुलायम सिंह यादव की ओर हाथ बढ़ाकर बीजेपी ओबीसी और सपा के वोटों को विभाजित करने का प्रयास करेगी।

2014 में सपा ने 5, कांग्रेस ने 2 और बीएसपी ने कोई सीट नहीं जीती। अगर समाजवादी पार्टी, बीजेपी के प्रलोभन और दांव-पेच के खिलाफ एकजुटता बरतती है, और बीएसपी इस बात को समझ पाती है कि आगामी चुनाव में उसकी करारी हार से उसका राजनीतिक अन्त निश्चित है, तो ऐसी स्थिति में गठबंधन ही सिर्फ तार्किक और समझदारी भरा कदम होगा।

कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों के नतीजे उत्तर प्रदेश के आगामी आम चुनाव के नतीजों को निश्चित ही प्रभावित करेंगे।

हाल के उपचुनावों में बीजेपी ने जिस विपरीत लहर का सामना किया, यह उसके लिए अच्छी खबर नहीं है। यह लहर यूपी के मतदाताओं का रुख उस गठबंधन की ओर मोड़ सकता है, जो उनकी नजर में चुनाव में जीत हासिल कर सकती हैं, न कि मोदी और योगी की जोड़ी की ओर।

आंकड़े निश्चित रूप से सपा, बीएसपी और कांग्रेस महागठबंधन के साथ हैं, जिन्होंने 2014 के चुनावों में संयुक्त रूप से 49.83 फीसदी वोट हासिल किए थे।

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