अगर आपने भारत में सार्वजनिक चर्चा पर गौर किया हो, जैसा कि मैं पिछले कुछ सालों से कर रहा हूं, तो शायद आप सरकारी सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों के अजीबो-गरीब बयान सुन-सनकर अभ्यस्त हो चुके होंगे। जैसे तल्ख शेरपा का यह रहस्योद्घाटन कि ‘भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है’, या दावोस में एक मंत्री का दावा कि उच्च बेरोजगारी बढ़ते स्वरोजगार का संकेत है, या फिर ‘सुप्रीम नेता’ का यह दावा कि चीन ने भारत की एक इंच जमीन पर भी कब्जा नहीं किया है, या एनडीए के मानव संसाधन मंत्री का डार्विन के सिद्धांत को खारिज करते हुए यह कहना कि उनके किसी भी पूर्वज ने कभी किसी बंदर को होमो सेपियन्स में बदलते नहीं देखा। जाहिर है, हम जानवरों की तरह हैं जिन्हें ज्ञान के ऐसे मोतियों के लिए आभारी होना चाहिए। लेकिन हमारी अपनी फासीवादी प्रयोगशाला में तैयार किए गए दो हालिया मोतियों ने तो दीपावली के बाद मेरी दमा की सांसें भी छीन ली हैं।
सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से बहस करते हुए अटॉर्नी जनरल ने दो हैरतअंगेज दावे किए: एक, कि मतदाता को यह जानने का कोई अधिकार नहीं है कि उसका वोट कैसे दर्ज किया गया या गिना गया; और दो, कि जनता को यह जानने का कोई अधिकार नहीं है कि किस राजनीतिक दल को किसने कितना चंदा दिया। पहले बयान का उद्देश्य ईवीएम में डाले गए वोटों के अधिक व्यापक वीवीपैट सत्यापन की एक वाजिब मांग का मुकाबला करना था, दूसरे का उद्देश्य चुनावी बांड को मिल रही चुनौती की धार कुंद करना था जो व्यावहारिक तौर पर बीजेपी का निजी एटीएम बन गया है।
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हमें कभी संदेह नहीं रहा कि ये बयान बीजेपी के निजी विचारों की भरोसेमंद अभिव्यक्ति हैं लेकिन इसे ऐलानिया, और वह भी कोर्ट में कहने की बेशर्मी हैरान करने वाली है। यह अहंकार और हेकड़ी से परे है। यह जनता, संविधान और देश की सर्वोच्च अदालत के प्रति भी घोर अवमानना को दिखाता है। हकीकत यह है कि सरकार खुलेआम संकेत दे रही है: हम अपना रास्ता अपनाएंगे; लोग क्या सोचते हैं या अदालत क्या फैसला करती है, इसकी हमें परवाह नहीं; हमारे पास संसद में बहुमत है और हम किसी भी अध्यादेश या विधेयक को पारित कर सकते हैं। आप इसे अतिविश्वास कहें या अहंकार, आप गलत हैं। क्योंकि पिछली घटनाओं ने साबित किया है कि वे सही हैं। सत्तारूढ़ दल द्वारा हमारे सामाजिक, संवैधानिक, कानूनी और संस्थागत परिदृश्य को बड़े पैमाने पर बर्बाद किए जाने में न्यायपालिका कभी बाधा नहीं रही है। यह बात कोई भी समझ सकता है कि सरकार की यह धृष्टता काफी हद तक अदालत के अनुकूल व्यवहार के कारण है।
सुप्रीम कोर्ट निराश करने में कभी असफल नहीं होता है। हाल के दो फैसलों में उसने फिर ऐसा ही किया है: समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की याचिका पर और मनीष सिसोदिया (दिल्ली के उपमुख्यमंत्री) की जमानत की अर्जी पर। इन याचिकाओं का सरकार ने पुरजोर विरोध किया था। दोनों फैसले हैरान करने वाले रहे। न केवल निर्णयों में अंतर्निहित विरोधाभासों के कारण बल्कि इसलिए भी कि सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणियों में, न्यायालय याचिकाकर्ताओं के पक्ष में दिखाई दे रहा था।
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समलैंगिक विवाह मामले में आदेश प्रतिगामी है और मध्ययुगीन मानसिकता से घिरा हुआ है जो तेजी से बदलती सामाजिक व्यवस्था के साथ अदालत के अलगाव को भी उजागर करता है। समान लिंग विवाह को वैध बनाने से इनकार करके या समान लिंग वाले जोड़ों को गोद लेने की अनुमति न देकर या उन्हें एक जोड़े के रूप में नागरिक अधिकार नहीं देकर अदालत ने बेशक बीजेपी/आरएसएस के दिल को ठंडक पहुंचाई हो, लेकिन इसने रूढ़िवादी ताकतों को भी बढ़ावा दिया है।
यह निर्देश देकर कि सरकार एलजीबीटी और समलैंगिक समुदायों को अधिक अधिकार देने के लिए मामले की जांच के लिए कैबिनेट सचिव के अधीन एक समिति का गठन करेगी, अदालत केवल अपना भोलापन दिखा रही है या वह जानबूझकर खुद को धोखा दे रही है: क्या वह वास्तव में एक ऐसे अधिकारी से जो सेवा विस्तार पर चल रहा हो और मौजूदा सरकार द्वारा इन समुदायों के मामले में लिए गए इकतरफा और रूढ़िवादी फैसलों में शरीक रहा हो, से यह उम्मीद करती है कि वह समाज के इस वर्ग के अधिकारों को विस्तार देने का फैसला करेगा जिसका यह सरकार मुखर विरोध करती है?
