हमारे पुराने ग्रंथों में कलियुग को लेकर जो खौफनाक भविष्यवाणियां की गईं हैं, उनमें से एक यह है कि कलियुग में लोग सच्ची आराधना छोड़ कर ‘ऐंडूश पूजक’ बन जायेंगे। ऐंडूश यानी किसी मृतक के अंतिम अवशेषों पर बनाया गया स्मारक या स्तूप। आज सुबह से गांधी जी की जयंती पर सरकार की तरफ से जो कुछ औपचारिक किया, कहा और सुना जा रहा है, जिस तरह सांप्रदायिक तनाव और पुलिसिया खौफ के बीच ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाणे रे’ या ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ के तराने गाये बजाये जा रहे हैं, वह गांधी के जीवन और विचारों के प्रकाश में उनको समझदार श्रद्धांजलि कम, ‘ऐंडूश पूजा’ या बाद के मुहावरे में कहें तो लकीर की फकीरी ही अधिक नज़र आता है।
पहली विडंबना यह कि एक कर्मयोगी के जन्मदिन पर अवकाश घोषित कर देना, यानी तबीयतन आरामपसंद सरकारी कर्मचारियों और कमउम्र छात्रों को कामकाज छोड़ कर घर बैठे रहने का नायाब मौका मिल जाना। दूसरी, उससे भी बड़ी विडंबना है, गांधी जयंती के सरकारी प्रचार पर विज्ञापनों और धंधई प्रचार कंपनियों के बनाये तमाम किस्म के पोस्टरों, कटआउटों, होर्डिंग्स पर उस समय बेतहाशा सरकारी खर्च जब आम भारतीय दिन दिन बढ़ती महंगाई से त्रस्त है। न्यूनतम कपडे़ पहनने और नितांत सादगी से रहनेवाले गांधी जी की किफायतपसंदगी इस सरकारी तामझाम से कतई गायब है जो गांधी जी के नाम पर किया जा रहा है। यह गौरतलब है कि सहकारिता और गोधन विकास का पर्याय बन चुके अमूल के 6 निदेशकों ने यह कहते हुए गुजरात के आणंद जिले में कराये जा रहे समारोह का यह कह कर बहिष्कार किया है कि इस पर वह 10-15 करोड़ रुपया खर्च किया गया है, जो इलाके के किसानों की कमाई से सरकार को मिला है।
तीसरी विडंबना है सरकार का वह स्वच्छता अभियान। लाल किले से जब से स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा हुई तब से तमाम सरकारी महकमे और मंत्री इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेने की खबरें और तस्वीरें पालतू मीडिया में बोते रहे हैं। पर इस अभियान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा झाडू़ लगाना नहीं, मलव्ययन है। अब तक इस अभियान पर 66,757 करोड़ खर्च हो चुका है, और कई राज्यों ने खुद को खुले में शौच से मुक्त भी कर दिया है। लेकिन हर योजना की तरह यहां मूल गांधी दृष्टि के सरलीकरण की वजह से बदइंतज़ामी और बेसोचेसमझे सिर्फ टायलेट बनवाने की उतावली हावी है। नतीजतन इन सरकारी शौचालयों का मलव्ययन जिन सोख्ता गढ़ों में भरता जा रहा है, उसकी बाबत कोई दीर्घकालीन योजना या उनको बनाने वाले राजमिस्त्रियों का सघन प्रशिक्षण सलेट से गायब है। सरकार के महालेखा परीक्षक की ताज़ा रपट के अनुसार उनके सर्वेक्षित 83 फीसदी गांवों में सीवेज का निकास खुले मैदानों में हो रहा है जो ज़मीन और जल दोनों को प्रदूषित बना कर बीमारियां फैला रहा है। देश की 302 नदियां आज भीषण रूप से प्रदूषित हो गई हैं, जिनमें गंगा, यमुना दोनों शामिल हैं। और इसकी सबसे बड़ी वजह है सीवेज के नालों से बह कर उनमें लगातार मिलती गंदगी। सोख्ता गढ़ों की सफाई कौन करेगा यह सवाल भी मछली के कांटे की तरह हलक में अटका हुआ है। 2017 से अब तक उनकी हाथ से सफाई करने वाले कोई 123 कर्मचारी विषाक्त गैसों से मारे गये हैं। गांवों शहरों में अपने हाथ से सफाई का काम अभी तक निचली जातियों के गरीबकर्मी कर रहे हैं। क्या यह मानसिकता सरकारी आदेश से बदल जायेगी? किस बड़े नेता को हमने किसी सीवर होल में उतर कर हाथ से मैला साफ करते देखा है? झाडू़वीर तो भतेरे नज़र आये।
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गांधी दर्शन को समझने में वह कौन सी कमी रह गई है कि उनसे जुड़ा हर सरकारी समारोह जड़, गतिहीन और निरर्थक बनता जा रहा है? 2 अक्टूबर 2018 को श्राद्ध के पखवाड़े में हम क्या किसी वायु पुरुष की स्मृति का श्राद्ध कर रहे हैं? मौजूदा राजनीति तो दो ध्रुवों पर जी रही है, एक कालातीत जिसमें अयोध्या, काशी और केदारनाथ और संत-साधु यज्ञ और टोना करनेवाले बाबा हैं, दूसरा क्षुद्र सांसारिक राजनीति का जिसमे जाति-पांति के हिसाब से बंटने वाले मुआवजे और धर्म के आधार पर की जानेवाली हत्यायें हैं, इन खोखले जुमलों और इस पाखंडमय हवन नमन के बीच में गांधी कहां फिट होते हैं?
देश को निश्चय ही नया सोच, नया खून चाहिये। पर जैसा कि बापू ने अपनी चंपारण डायरी में सौ बरस पहले लिखा था, ‘यह एक लंबी लड़ाई है जिसमें जोश से ज़्यादा होश चाहिये।’
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