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मनीष सिसोदिया मामले में तो तर्क को समझना और भी मुश्किल है। फैसले से पहले दलीलों के दौरान अदालत ने आरोपियों के खिलाफ किसी भी सबूत की कमी के लिए अभियोजन पक्ष को बार-बार फटकार लगाई। कहा तो यहां तक जा रहा था कि सिसोदिया को किसी भी रिश्वत से जोड़ने के लिए पैसे के किसी लेन-देन को कोई सिरा नहीं था और ईडी का मामला सुनवाई के दौरान दो मिनट में ही खत्म हो जाएगा। फिर भी, अदालत ने जमानत देने से इनकार कर उन्हें वापस जेल भेज दिया। इस तरह का ढुलमुल रवैया सरकार को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेगा कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस यकीन के साथ महीनों के लिए जेल भेजे कि अदालत से उन्हें तो जमानत मिलने से रही।
चुनावी बांड के मामले में सुनवाई में ही पांच साल गुजर गए। इसमें देरी से बीजेपी ने लगभग 5,500 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लिए जो अन्य सभी दलों द्वारा प्राप्त कुल राशि से भी ज्यादा है। अदालत ने अब जाकर सुनवाई पूरी की है और फैसला सुरक्षित रखे उसे दो सप्ताह से ज्यादा समय हो गया है। इससे बीजेपी को कुछ और दिन तक चंदा बटोरते रहने और 2024 के चुनावों के लिए जरूरी पैसे जुटाने का भी मौका मिल गया। अदालत अब जो भी फैसला सुनाए, उससे व्यावहारिक रूप से आगामी आम चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला और उसके बाद क्या होगा, कौन जानता है।
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महाराष्ट्र में शिवसेना के दो गुटों के बीच अयोग्यता मामले में स्पीकर द्वारा त्वरित निर्णय के लिए सुप्रीम कोर्ट के बार-बार दिए गए आदेशों की अवज्ञा नहीं बल्कि अनदेखी जारी है। स्पीकर को इतनी लंबी रस्सी दे दी गई है कि वह इसका इस्तेमाल राज्य में बचे हुए लोकतंत्र के अवशेषों का गला घोंटने के लिए कर रहे हैं। अनुच्छेद 370 का मामला भी इसी तरह अधर में लटका हुआ है। आदेश सुरक्षित रखे गए हैं और जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र गायब है। बिलकिस बानो मामला अदालत की रजिस्ट्री से नहीं तो लोगों के राडार से तो गायब हो ही गया है। पेगासस समिति की रिपोर्ट या अडानी समूह के खिलाफ आरोपों में सेबी की जांच का क्या हुआ?
ऐसे महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय लेने में, या आरक्षित आदेश देने में हर दिन की देरी के साथ, यथास्थिति (जो केवल तब की सरकार को फायदा पहुंचाती है) एक नियति बन जाती है जिसे पलटना और भी मुश्किल हो जाता है। यह सरकार को अपनी बुलडोजर रणनीति जारी रखने और अदालत को हल्के में लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। यही कारण है कि अटॉर्नी जनरल उस तरह के बयान दे सकते हैं, जैसे वह दे देते हैं और अदालत में छींटाकशी कर सकते हैं।
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इस महीने के शुरू में जब प्रधान न्यायाधीश ने विधायकों की अयोग्यता मामले पर फैसला करने के लिए महाराष्ट्र स्पीकर के लिए 31 दिसंबर की समय सीमा तय की थी, तब उन्होंने अदालत को अपनी सीमा पार नहीं करने के लिए भी आगाह किया था।
हो सकता है कि न्यायालय कार्यपालिका के साथ टकराव से बचना चाहता है और इसलिए जब उसे निर्देश देना चाहिए तो ‘आग्रह’ करता है या जब उसे आदेश देना चाहिए तो ‘अनुरोध’ करता है। लेकिन इससे तो बात नहीं बन रही; टकराव से बचने के लिए दो लोगों की जरूरत होती है और इसका एक सिरा सरकार के पास है जो हमेशा सींग निकाले रहती है। इसके अलावा, यह कानून की गरिमा को भी कम करता है और नागरिकों की नजर में कानूनी संस्थानों की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
हमें अदालतों से उम्मीद है कि वह बिना किसी भय या पक्षपात के कानून का राज कायम करे। जज वैसा ही व्यवहार न्यायालय के भीतर करें जो वे इसके बाहर सेमिनारों, सम्मेलनों और भाषणों में कहते हैं। हमें न्यायपालिका से यही उम्मीद है कि वह हमारी मूलभूत स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए अधिक चिंता करे, सरकार को सख्त संदेश दे और आदेशों को नहीं मानने पर सख्ती से पेश आए। ‘जीतने के लिए गिरना’ ओलिवर गोल्डस्मिथ के नाटक के लिए एक मौजूं फलसफा हो सकता है लेकिन हमारे मौजूदा सियासी माहौल के लिए पूरी तरह गैर-वाजिब है। क्या आपको नहीं लगता कि इसे बेहतर तरीके से परिभाषित करने वाला वाक्यांश है- ‘पीठ में छुरा भोंकने के लिए मीठी-मीठी बातें’?
(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com में छपे लेख का संपादित रूप है।)
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